बच्चों की सेहत : कुछ और आगे बढ़े हम

स्वास्थ्य के मामले में बांग्लादेश और नेपाल से पिछड़ना संकेतक है कि भारत में लंबे समय से स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े मामलों की गहरी अनदेखी हुई है और इन मामलों में भारत अब जाकर इन पड़ोसी देशों के करीब पहुंचने को है. हाल ही में जारी रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रेन (आरएसओसी) के निष्कर्षों में […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 21, 2015 7:24 AM
स्वास्थ्य के मामले में बांग्लादेश और नेपाल से पिछड़ना संकेतक है कि भारत में लंबे समय से स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े मामलों की गहरी अनदेखी हुई है और इन मामलों में भारत अब जाकर इन पड़ोसी देशों के करीब पहुंचने को है.
हाल ही में जारी रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रेन (आरएसओसी) के निष्कर्षों में मुख्यधारा की मीडिया ने कोई खास दिलचस्पी नहीं ली. यह दुखद है, क्योंकि सर्वेक्षण के निष्कर्षों में सीखने के लिए काफी कुछ हैं. तीसरा नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (एनएफएचएस) करीब दस साल पहले 2005-06 में संपन्न हुआ था. चौथे एनएफएचएस के पूरा होने में लगी भारी देरी से भारत के सामाजिक आंकड़े बहुत पुराने हो गये हैं. सौभाग्य से, आरएसओसी सर्वेक्षण (2013-14 में किया गया) एनएफएचएस के मॉडल पर तैयार किया जान पड़ता है और इससे स्वास्थ्य तथा पोषण की दशा के संबंध में ऐसे आंकड़ों का पता चलता है, जिनकी तीसरे एनएफएचएस के आंकड़ों से तुलना उपयोगी साबित होगी.
आरएसओसी के निष्कर्षों से अपेक्षाकृत अच्छी खबर निकलती दिखती है. सर्वे के संकेत हैं कि साल 2005-06 से 2013-14 के बीच जननी और शिशु के स्वास्थ्य से जुड़े कई पहलुओं में उल्लेखनीय सुधार आया है. लेकिन यह प्रगति असमान है- कुछ मामलों में तो तेज प्रगति हुई, जबकि अन्य मामलों में प्रगति की रफ्तार धीमी है.
सबसे बड़ा बदलाव सुरक्षित प्रसव के मामले में आया है. अस्पताली प्रसव का अनुपात 2005-06 में 39 प्रतिशत था, जो 2013-14 में बढ़ कर 79 प्रतिशत और प्रशिक्षित सहायकों की मौजूदगी में होनेवाला प्रसव 47 प्रतिशत से बढ़ कर 81 प्रतिशत हो गया है. इसके पीछे कहीं ना कहीं जननि सुरक्षा योजना और अस्पताली प्रसव को बढ़ावा देने के लिए दी जा रही प्रोत्साहन-राशि का असर है. बहरहाल, इस प्रगति का जननी की देखभाल में हुई प्रगति से मेल नहीं बैठता. मसलन, 2013-14 में प्रसव-पूर्व कम से कम तीन चेकअप करानेवाली माताओं का अनुपात (63 प्रतिशत) साल 2005-06 के ऐसी माताओं के अनुपात (52 प्रतिशत) से थोड़ा ही अधिक है. इसी तरह, कम से कम 90 दिनों तक फोलिक एसिड और आयरन की गोलियां लेनेवाली माताओं का अनुपात दोनों ही अवधियों के लिए बहुत कम (क्रमशः 23 प्रतिशत और 24 प्रतिशत) है.
टीकाकरण के मामले में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है. टीका- कार्डधारी बच्चों की संख्या 2005-06 के 38 प्रतिशत से बढ़ कर 2013-14 में 84 प्रतिशत और पूर्ण टीकाकरण का कवरेज 44 प्रतिशत से बढ़ कर 65 प्रतिशत हो गया है. लेकिन बढ़ती के बावजूद भारत टीकाकरण की दर के मामले में दुनिया के निचले क्रम के देशों में है. पर हां, इस बात के संकेत हैं कि चीजें अब पटरी पर आ रही हैं. अस्पताली प्रसव की तरह, टीकाकरण के मामले में हुई प्रगति के पीछे भी हाल की नीतिगत पहलकदमियों जैसे कि ‘आशा’ स्वास्थ्यकर्मियों की नियुक्ति को वजह बताया जा सकता है, जो आंगनबाड़ी सेविकाओं और ‘एएनएम’ के साथ टीकाकरण के काम में लगी हैं. स्तनपान के मामले में हुई प्रगति की वजह भी यही पहलकदमियां हैं: जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान करनेवाले शिशुओं का अनुपात 2005-06 के 25 प्रतिशत से बढ़ कर 2013-14 में 45 प्रतिशत हो गया है.
