वाया श्रीलंका, तमिलनाडु में जड़ की तलाश

पुष्परंजन दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज तमाम ऐसे बिंदु हैं, जिन पर काम करने का मतलब होगा कि सिरिसेना सरकार तमिलों के जख्मों पर मरहम लगाने के प्रति गंभीर है. शायद यही वजह है कि राष्ट्रपति सिरिसेना जब तिरुपति की यात्र पर थे, तो तमिलनाडु शांत-सा था. तिरुपति में महाशिवरात्रि मनाने के बाद बुधवार को राष्ट्रपति […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 19, 2015 3:06 AM
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
तमाम ऐसे बिंदु हैं, जिन पर काम करने का मतलब होगा कि सिरिसेना सरकार तमिलों के जख्मों पर मरहम लगाने के प्रति गंभीर है. शायद यही वजह है कि राष्ट्रपति सिरिसेना जब तिरुपति की यात्र पर थे, तो तमिलनाडु शांत-सा था.
तिरुपति में महाशिवरात्रि मनाने के बाद बुधवार को राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना श्रीलंका लौट गये. उनकी इस यात्र पर डेली मिरर ने जो ‘काटरून ऑफ द डे’ छापा है, वह दिलचस्प है. एक जहाज पर मोदी जी के बगल में सिरिसेना मछली पकड़नेवाली बंसी उठाये खड़े हैं, और प्रधानमंत्री मोदी समंदर से निकाले नाभिकीय हथियार को पकड़े हुए हैं. जाहिर है, यह काटरून दो दिन पहले उस समझौते पर तंज करता हुआ है, जिसमें श्रीलंका में एटमी बिजलीघर बनाने के लिए भारत ने हस्ताक्षर किया है. श्रीलंका का लक्ष्य 2031 तक छह हजार मेगावाट बिजली परमाणु ऊर्जा के जरिये हासिल करना है.
भारत कोई पहली बार देश से बाहर परमाणु बिजलीघर नहीं बना रहा है. श्रीलंका से पहले 1970 से 80 के बीच भारत ने इंडोनेशिया को एटमी बिजलीघर लगाने में मदद दी थी. वियतनाम और फिलीपींस में भी भारत परमाणु सहयोग के क्षेत्र में विस्तार कर रहा है. वियतनाम के बाद श्रीलंका एक ऐसा बाजार है, जहां परमाणु बिजलीघर लगाने के मामले में चीन को ऐसा लग रहा है, मानो उसके समक्ष परोसी हुई थाली किसी ने छीन ली हो.
श्रीलंका की कूटनीति ने अचानक से रफ्तार पकड़ ली है. 27-28 फरवरी को श्रीलंका के विदेश मंत्री मंगला समरवीरा चीन की यात्र पर होंग, क्योंकि राष्ट्रपति सिरिसेना को 26 से 30 मार्च तक पेइचिंग की यात्र पर जाना है, और अपने समकक्ष प्रसिडेंट शी को जताना है कि हम आपसे जुदा नहीं हुए. मार्च के मध्य में प्रधानमंत्री मोदी श्रीलंका जायेंगे.
चीन यों, श्रीलंका में 500 मेगावॉट का थर्मल पावर प्लांट लगा रहा है. महिंदा राजपक्षे जब राष्ट्रपति थे, तब चीन एटमी ऊर्जा में सहयोग का प्रस्ताव रख चुका था, अब यह एक झटके में बिखर सा गया लगता है. भारत के पड़ोस में सिर्फ पाकिस्तान नाभिकीय ऊर्जा से संपन्न देश नहीं रह जायेगा. भारत के दूसरे पड़ोसी देशों में भी नाभिकीय ऊर्जा से लैस होने की बेचैनी है. संभव है कि बाद के दिनों में ये देश एटमी हथियार से लैस होने की महत्वाकांक्षा को अमली जामा पहनाने में लग जाएं.
बांग्लादेश के रूप्पुर में दो हजार मेगावॉट का न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने के वास्ते रूस फरवरी, 2011 से काम कर रहा है. जुलाई, 2014 में म्यांमार ने ऐलान कर दिया कि वह न्यूक्लियर रिसर्च रिएक्टर लगाने जा रहा है. म्यांमार एक ऐसा देश है, जहां परमाणु सामग्री का टोटा नहीं है.
उल्टा उसके यहां से चीन यूरेनियम मंगा रहा है. चीन योजनाबद्घ तरीके से पाकिस्तान में परमाणु हथियार से लेकर एटमी बिजली परियोजनाओं में घुसपैठ कर चुका है. उसकी कोशिश यही रही है कि बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका की सिविल न्यूक्लियर परियोजनाओं में किसी तरह हिस्सेदारी हासिल कर ले. यहां तक कि मालदीव के नेताओं को भी चीन ने समझाने की चेष्टा की कि उन्हें नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की सोचना चाहिए. लगता है चीन का यह खेल भारत बिगाड़ने में लग गया है, जिसकी शुरुआत श्रीलंका से हो रही है.
