नये रुझानों का साक्षी बनता बिहार

केसी त्यागी प्रधान महासचिव, जदयू kctyagimprs@gmail.com विगत लोकसभा चुनावों के नतीजों ने बिहार में कई मिथक तोड़े हैं. एक तरफ जहां मतदाताओं ने राष्ट्रीय सवालों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया है, तो वहीं दूसरी तरफ नये परिवर्तनों की चाहत के लिए नयी जिज्ञासाएं भी पनपी हैं. सात अगस्त, 1990 को जब वीपी सिंह मंडल […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 20, 2019 7:44 AM
केसी त्यागी
प्रधान महासचिव, जदयू
kctyagimprs@gmail.com
विगत लोकसभा चुनावों के नतीजों ने बिहार में कई मिथक तोड़े हैं. एक तरफ जहां मतदाताओं ने राष्ट्रीय सवालों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया है, तो वहीं दूसरी तरफ नये परिवर्तनों की चाहत के लिए नयी जिज्ञासाएं भी पनपी हैं. सात अगस्त, 1990 को जब वीपी सिंह मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू करने की घोषणा कर रहे थे, उसका बिहार की राजनीति पर कितना दूरगामी असर होगा, इसकी कल्पना न तो उन्हें थी और न ही शायद खुद बीपी मंडल को. बिहार ने पिछले 30 वर्षों में सामाजिक-समानता, जातीय अस्मिता के उत्थान व पतन दोनों को करीब से देखा है.
साल 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल को स्पष्ट बहुमत नहीं था. इसने 122 सीटों पर जीत दर्ज की थी. नीतीश कुमार, शरद यादव तथा वाम दल के संयुक्त प्रयासांे का नतीजा था कि लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बन पाये. बिहार के राजनीतिक पटल पर लालू-नीतीश की जोड़ी वहां की राजनीति के दो मजबूत पहिये थे. आज जब हम इसका आकलन करते हैं, तो राजनीतिक दृश्य अजीब नजारे दर्शाता है. साल 1991 के लोकसभा चुनाव तक जनता दल और लालू-नीतीश द्वय के नेतृत्व में बिहार में पिछड़ों-दलितों के सशक्तीकरण की तेज बयार बही थी. संयुक्त बिहार, जिसमें झारखंड का हिस्सा भी शामिल था, जनता दल प्लस 54 में से 49 सीटों पर कामयाब रहा था.
इसके बाद ही लालू प्रसाद के परिवार ने 15 वर्षों तक बिहार में शासन किया. इस दौरान बिहार सभी मापदंडों पर विफल रहा था, नतीजा- 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद एक सीट से खाता तक नहीं खोल सकी. वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार के नेतृत्व में दुर्बल और वंचित समूहों के सशक्तीकरण के साथ नूतन बिहार, नवीन बिहार तथा सुशासन वाला बिहार आदि प्रशासन के मुख्य मुद्दे बने.
बिहार में दो नेतृत्व के बीच अंतर समझना बहुत आवश्यक है. लालू यादव निःसंदेह जातीय अस्मिता के नायक के रूप में उभरे थे. इनकी जाति को लगता था कि उनका व्यक्ति यदि शासन में आयेगा, जनतंत्र में उनकी भागीदारी बढ़ेगी.
लेकिन जनतांत्रिक राज्य में जो सुविधाएं व अवसर उनकी जाति के एक छोटे हिस्से और खासकर जब परिवार तक सीमित हो गये, तो पिछड़ों एवं दलितों में जो नये आकांक्षी समूह उभर रहे थे, उनकी इच्छाएं व अपेक्षाएं भी भिन्न होती चली गयीं.
बाजार का बढ़ता और बदलता आकार, समाज के बदलते स्वरूप तथा बढ़ती जरूरतों ने उनके अंदर जीवन की सभी सुविधाएं- घर, नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेहतर जीवन आदि की चाहत को तीव्र कर दिया. इन्हीं चाहतों को निरंतर दबाने-कुचलने की भूल लालू, उनकी पत्नी और अब उनके बेटे द्वारा की जाती रही है, परंतु अब बिहार में नया आकांक्षी वर्ग जन्म ले रहा है, जो अधिक सुविधाओं और जनतांत्रिक हिस्सेदारी को पाने हेतु जाति के बाहर भी विकासशील नेतृत्व को अपना रहा है.
