रंग-बिरंगे कंचों जैसे शब्द

बुद्धिनाथ मिश्रा वरिष्ठ साहित्यकार बिहार में चुनावी महाभारत जोरों पर है. दो दिन बाद ही मेरे गांव में मतदान होगा. बड़ी इच्छा थी कि इस बार मतदान के समय गांव में ही रहूं. जब से होश संभाला, कभी चुनाव के दिन गांव में नहीं रहा. इस समय बिहार के सारे गांव ‘पितृपक्ष’ में पितरों को […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 10, 2015 1:25 AM
बुद्धिनाथ मिश्रा
वरिष्ठ साहित्यकार
बिहार में चुनावी महाभारत जोरों पर है. दो दिन बाद ही मेरे गांव में मतदान होगा. बड़ी इच्छा थी कि इस बार मतदान के समय गांव में ही रहूं. जब से होश संभाला, कभी चुनाव के दिन गांव में नहीं रहा. इस समय बिहार के सारे गांव ‘पितृपक्ष’ में पितरों को भूल कर चुनावी शैतानों को याद कर रहे हैं. इस समय मैं अपने जनपद से कोसों दूर उस कोटेश्वर मंदिर के पास डेरा डाले हुए हूं, जिसकी तीन ओर भागीरथी की बची-खुची धारा बह रही है.
इसके जल को सबसे पहले टेहरी में बांध कर उससे बिजली निकाली जाती है. कोटेश्वर के बिलकुल पास में देवप्रयाग है, जहां भागीरथी नदी दूसरी ओर से आ रही अलकनंदा नदी से मिलती है. दो नदियों के संगम को ही प्रयाग कहते हैं.
उत्तराखंड में पांच प्रयाग हैं. लोकमान्यता है कि भस्मासुर को वरदान देने के बाद उससे बचने के लिए भगवान शिव कोटेश्वर की गुफा में ही कई दिनों तक विष्णु को जपते रहे. तब उन्होंने मोहिनी रूप धर कर भस्मासुर का नाश किया और शिव अपने ही अमोघ वरदान का शिकार होने से बच गये. यहां पर्वतीय ग्रामीणों की चिकित्सा के लिए ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य द्वारा निर्मित अस्पताल सच्चे अर्थों में ग्रामसेवा करता है.
हिमालय के उस शांत-स्वच्छ परिवेश में बैठे हुए मुझे लगा कि भगवान शिव यहां बैठे हैं और राजनीति की मोहिनी बिहार में अनेक भस्मासुरों को एक साथ नचा रही है. चिंता हो रही है कि क्या इस चुनाव के बाद बिहार का वातावरण वैसा ही रहेगा, जैसा पिछली यात्रा में मैं छोड़ आया था! या उसकी भी स्थिति महाभारत के बाद के कुरुक्षेत्र जैसी हो जायेगी, जिसका वर्णन करते हुए महर्षि व्यास ने दुनिया की सारी यथार्थवादी कविताओं को पीछे छोड़ दिया है:
अस्थि-केश-वसाकीर्णं शोणितौघ-परिप्लुतम्‌।
शरीरैर्वहुसाहस्रैः विनिकीर्णं समंततः।।
यह धर्मक्षेत्र अस्थि, केश, चर्बी से पटा हुआ है और खून का दुस्तर सागर बन गया है. एक अर्बुद सेना, अठारह अक्षौहिणी वीरों का नियतिबद्ध मृत्यु-उत्सव, जिसमें गजारोही, अश्वारोही, रथारूढ़, राजे महाराजे, सामंत, सेनापति, राजपरिजन, श्रेष्ठी अभिजन और सामान्य युद्धक पैदल सैनिक क्षत-विक्षत, मृत, भूलुंठित हैं.
मानव जाति के सामूहिक महाविनाश का यह दृश्यबंध इसलिए याद आता है कि मुझे लगता है कि देश में हर चुनाव के साथ, अनुदात्त और नीतिविहीन राजनीति के बढ़ते चरण हमारे लिए महाविनाश के दिन ले आते हैं. यह ऐसा महाभारत है, जिसमें सबसे ज्यादा शब्दों की शास्त्रीय मर्यादाएं हताहत होती हैं. इस बार के चुनाव में भी भाषा की सारी मर्यादाएं तोड़ी गयीं.
हम कैसे गर्व करें कि हमारे देश के लोग उत्तम कोटि के लोकतंत्र का सुख भोग रहे हैं. धीरे-धीरे ‘निर्वाचन’, ‘सदन’, ‘जन-प्रतिनिधि’, ‘सांसद’, ‘विधायक’ ये सारे सुचिंतित शब्द गोखरू के कांटे की तरह चुभने लगे हैं. आजाद देश की निरंकुश राजनीति ने हमारे सामसिक जीवन के ताने-बाने की शास्त्रीयता, व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र तीनों को लहू-लुहान कर दिया है.
