जैसे पाहुन लौटहिं देस

कविता विकास लेखिका kavitavikas28@gmail.com पहली बारिश, यानी उम्मीदों के साकार होने की बारिश, स्वप्नों के धरातल में उतरने की बारिश और खुशहाली में हिलोरें लेने की बारिश. कितना सुकून लाती है यह बारिश, और लाये भी क्यों न, आखिर जीवन की डोर इसी से तो बंधी है. गरमी से तप्त धरा पर जब पहली बारिश […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 18, 2019 6:17 AM
कविता विकास
लेखिका
kavitavikas28@gmail.com
पहली बारिश, यानी उम्मीदों के साकार होने की बारिश, स्वप्नों के धरातल में उतरने की बारिश और खुशहाली में हिलोरें लेने की बारिश. कितना सुकून लाती है यह बारिश, और लाये भी क्यों न, आखिर जीवन की डोर इसी से तो बंधी है. गरमी से तप्त धरा पर जब पहली बारिश की बूंदें गिरती हैं, तब जर्रे-जर्रे पर तृप्ति की आभा जगमगाने लगती है.
जड़-चेतन, चल-अचल, हर ओर इसका असर दिखने लगता है. जीव-जगत में तो यह प्रभाव सीधे परिलक्षित होता है. पहली बारिश और धरती के ऊपरी परत से वाष्पीकरण के साथ मिट्टी की गंध. लोग लंबी-लंबी सांस लेकर उस सौंधी महक को अपने तन-मन में उतारने लगते हैं. माटी की महक के साथ माटी की देह का एक अभिन्न रिश्ता है.
बारिश की छमाछम बूंदें जिस लय का सृजन करती हैं, उसी में तो सृष्टि का आनंद छुपा है. बारिश के रस और बीज के अंकुरण के बाद पौधे का एक सबल पेड़ में तब्दील हो जाना सृजन के अनादि काल से चली आ रही संतति परंपरा का द्योतक है. पक्षी चहचहाते हैं, नदियां लहरिल स्वर में गाती हैं और हवाओं का ओजस्वी वेग जीवन का शाश्वत गीत रचता है.
आरंभ के साथ अंत का जुड़ाव है. प्रकृति के तप में जीवन की साधना है, भाव-यज्ञ है. सूर्य, हवा, मेघ और पेड़ों का धरती से अटल प्रेम है. सूर्य प्रकाश-पुंज होने के साथ रंगों का चितेरा है. वही तो समुद्र के जल का अवशोषण करके मरु धरती में उर्वरा के गुण भरता है और मेघों का जल गिर जाने के बाद इंद्रधनुष बनाकर रंगों को समानांतर खड़ा कर देता है. न कूची, न रंग का पिटारा. कैसा चित्रकार है, जरा सोचिये तो. कितना रहस्य छुपा है प्रकृति में!
पहली बारिश का लुत्फ उठाने के लिए बच्चे-बूढ़े सभी लालायित रहते हैं. क्षणभर को ही सही, पर इसमें भीग जाने को मन छटपटाता रहता है. कहते हैं देखनेवाले की आंख में सुंदरता बसती है, काश, देखनेवाले की आंखों में थोड़ी उदारता भी बसती, तो वह प्रकृति की तरह ही दानी हो जाता. न संग्रह की लालसा होती और न कृपणता का लोभ होता. कवि ने यूं ही थोड़ी कहा होगा, ‘मिट्टी में स्वर है, संचय है, होनी-अनहोनी कहलाये/ हंसकर हलाहल पी जाये, छाती पर सब कुछ सह जाये.’
यथार्थ की तपती धूप के बाद पुनः प्रकृति की कमनीय छांव की ओर लौटना हमारा ध्येय होना चाहिए. अपनी जमीन के संपन्न संसार का संसर्ग निरोग तन तो देगा ही, मन को भी उदात्त गुणों से भर देगा. तभी विश्व को हम अपनी पहचान देने में उद्यत होंगे.
ठीक वैसे ही, जैसे पहली बारिश की पहचान सबसे अलग होती है. बाद की अति बारिश तो दुख का कारण भी बन सकती है, लेकिन पहली बारिश हमेशा सुख का ही संदेश लेकर आती है. इसकी कल्पना मात्र से ही हमारा मन भीग जाता है.
इसकी धमक जब काले बादलों के उमड़-घुमड़ से होती है, तो न केवल आकाश की ओर नजरें तकती रहती हैं, बल्कि हर जुबां पर इसकी चर्चा होती है, जैसे लंबे अंतराल के बाद पाहुन अपने देस लौट आये हों.

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