खाद्य सुरक्षा और राजनीति

।। प्रमोद भार्गव ।।(वरिष्ठ पत्रकार)केंद्र सरकार देश की करीब 67 फीसदी आबादी को एक से तीन रुपये प्रति किलो की रियायती दरों पर हर माह पांच किलो अनाज हासिल करने का कानूनी हक अध्यादेश के जरिये देने जा रही है. इतने महत्वपूर्ण फैसले को वैकल्पिक कानूनी व्यवस्था के मार्फत लागू करना इस बात का संदेश […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 16, 2013 1:56 PM

।। प्रमोद भार्गव ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
केंद्र सरकार देश की करीब 67 फीसदी आबादी को एक से तीन रुपये प्रति किलो की रियायती दरों पर हर माह पांच किलो अनाज हासिल करने का कानूनी हक अध्यादेश के जरिये देने जा रही है. इतने महत्वपूर्ण फैसले को वैकल्पिक कानूनी व्यवस्था के मार्फत लागू करना इस बात का संदेश है कि सवा चार साल तक इस विधेयक को टालनेवाली यूपीए सरकार हड़बड़ी में है.

2009 में अपने साझा चुनावी घोषणा-पत्र में इसने वादा किया था कि यदि सत्ता में यूपीए की वापसी होती है तो वह सौ दिन के भीतर खाद्य सुरक्षा विधेयक ले आयेगी. यह सही है कि देश में भूख और कुपोषण बड़ी समस्या है, पर फिलहाल अकाल जैसे हालात नहीं हैं. ऐसे में धन की सुनिश्चित व्यवस्था किये बिना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त किये बिना 67 प्रतिशत आबादी को पांच किलो अनाज प्रति व्यक्ति प्रति माह देने की कवायद वोट बटोरने का चुनावी हथकंडा लगता है. संसद से बाहर इतना बड़ा फैसला लेना संसद की मर्यादा की अवज्ञा व संविधान की वैधानिकता को ठेंगा दिखाना भी है.

आनन-फानन में लाये जा रहे इस अध्यादेश से साफ है कि सरकार खाद्य सुरक्षा के प्रति गंभीर नहीं है, क्योंकि इस सुरक्षा से जुड़े ऐसे अनेक पहलू हैं, जिन पर संसद में बहस के बाद ही बहुमत से निर्णय होना चाहिए.

इस बाबत कृषि मंत्री शरद पवार ने नसीहत भी दी थी कि ऐसे फैसले सामूहिक रूप से लिये जाते हैं. लेकिन सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली गैर संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और प्रधानमंत्री की मंशा के अनुरूप काम करनेवाली सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली आर्थिक सलाहकार परिषद की प्राथमिकताओं में भिन्नता होने के कारण प्रस्तावित विधेयक के मसौदे में परिवर्तनों का सिलसिला चला और इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका.

इस बीच मंत्रियों के एक उच्चाधिकार प्राप्त समूह और संसद की स्थायी समिति ने भी इस पर विचार किया. अतत: कैबिनेट से पास होने के बाद विधेयक बजट सत्र में पेश हुआ भी तो विपक्ष के हंगामें की भेंट चढ़ गया. आगामी मॉनसून सत्र महज तीन सप्ताह बाद शुरू होनेवाला है, लेकिन कांग्रेस को आशंका है कि लोकसभा में इस पर बहस कराने से मामला अटक जायेगा.

जनकल्याण और वित्तीय रूढ़ीवादी अंतर्विरोध का भी यह विधेयक भी हिस्सा बनता रहा है. जनकल्याण की दृष्टि से खाद्य सुरक्षा विधेयक इसलिए अहम है, क्योंकि यह लागू होता है तो देश की 67 फीसदी आबादी को सस्ता अनाज हासिल कराने का कानूनी हक मिल जायेगा. लेकिन इतनी बड़ी योजना को जमीन पर उतारने के लिए इतनी बड़ी धनराशि किन स्नेतों से हासिल होगी, विधेयक में इसका कोई उल्लेख नहीं है.

अनाज के उत्पादन, भंडारण और वितरण का रोना भी रोया जाता है. यह विधेयक मौजूदा सूरत में लागू होता है तो साढ़े छह हजार टन अतिरिक्त अनाज की जरूरत पड़ेगी. फिलहाल हमारे यहां 25 करोड़ टन अनाज का उत्पादन होता है. जाहिर है, इस लक्ष्यपूर्ति के लिए कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ा कर फसल उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती होगी. इसी अनुपात में खाद व कीटनाशकों और सिंचाई के लिए बिजली की उपलब्धता भी चाहिए. अनाज का भंडारण अभी ही एक बड़ी समस्या है.

* उत्पादन बढ़ने पर क्या होगा!
केंद्र सरकार को उन राज्य सरकारों से भी मशवरा लेने की जरूरत थी, जो अपने ही मौजूदा आर्थिक स्नेतों के बूते एक व दो रुपये किलो गेहूं-चावल देते हैं. मध्य प्रदेश सरकार तो अन्नपूर्णा योजना के तहत एक रुपये किलो नमक भी दे रही है. वर्तमान में छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों ने अपनी गरीब व वंचित आबादी को भोजन का अधिकार दिया हुआ है.

छत्तीसगढ़ सरकार का खाद्य सुरक्षा कानून को तो एक आदर्श नमूना माना जा रहा है. वहां की 90 फीसदी आबादी को भोजन का अधिकार दिया गया है. हालांकि यह व्यवस्था पीडीएस के माध्यम से ही आगे बढ़ायी गयी है, इसलिए इस खाद्य सुरक्षा को एकाएक असंदिग्ध नहीं माना जा सकता है. फिर भी इसमें कुछ ऐसे उपाय किये गये हैं, जो भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निजात दिलाते लगते हैं. इसमें रियायती अनाज पाने की पात्रता के लिए परिवार को आधार बनाया गया है, न कि व्यक्ति को.

बहरहाल, खाद्य सुरक्षा जैसे जरूरी मसले को राजनीतिक लाभ की दृष्टि से देखने की बजाय गरीबों के भोजन के हक और किसानों की माली हालत सुधारने की दृष्टि से देखने की जरूरत है. साथ ही इसे संसदीय संवैधानिकता देने की भी जरूरत है.

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