सर्वे के सेहत और पोषण के अन्य सूचकांक 2005-06 से 2013-14 के बीच की अवधि में साधारण प्रगति के संकेतक हैं, जो एनएफएचएस-2 और एनएफएचएस-3 (ये सर्वेक्षण क्रमशः 1998-99 और 2005-06 में हुए) से ज्यादा तेजतर है. लेकिन प्रगति की यह रफ्तार उठान लेती अर्थव्यवस्था के अनुरूप नहीं कही जा सकती. मिसाल के लिए, उम्र और लंबाई के मानक के हिसाब से कुपोषित बच्चों की संख्या 48 प्रतिशत से घट कर 39 पर आयी है, जबकि उम्र और वजन के मानक के हिसाब से कुपोषित बच्चों की संख्या 43 प्रतिशत से कम होकर 29 पर पहुंची है. इसे उल्लेखनीय सुधार माना जायेगा, लेकिन अगर भारत को कुपोषण से एक युक्तिसंगत अवधि में पार पाना है, तो प्रगति की रफ्तार ज्यादा तेज होनी चाहिए.
कुछ महत्वपूर्ण मामलों में सर्वेक्षण के निष्कर्ष ठहराव के संकेतक हैं. इनमें एक है सुरक्षित पेयजल तक पहुंच का मामला: साल 2005-06 में सुरक्षित पेयजल तक 88 प्रतिशत आबादी की पहुंच थी, तो साल 2013-14 में 91 प्रतिशत लोगों की. सुरक्षित पेयजल को महत्व को देखते हुए 10 प्रतिशत आबादी का अब भी इससे वंचित छूट जाना चिंताजनक है (साल 2007 में बांग्लादेश में मात्र 3 प्रतिशत आबादी सुरक्षित पेयजल से वंचित थी). साफ- सफाई की दिशा में हुई धीमी प्रगति भी चिंताजनक है: 2005-06 में खुले में शौच करनेवाले परिवारों की तादाद सर्वेक्षण के नमूने में 55 प्रतिशत थी, जो 2013-14 में घट कर 46 प्रतिशत हुई है. यह कमी सालाना लगभग 1 प्रतिशत भर है. अगर यही रफ्तार जारी रही तो भारत को खुले में शौच की समस्या से निजात पाने में अभी और चालीस साल लगेंगे.
सर्वेक्षण के आंकड़ों की दक्षिण एशिया के देशों के समधर्मी आंकड़ों से तुलना करने पर भारत की स्थिति पिछड़ी जान पड़ती है. मसलन, प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में बांग्लादेश से दोगुना धनी होने के बावजूद भारत शिशुओं के टीकाकरण की दर, स्तनपान के प्रचलन, खुले में शौच, सुरक्षित पेयजल तक पहुंच तथा अन्य संबद्ध सूचकांकों के मामले में उससे बहुत पीछे है. भारत की तुलना नेपाल से करें तोभी यही बात लागू होती है जबकि नेपाल बांग्लादेश से गरीब है. बांग्लादेश और नेपाल से पिछड़ना संकेतक है कि भारत में लंबे समय से स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े मामलों की गहरी अनदेखी हुई है और इन मामलों में भारत अब जाकर इन पड़ोसी देशों के करीब पहुंचने को है. वक्त की मांग है कि प्रयासों को तेज किया जाये और इनका विस्तार उन क्षेत्रों में हो, जहां तेज प्रगति के संकेत नहीं मिल रहे.
अफसोस है कि समेकित बाल विकास कार्यक्रम का वित्तीय आबंटन पिछले बजट में लगभग 50 प्रतिशत घटा, जो कि नीतिगत प्राथमिकताओं के लिहाज से चिंताजनक है. स्वास्थ्य नीति भ्रम के दलदल में फंसी है, स्वास्थ्य मंत्रालय और नीति आयोग एक दूसरे से उलट बातें कह रहे हैं. केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा अधिनियम में प्रावधानित मातृत्व से जुड़ी हकदारियां देने के वैधानिक दायित्व की साफ अनदेखी कर रही है. यहां तक कि साफ-सफाई से जुड़ा बजट भी चुपके से घटा दिया गया, जबकि प्रधानमंत्री ने बड़ा वादा किया था कि पांच साल के भीतर भारत को खुले में शौच से निजात मिल जायेगी. निकट भविष्य में आगे और प्रगति के लिहाज से यह बात ठीक नहीं बैठती. (अनुवाद : चंदन श्रीवास्तव)
ज्यां द्रेज
विजिटिंग प्रोफेसर, रांची विवि
jaandaraz@gmail.com

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