लेट ट्रेन बनाम बुलेट ट्रेन!

बुद्धिनाथ मिश्रा वरिष्ठ साहित्यकार जिस दिन मुंबई से अहमदाबाद के बीच अमीरों की रेल-यात्रा सुखद बनाने के लिए बुलेट ट्रेन चलाने हेतु भारत और जापान के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हो रहे थे, उस दिन मेरा पूरा परिवार एक विचित्र संकट से गुजर रहा था, जिसके लिए पूरी तरह रेल मंत्रालय जिम्मेवार था. दरअसल, देवभूमि […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 13, 2016 2:15 AM
बुद्धिनाथ मिश्रा
वरिष्ठ साहित्यकार
जिस दिन मुंबई से अहमदाबाद के बीच अमीरों की रेल-यात्रा सुखद बनाने के लिए बुलेट ट्रेन चलाने हेतु भारत और जापान के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हो रहे थे, उस दिन मेरा पूरा परिवार एक विचित्र संकट से गुजर रहा था, जिसके लिए पूरी तरह रेल मंत्रालय जिम्मेवार था. दरअसल, देवभूमि उत्तराखंड की राजधानी देहरादून और बिहार की राजधानी पटना के बीच सिर्फ एक ट्रेन ‘उपासना एक्सप्रेस’ है, जो सप्ताह में दो दिन ही चलती है, वह भी रात में साढ़े दस बजे. और हावड़ा स्टेशन पर पहुंचती है रात के तीन बजे!
इस ट्रेन ने विलंब से चलने के लगभग सारे रेकॉर्ड तोड़ दिये हैं. चार-पांच घंटा देर से आना तो इसके लिए मामूली बात है. इसलिए जब दस घंटे की सीमा पार कर जाती है, तभी स्थानीय अखबारों में छोटा-सा समाचार बनता है. जब नियमतः देर से आती है, तो स्वाभाविक है कि थोड़ा सुस्ता कर, हुक्का-चिलम पीकर ही जायेगी. सो कभी दो बजे रात, तो कभी चार बजे सबेरे रवाना होती है.
तब तक सभी यात्री प्लेटफाॅर्म पर रतजगा करते हैं. वे यात्री अधिकतर सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों के होते हैं, जो सूर्यास्त से पहले देहरादून स्टेशन पर पहुंच जाने को मजबूर हैं, क्योंकि उसके बाद पहाड़ी रास्तों पर बसें नहीं चलती हैं. शाम को चलनेवाली ट्रेनों की गहमा-गहमी के कारण उन थके-मांदे मजबूर यात्रियों के लिए इस छोटे-से स्टेशन पर कहीं बैठने का भी ठौर नहीं मिलता. सो रातभर वे उपासना ट्रेन की प्रतीक्षा में तपस्या करते रहते हैं.
रेल प्रशासन से कई बार कहा गया कि इस ट्रेन को या तो समय से चलाओ या बंद कर दो, लेकिन कोई सुनवाई नहीं. हर रेल बजट के समय यह आग्रह भी किया जाता है कि देहरादून और दरभंगा के बीच एक एक्सप्रेस ट्रेन दी जाये, जिससे लाखों यात्री सुविधापूर्वक यात्रा कर सकें. इन यात्रियों में युवा शिक्षार्थी भी होते हैं, तीर्थयात्री भी होते हैं, श्रमिक और सामान्य जन भी होते हैं. इस मसले के मद्देनजर आज तक रेल मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी है.
उस रात यह ट्रेन लगभग 11 घंटे लेट थी, मगर रेलवे इन्क्वायरी के सारे सिस्टम उसे ‘सही समय’ पर बता रहे थे. जिस समय यह ट्रेन देहरादून से विदा होती है, उस समय तक यह देहरादून ही नहीं पहुंची थी.
चूंकि परिवार के सब लोग, जिनमें छोटे-छोटे बच्चे भी थे, इसी ट्रेन से पटना जा रहे थे, इसलिए रातभर सभी लोग रेलवे इन्क्वायरी के दरवाजे खटखटाते रहे, मगर कहीं से कोई स्पष्ट और संतोषजनक उत्तर नहीं मिल रहा था. लगभग ढाई बजे रात में यात्रियों को यह बताया गया कि ट्रेन सबेरे 9 बजे जायेगी. विडंबना देखिए कि वह भी सूचना गलत निकली. रात 10:30 बजे चलनेवाली उपासना एक्सप्रेस अंततः दोपहर 12 बजे रवाना हुई, और जैसा कि लेट ट्रेनों की गति होती है, वह अगले दिन अपराह्न दो बजे पटना पहुंची. यह कोई एक दिन की बात नहीं है, बल्कि बारहमासा गीत है, जिसे हर भुक्तभोगी यात्री को गाना ही पड़ता है.
