सेक्युलर राजनीति के उदय का क्षण

योगेंद्र यादव प्रवक्ता, आम आदमी पार्टी कांग्रेस का अल्पसंख्यकवाद और भाजपा का बहुसंख्यकवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ये एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं. इन दोनों का कुल नतीजा यह है कि मुसलमान पिछड़ा और उपेक्षित है. भाजपा उनकी परवाह नहीं करती, क्योंकि उसे पता है कि इनका वोट तो मिलने […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 19, 2015 3:03 AM
योगेंद्र यादव
प्रवक्ता, आम आदमी पार्टी
कांग्रेस का अल्पसंख्यकवाद और भाजपा का बहुसंख्यकवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ये एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं. इन दोनों का कुल नतीजा यह है कि मुसलमान पिछड़ा और उपेक्षित है. भाजपा उनकी परवाह नहीं करती, क्योंकि उसे पता है कि इनका वोट तो मिलने से रहा. कांग्रेस भी उनकी परवाह नहीं करती, क्योंकि उसे भरोसा है कि इनका वोट तो कहीं और जाने से रहा. इस जुगलबंदी में सेक्युलरिज्म के सिद्धांत को मुसलमानों के लिए अभिशाप में बदल दिया था.
दिल्ली चुनाव से ठीक एक दिन पहले घटित इमाम बुखारी प्रकरण आज भले ही बेअसर नौटंकी दिखाई दे, लेकिन इस छोटी सी खिड़की से इतिहास के कदमों की आहट सुनाई देती है. अचानक मानो कुछ ही घंटों में सेक्युलरवाद की राजनीति बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी में दाखिल हो गयी. मानो संविधान बनने के 65 साल बाद सेक्युलरवाद के सिद्धांत को अपनी खोई राजनीति मिल गयी.
दिल्ली चुनाव में कुछ ही घंटे शेष थे कि अचानक जामा मसजिद के स्वयंभू ‘शाही’ इमाम बुखारी प्रकट हुए. खुद को मुसलमानों का ठेकेदार मानते हुए उन्होंने मुसलिम मतदाताओं से आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की अपील की. इसके कुछ ही देर बाद वित्त-मंत्री अरुण जेटली ने इस अपील के बदले इसका विरोध करनेवालों से एकजुट होने की अपील कर डाली. शाही इमाम का प्रकरण एकदम से रहस्यमय हो उठा. ध्रुवीकरण और प्रति-ध्रुवीकरण का यह खेल नया नहीं था. इस खेल के जानकारों का मानना है कि दोनों खिलाड़ियों में मिलीभगत रहती है.
आम आदमी पार्टी के अप्रत्याशित जवाब ने इस घटना को नया मोड़ दिया. पार्टी के प्रवक्ताओं ने तुरंत टीवी पर आकर इस समर्थन को खारिज कर दिया. मेरी याद में शायद यह पहला मौका था, जब मुसलिम वोट की उम्मीद करनेवाली किसी पार्टी ने इमाम बुखारी के समर्थन को ठुकरा दिया. असली बात यह है कि इससे आम आदमी पार्टी का जनाधार घटने की जगह बढ़ गया. औसत हिंदू वोटर को तो यह कदम ठीक लगा ही, मुसलिम समुदाय में भी इस कदम को सराहा गया.
सीएसडीएस-लोकनीति के प्रामाणिक चुनाव-बाद सर्वे के मुताबिक, दिल्ली के 77 प्रतिशत मुसलमानों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया. यानी ‘शाही’ इमाम को धता बताने के बाद आम आदमी पार्टी को उत्तर प्रदेश में सपा और बिहार में राजद से ज्यादा मुसलिम समर्थन मिला. इस लिहाज से यह छोटी सी घटना सेक्युलरवाद की राजनीति को कोई नया मोड़ दे सकती है.
सेक्युलरवाद हमारे संविधान का सबसे पवित्र सिद्धांत और हमारी राजनीति का सबसे नापाक ढकोसला है. भारत के संविधान में सेक्युलरवाद शब्द भले ही 1976 में जोड़ा गया, लेकिन संविधान की मूल-भावना सेक्युलरवाद में रची-बसी है.
भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है. सभी धर्मो के अनुयायियों को अपने धर्म के पालन, प्रचार, प्रसार करने की पूरी आजादी है. भारतीय सेक्युलरवाद के भाष्यकार राजीव भार्गव की मानें, तो सभी धर्मो से समान दूरी, लेकिन उसूलन दखल हमारे संविधान की मूल आत्मा है. पश्चिमी सेक्युलरवाद को हमने देसी धार्मिक सहिष्णुता की परंपराओं से जोड़ कर एक नया आयाम दिया. अगर सेक्युलरवाद की सांवैधानिक गारंटी नहीं होती, तो पता नहीं भारत की एकता कब तक कायम रह पाती.
लेकिन, दैनंदिन राजनीति ने सेक्युलरिज्म के इस पवित्र सिद्धांत को महज वोट-बैंक राजनीति बना कर रख दिया. जैसे-जैसे स्वतंत्रता सेनानियों और उनके आदर्शवाद की विदाई होने लगी, वैसे-वैसे सेक्युलरवाद का नारा मुसलिम वोट झटकने के हथकंडे में तब्दील होता गया.