श्रीलंका में इस कूटनीतिक ‘यू टर्न’ का श्रेय प्रधानमंत्री रणिल विक्रम सिंघे को जाता है, जिन्होंने पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के बिछाये तंत्र को छिन्न-भिन्न कर दिया है. श्रीलंकाई विदेश सेवा की हालत यह थी कि 75 प्रतिशत नियुक्तियां राजपक्षे ने वैसे लोगों की कर रखी थी, जो ‘कैरियर डिप्लोमेट’ नहीं थे. ये कूटनीतिक के वेश में राजदरबारी थे, जिन्होंने राजपक्षे के इशारे पर रणनीतिक साङोदारी को भारत विरोधी बना दिया था. विदेश मंत्री मंगला समरवीरा ने सबसे पहले ऐसे चाटुकारों को झाड़ू लगाया, और यह संदेश दिया कि श्रीलंका को निगरुट नीति पर अग्रसर होना है.
उसे चीन या पाकिस्तान की गोद में जाकर नहीं बैठना है. फिर भी अभी जो कुछ फैसले श्रीलंका सरकार ले रही है, उसमें प्रधानमंत्री मोदी जी और वाशिंगटन की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते.
समरवीरा ने विदेशमंत्री पद की शपथ लेने के बाद भारत का रुख किया था. तब इस बात की समीक्षा की गयी कि भारत में रह रहे एक लाख तमिल शरणार्थियों की श्रीलंका वापसी कैसे हो. तमिलनाडु सरकार ने 68 हजार शरणार्थियों के लिए कैंप मुहैया करा रखा है. सौ दिन के भीतर सिरिसेना की सरकार को तमिलों के लिए क्या करना है, इसका ब्ल्यू प्रिंट भी भारत सरकार के समक्ष रखा गया.
उत्तरी और दक्षिणी प्रांतों में गर्वनर, सेना के जनरल नहीं बनाये जायेंगे. वहां सिविलियन इसकी जिम्मेवारी संभालेंगे. जाफना प्रायद्वीप के उत्तरी हिस्से और वल्लिकामम नार्थ में श्रीलंकाई तमिलों के हजारों एकड़ भूमि का हरण सेना के जिन अफसरों ने कर रखा है, उसे उसके वास्तविक मालिकों को लौटाये जायेंगे. आये दिन समुद्री सीमा में दक्षिण भारतीय मछुआरों को लेकर जो विवाद होते रहे हैं, उसे सुलझाने का ब्ल्यू प्रिंट भी बनाया गया है. ये तमाम ऐसे बिंदु हैं, जिन पर काम करने का मतलब होगा कि सिरिसेना सरकार तमिलों के जख्मों पर मरहम लगाने के प्रति गंभीर है. शायद यही वजह है कि राष्ट्रपति सिरिसेना जब तिरूपति की यात्र पर थे, तो तमिलनाडु शांत सा था.
सिरिसेना सौ दिन में जो कुछ शरणार्थियों के लिए करना चाहते हैं, वह व्हाइट हाउस और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून को भी प्रभावित कर रहा है. इस वजह से अमेरिका की दक्षिण एशियाई मामलों की मंत्री निशा देसाई बिस्वाल पहली फरवरी को कोलंबो आयीं. समरवीरा इसके प्रकारांतर वाश्ंिागटन और न्यूयार्क में बान की मून से मिलते हुए फरवरी के पहले हफ्ते कोलंबो लौटे. मार्च, 2014 में जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने श्रीलंका को युद्ध अपराधी देश घोषित किया था.
आयोग ने श्रीलंका को 2009 में 40 हजार तमिलों के संहार का जिम्मेवार ठहराया था, जिसे लेकर तमिलनाडु की राजनीति गाहे-बगाहे गरमाती रही है. 25 मार्च, 2015 को श्रीलंका को इसकी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को सौंपनी थी. अब इसे सितंबर तक टाले जाने का संकेत स्वयं संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जैद राद अल हुसैन दे रहे हैं, ताकि नयी सरकार को भरपूर समय मिल सके. अप्रैल, 2016 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव है.
इससे छह-आठ माह पहले आयी रिपोर्ट से क्या भारतीय जनता पार्टी को फायदा हो सकता है? यह एक बड़ा सवाल है. उसकी वजह गुजराती मूल की अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री निशा देसाई बिस्वाल हैं. निशा और नरेंद्र भाई की जोड़ी इस योजना पर लगातार काम कर रही है कि श्रीलंका को काजल की कोठरी से कैसे बाहर निकालें!

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