सबसे कष्टदायक है, इन्क्वायरी सिस्टम का नाकारा होना, जिस पर मोदी सरकार हद से ज्यादा टेक दे रही है. मैं अक्सर रेलयात्रा में रहता हूं. लगभग सभी जंक्शनों और बड़े स्टेशनों पर कम्प्यूटरीकृत एनाउंसिंग सिस्टम लगा दी गयी है, मगर अकुशल कर्मचारियों के हाथों प्रचालित होने के कारण बहुत कम स्टेशनों पर ही यात्रियों को ट्रेनों की पूरी सूचना मिल पाती है.
कभी-कभी तो ‘यात्रीगण ध्यान दें…’ के बाद सीधे ‘जायेगी’ शब्द सुनाई देगा, क्योंकि उसका ऑपरेटर ठीक से फीड करना नहीं जानता. इसी प्रकार, सभी प्लेटफाॅर्मों पर कोच संख्या बतानेवाला संकेतक लगा है, मगर वह काम नहीं करता. केवल प्लेटफॉर्म संख्या और स्टेशन का नाम बताता है, जिसकी यात्रियों को जरूरत ही नहीं है. छोटे स्टेशनों पर, जहां ट्रेनें एक-दो मिनट ही रुकती हैं, वहां यात्रियों को क्या परेशानी होती है, इसे वही जानते हैं.
रेल विभाग की वस्तुस्थिति यही है कि नवीनतम मशीन लगाने के बावजूद ,अकुशल कार्मिकों की वजह से रेलयात्री पूरा लाभ नहीं उठा पाते. इसलिए अधिकतर ट्रेनें गंदी होती हैं, लेट रहती हैं और असुरक्षित होती हैं. अक्सर ट्रेन दुर्घटनाएं भी अकुशल कर्मचारियों के दोष से ही होती हैं. उस रात उपासना एक्सप्रेस लेट आयी, उसका कष्ट जितना हुआ, उससे कई गुना अधिक कष्ट रेल इन्क्वायरी के नाकारापन से हुआ.
इस पर गौर करना इसलिए जरूरी है कि बुलेट ट्रेन चलाने में इस प्रकार के अकुशल कार्मिक बहुत घातक सिद्ध हो सकते हैं. जापान में मैं बुलेट ट्रेन की यात्रा कर चुका हूं. वहां बुलेट ट्रेन से सफर करना काफी खर्चीला माना जाता है. वहां भी वह ट्रेन सामान्य जन के लिए नहीं है, लेकिन सामान्य जन भी जिन ट्रेनों से चलते हैं, वे भी कम तीव्रगामी नहीं होते. भारत की स्थिति बिलकुल भिन्न है.
यहां एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र को जोड़ने के लिए पर्याप्त ट्रेनें नहीं हैं. रेल की पटरियां भी जो अंगरेज बिछा गये, वही हैं. ऐसे में किसी भी जनप्रिय सरकार का पहला कर्तव्य अधिक से अधिक पटरियां बिछाना और आम यात्रियों के लिए बेहतर ट्रेन-सुविधा जुटाना होना चाहिए था, न कि बुलेट ट्रेन चलाने की अय्याशी करना.
पिछले दिनों टिकट रद करने पर जो नया नियम लागू हुआ है, वह भी स्पष्ट रूप से जन-विरोधी है, जिसका एकमात्र प्रयोजन जनता को इंद्रजाल में फंसा कर उसे लूटना है. ऐसा सामान्य जन के साथ निर्मम छलावा सिर्फ इसलिए किया जा रहा है कि उससे धन जुटा कर बुलेट ट्रेन की अय्याशी की जा सके. पिछले कुछ दशकों से रेलयात्रियों को पहले से मिलनेवाली सुख-सुविधाओं में दिनोदिन कटौती की जाती रही है.
चूंकि वे संगठित नहीं हैं, इसलिए जैसे मुंह बांध कर पशु को पीटा जाये, वैसे ही मूक यात्रियों के साथ बर्ताव किया जा रहा है. रेलयात्रियों के कल्याण के लिए बने सभी संगठन चापलूसों से भरे हैं. इसलिए अबकी रेल बजट में लेट ट्रेनों के यात्रियों को अपने भाग्य पर छोड़ कर, बुलेट ट्रेनों को रास्ता दिया जायेगा.

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