लालू यादव के अहंकारी व तानाशाही स्वभाव के कारण जाॅर्ज-नीतीश समेत दो दर्जन से अधिक सांसद पार्टी से अलग हो गये थे. यही दौर था जब, अब तक लालू प्रसाद द्वारा अर्जित सामाजिक न्याय की धरातल नये नेतृत्व की ओर आकर्षित होने लगी. इस दल की सारी चमक तब एकदम से मंद हो गयी, जब चारा घोटाला से जुड़े मामले में लालू यादव को जेल की सजा हुई और अंततः उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का नया मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. यह परिवारवाद का सबसे खराब नमूना बना और राजद के लिए विनाशकारी भी. देवगौड़ा, हेगड़े, शरद यादव समेत सभी बड़े नेता अलग दल बना चुके थे.
दरअसल, जनता ने बहुमत इसके लिए नहीं दिया था. इस घटना ने सबको निराश कर दिया. नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद इस्तीफा देकर अपने किसी परिवार या अपनी जाति से मुख्यमंत्री का चयन न कर समाज के सबसे निचले तबके से चुन कर जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया.
इस घटना से न सिर्फ पिछड़े समाज में मौजूदा नेतृत्व के प्रति विश्वास का संचार हुआ, बल्कि सदा के लिए उन वर्गों का समर्थन भी जुड़ गया. लालू प्रसाद का यह आचरण डाॅ लोहिया की सीख, वक्तव्यों तथा उपदेशों के खिलाफ था. इस परिवार का शासनकाल कांग्रेस के किसी भ्रष्ट शासनकाल से अधिक भिन्न नहीं था. फर्क बस इतना रहा कि दो शासनकालों में एक जाति समूह से दूसरी जाति समूह में विस्थापन मात्र हुआ.
बिहार में अब नयी राजनीति का सृजन हुआ है, जो कई तरह का संदेश देती प्रतीत होती है. यह मंडल की राजनीति को आवश्यक मानती है, वंचितों के सशक्तीकरण को निःसंदेह लामबंद करती है, साथ ही उसमें एक नया आकांक्षी वर्ग महिला, दलित तथा महादलित भी बनाता है.
वर्ष 2013 में बिहार पुलिस तथा 2016 में सभी सरकारी क्षेत्रों की नौकरियों में महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था से राज्य की महिलाएं सशक्त हुई हैं. हाल ही में मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना के अंतर्गत प्रत्येक बालिका को ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई हेतु 54,100 रुपये की व्यवस्था अन्य राज्यों के लिए मार्गदर्शन है. आर्थिक मोर्चे पर बिहार का इतिहास बहुत ही हास्यास्पद रहा है, जिसे पिछले 15 वर्षों में काफी हद तक संतुलित किया गया है.
अस्सी के दशक में इसका ‘पर कैपिटा ग्रोथ रेट’ 2.97 फीसदी था, जो 1990 के दशक में 1.86 फीसदी पर आ गया. इन दिनों ‘स्टेट प्लान एक्सपेंडिचर’ का 30 से 40 फीसदी हिस्सा भी विकास कार्यों पर खर्च नहीं हो पाया. इसी दौरान बिहार का ‘पर कैपिटा प्लान एक्सपेंडिचर’ 69 से घटकर 29.5 फीसदी पर आ चुका था. इसके विपरीत आज बिहार का जीएसडीपी देशभर में सर्वाधिक है. इस सूरत में नीतीश कुमार की स्वीकार्यता जाति या विचारधारा के आधार पर नहीं, बल्कि विकास और सुशासन के नाम पर है.
आज पिछड़े दलित वर्ग में उथल-पुथल है. उनकी आकांक्षाएं हिलोरें ले रही हैं. यह 1990 के दौर से भिन्न है. यह आकांक्षा बाजार और तकनीक दोनों से बन रही है. वंचितों में विकास और अपने आर्थिक-सामाजिक उत्थान के प्रति इच्छा भी जगी है और चाहत भी मजबूत हुई हैं.
उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा समेत कई राज्यों में स्थापित नेतृत्व के किले हिल चुके हैं और नव आकांक्षी वर्ग सामाजिक सशक्तीकरण के साथ-साथ विकास कार्यों के प्रति भी इच्छाएं संजोये हुए है. जागरूक एवं समझदार नेतृत्व को इन नये बदलावों का औजार बनना होगा. इसमें परिवारवाद, जातीय संकीर्णता और भ्रष्ट आचरण जैसी बीमारियों से मुक्ति भी एक आवश्यक शर्त होगी.

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