यह देश, इस देश का समाज साहित्यिक परिकल्पनाओं की उपज है. आदिकवि महर्षि वाल्मीकि को माना जाता है. उनके रामायण में जो आदर्श स्थापित किये हैं, वही हमारे सामाजिक-राष्ट्रीय आदर्श हैं. उस समाज के ताने-बाने को राजनीति की डाकिनी तहस-नहस करती जा रही है. राजनेता भी इस यथार्थ को जानते-समझते हैं. इसलिए जो राजनेता उस डाकिनी के कुप्रभाव से बचना चाहते हैं, वे सांप के काटे नेवले की तरह जड़ी ढूंढ़ने साहित्य के पास चले जाते हैं. मुझे नहीं मालूम कि 18 घंटे काम करनेवाले प्रधानमंत्री मोदी अब कितना समय साहित्य-सृजन को दे पाते हैं, मगर एक समय था, जब वे गुजराती में खूब कविता लिखते थे.
उन कविताओं का स्वर लगभग वही है, जो अटल बिहारी वाजपेयी का है. गुजराती में लिखी उनकी 67 कविताओं का एक संग्रह ‘आंख आ धन्य छे’ 2007 में प्रकाशित हुआ था. इस संग्रह का हिंदी अनुवाद, मेरी अनुजा कवयित्री डॉ अंजना संधीर ने किया, जो 15 अगस्त 2014 को ‘आंख ये धन्य है’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. गत दिनो अंजना ने ‘आंख ये धन्य है’ की एक प्रति देते हुए बताया कि इसका अन्य भाषाओं के साथ-साथ मैथिली में भी अनुवाद हुआ है. गुजराती-मैथिली में काफी समानता है, इसलिए हिंदी की अपेक्षा यह आसान भी रहा होगा.
नरेंद्र मोदी जी को जो कट्टर राष्ट्रभक्त राजनेता और वाणी के जादूगर के रूप में जानते हैं, वे इस संग्रह को पढ़ कर सुखी होंगे. भूमिका में मोदी जी ने अपने को मात्र ‘सरस्वती का उपासक’ मानते हुए कहा है कि ‘मैंने कल्पनालोक की खुली छोटी-सी खिड़की में से दुनिया को जैसा देखा, अनुभव किया, जैसा जाना, आनंद लिया, उसी पर अक्षरों से अभिषेक किया है.’ वे प्रार्थना भी करते हैं कि ‘पुस्तक में मेरी पद-प्रतिष्ठा मत देखिए; कविता के पद का आनंद लीजिए.’ क्या है वह आनंद? पहली ही कविता है ‘पृथ्वी यह सुंदर है, आंख ये धन्य है.’ जिस धरती को आयातित चश्मे से कुरूप देखने की कला को ही कविताई मानी जाती हो, उसे सुंदर देखनेवाली आंखों को धन्य मानना सकारात्मक सोच का ही फल है. वे एक कविता में कहते हैं:
कोई पंथ नहीं, ना ही संप्रदाय / मानव तो बस है मानव.
उजाले में क्या फर्क पड़ता है/ दीपक हो या लालटेन…
स्वामी विवेकानंद का संदेश ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ के अनुसरण में नरेंद्र जी ने एक गीत में नींद की चादर ओढ़ सोनेवाले शरीरों को यह कह कर जगाया है: ‘रुक्मिणी का रुदन सुन कर/ द्वारकानाथ बन कर दौड़ो/ अपने पास समय है थोड़ा/ सुदर्शन चक्र लेकर दौड़ो/ अब बांसुरी बन कर न बजो/ ओ वीर अब तो जागो…
लगता है राजनीति के महाभारत में सुदर्शन चक्र लेकर दौड़ रहे नरेंद्र के हाथ से वह बांसुरी छूट गयी है, जिसे कविता कहते हैं. लेकिन आज भी उन्हें ‘रंग-बिरंगे कंचों जैसे शब्द’ आकृष्ट करते हैं. वे कहते हैं: ‘मेरे आसपास खींचो एक शब्दों का चक्र/ उस चक्र को चौरस करो/ फिर उसमें जड़ो रंग-बिरंगे कंचों जैसे शब्द/ शब्द तर्ल कंचों जैसे/ कांच के शब्द/ सांच के शब्द : आंसू जैसे या पूर्णविराम जैसे.’

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