पहले कांग्रेस, फिर समाजवादी पार्टी और राजद जैसी पार्टियों ने इसका इस्तेमाल मुसलमानों को बंधक बनाये रखने के लिए किया. चुनावी राजनीति में मुसलिम वोट केवल उन मुद्दों से बंध कर रह गया, जो केवल मुसलमानों के मुद्दे तक सीमित थे- मसलन उर्दू, मुसलिम पर्सनल कानून, बाबरी मसजिद, वक्फ बोर्ड. मुसलमानों के वोट या तो इन छद्म मुद्दों के आधार पर जीते जाते थे या फिर उन्हें दंगों का डर दिखा कर जुटाया जाता था.
इस ढकोसले का परिणाम सबके सामने है. सच्चर कमिटी ने हमें आईना दिखाया और बताया कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मामलों में मुसलमानों की हालत दलित जातियों जैसी या उनसे भी बद्तर है. सच्चर कमेटी से सच पता तो लगा, लेकिन बदला नहीं. पिछले साल सच्चर कमिटी के बाद मुसलिम समाज की दशा का मूल्यांकन करनेवाली कुंडू समिति ने फिर उसी कड़वी हकीकत की पुष्टि की है. पिछले आठ साल में मुसलिम समाज की दशा और भी खराब हुई है.
सेक्युलरवाद की इस ढोंगी राजनीति का उल्टा असर हुआ. अल्पसंख्यक मुसलमानों को मिला तो कुछ नहीं, उलटे तुष्टीकरण का ठप्पा जरूर लग गया. कांग्रेस जैसी पार्टियों की वोट-बैंक की राजनीति को देख कर एक औसत हिंदू को लगने लगा कि हो न हो सरकार मुसलमानों की तरफदारी करती है.
देश का बहुसंख्यक समाज एक अल्पसंख्यक की मनोदशा का शिकार होता गया. इससे पचास के दशक में खारिज हो चुकी हिंदुत्व की विचारधारा को नया जीवन मिला. परिणाम था राम जन्मभूमि आंदोलन और हिंदुत्व के नारे पर चलनेवाली राजनीति का बोलबाला. बहुसंख्यक समाज के वर्चस्व की इस राजनीति की परिणति 2014 के लोकसभा चुनाव में हुई. चुनाव के बाद भी ‘घर वापसी’, गिरिजाघरों पर हमले और नित्य नये उल-जलूल वक्तव्यों से अल्पसंख्यक समुदाय का डर गहराता गया है.
कांग्रेस का अल्पसंख्यकवाद और भाजपा का बहुसंख्यकवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं. इन दोनों का कुल नतीजा यह है कि मुसलमान पिछड़ा भी है और उपेक्षित भी. भाजपा उनकी परवाह नहीं करती, क्योंकि उसे पता है कि इनका वोट तो मिलने से रहा. कांग्रेस भी उनकी परवाह नहीं करती थी, क्योंकि उसे भरोसा था कि इनका वोट तो कहीं और जाने से रहा. इस जुगलबंदी में सेक्युलरिज्म के सिद्धांत को मुसलमानों के लिए अभिशाप में बदल दिया था.
बाबरी मसजिद ढहाये जाने के बाद से मुसलमान इस बंधन से मुक्त होने के लिए छटपटा रहे हैं. वे इमाम बुखारी जैसे ठेकेदारों को एक बार नहीं, कई बार खारिज कर चुके हैं. पिछले बीस सालों में मुसलिम राजनीति में नये मोड़ आये हैं- तालीम, रोजगार और विकास. पसमांदा मुसलमानों का सवाल उभरा है. मुसलमान अपने पुराने ठेकेदारों से मुक्त होना चाहता है.
लेकिन, सेक्युलर पार्टियां उन्हें वापस धकेलती हैं, उन्हें वापस मौलवियों और मुसलिम मुद्दों की ओर धकेलती हैं. पिछले दस साल में वे सेक्युलर पार्टियों की गिरफ्त से छूटने के लिए तरह-तरह के प्रयोग कर चुके हैं. असम में एयूडीएफ, उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी और उलेमा काउंसिल, हाल ही में महाराष्ट्र में एमआइएम, इन्हीं प्रयोगों की कुछ मिसाल हैं. इन प्रयोगों से मुसलिम राजनीति के चेहरे तो बदले, लेकिन उसका चरित्र नहीं बदला.
इस संदर्भ में दिल्ली में आप पार्टी का प्रयोग खास अहमियत रखता है. आप ने मुसलिम मतदाता का दिल और वोट जीता, लेकिन बिजली, पानी, सड़क, तालीम, रोजगार और विकास के सवाल पर. पिछली बार पार्टी ने ‘गैर-मुसलिम’ इलाके में मुसलिम उम्मीदवारों को खड़ा कर एक और नयी शुरुआत की थी. इमाम बुखारी को खारिज करना इसी दिशा में एक बड़ा कदम है. उम्मीद है कि पहली बार संविधान की भावना के अनुरूप सच्ची सेक्युलर राजनीति का उदय होगा.

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