सरकारी आंकड़ों पर बड़ा सवाल

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का यह ताजा बयान सरकारी काम-काज पर बड़ा सवाल है, जिसमें उन्होंने कहा है कि राज्य में कागज पर ही टीकाकरण हो रहा है. इसका सीधा अर्थ यह है कि स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े जमीनी सच्चई को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. इससे इस आशंका को बल मिलता है कि विभागीय आंकड़ों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 21, 2014 11:42 PM

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का यह ताजा बयान सरकारी काम-काज पर बड़ा सवाल है, जिसमें उन्होंने कहा है कि राज्य में कागज पर ही टीकाकरण हो रहा है. इसका सीधा अर्थ यह है कि स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े जमीनी सच्चई को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. इससे इस आशंका को बल मिलता है कि विभागीय आंकड़ों और बच्चों, गर्भवती माताओं व बीमार गरीबों को रोगमुक्त बनाने के लिए चलायी जा रही सरकारी योजनाओं के असर के बीच बड़ा गैप है. सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करने वाला यह बयान किसी आम व्यक्ति या आंदोलनकारी समूह की ओर से नहीं, बल्कि उस जिम्मेवार पद की ओर से आया है जिसके हाथ में राज्य प्रशासन की बागडोर है.

मुख्यमंत्री ने जो ‘सच’ जाहिर किया है, वह आम आदमी के ‘मन की बात’ है. सरकारी आंकड़ों को लेकर ज्यादातर लोगों के मन में इसी तरह के भाव उठते हैं. सरकारी अधिकारी व कर्मचारी फील्ड में जाने की बजाय टेबल पर आंकड़े तैयार करते हैं. ऐसा करने वाले यह नहीं जानते कि वे कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं और जरूरतमंदों को उनके हक से अलग कर रहे हैं. आंकड़ों की महत्ता व इसकी गंभीरता को न समझ पाने से भी यह मसला जुड़ा है. निचले स्तर के कर्मचारियों द्वारा जुटाये गये तथ्यों और तैयार किये गये आंकड़ों के आधार पर सरकार अपनी कार्ययोजना और विभिन्न योजनाओं की रूपरेखा तय करती है.

आंकड़े सही नहीं होंगे, तो रणनीति तैयार करने में चूक होगी. मुख्यमंत्री की साफगोई से खुद उनकी ही सरकार के सामने नयी चुनौती खड़ी हुई है. यह चुनौती है- हालात का रोना रोने की जगह हालात बदलने की. सिर्फ सच बता देने या आम आदमी के मन की बात कह देने से हालात नहीं बदल सकते हैं. इसके लिए तो कारगर कार्रवाई करनी होगी. यदि किसी सरकारी महकमे द्वारा फील्ड में जाने की बजाय बैठ कर आंकड़े तैयार किये जाने की मुकम्मल जानकारी है, तो इसके लिए जिम्मेवारी तय कर कार्रवाई होनी चाहिए. भविष्य में आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया को पारदर्शी और जमीनी सच्चई से परिपूर्ण बनाने की व्यवस्था करनी होगी. यदि ऐसी पहल नहीं हुई, तो सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर बार-बार सवाल खड़े होंगे.

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