जहां विस्मय तरबूज की तरह

सुधांशु फिरदौस साहित्यकार sudhansufirdaus@gmail.com जेठ की तपती दोपहर में जब हम लू की लहर से बचने के लिए तरबूज की ओर शीतलता की उम्मीद से देखते हैं, तब इसी धूप में नदी की रेत के खेत में तपते तरबूज किसानों का जलता हुआ खून-पसीना हमसे नजरअंदाज हो जाता है. जिस तरबूज को खरीदने में हमारी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 21, 2019 2:56 AM
सुधांशु फिरदौस
साहित्यकार
sudhansufirdaus@gmail.com
जेठ की तपती दोपहर में जब हम लू की लहर से बचने के लिए तरबूज की ओर शीतलता की उम्मीद से देखते हैं, तब इसी धूप में नदी की रेत के खेत में तपते तरबूज किसानों का जलता हुआ खून-पसीना हमसे नजरअंदाज हो जाता है. जिस तरबूज को खरीदने में हमारी आंख निकलती है, उसके लिए किसानों को पैकारों से बहुत ही न्यूनतम मूल्य मिलता है.
आलोक धन्वा की काव्य पंक्ति ‘जहां विस्मय/तरबूज की तरह/जितना हरा उतना ही लाल’ और किसी के लिए पता नहीं क्या मानी रखता है, लेकिन गंडक के तटीय इलाकों में तरबूज के किसानों की स्थिति बताने के लिए यह पंक्ति मानीखेज है. यहां ज्यादातर किसानों का जीवन असुरक्षा से घिरा हुआ है. यह असुरक्षा तरबूज की खेती में लगनेवाले अत्यधिक खर्च और फसल तैयार होने पर इस रकम वापसी की अनिश्चितता के कारण है.
ज्यादातर किसान महंगी दर से जमीन पट्टे पर लेकर खेती करते हैं, जिसका उनके पास कोई दस्तावेज भी नहीं है कि वह फसल बीमा मिलने जैसी स्थिति में किसी को बता सकें कि मेरी इतने बीघे की खेती है. बीज से खाद तक सब कुछ इन्हें बहुत महंगा मिलता है. सरकार से कोई भी मदद या सहूलियत नहीं मिलती. बहुसंख्य किसान ब्याज पर पैसे लेकर खेती करते हैं, जिससे कर्ज चुकाने का अतरिक्त दबाव होता है.
सरकार या किसी एजेंसी से कोई भी फसल बीमा तरबूज किसानों को उपलब्ध नहीं है. कुछ लोगों को मुनाफा होता है, लेकिन ज्यादातर किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती है. कभी-कभी कर्ज न चुकाना इतना दारुण हो जाता है कि आत्महत्या जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. ज्यादातर किसान इस खेती को जुआ मानते हैं. उन्हें फसल बर्बाद होने का खतरा तो है, लेकिन बालू में वे करें भी क्या?
अफसोस की बात यह है कि सरकार की तरफ से एक रत्ती भर भी सहयोग नहीं मिलता है. वे लोग अपने ही दम पर मिट्टी को सोना बनाने का जुआ खेलते हैं. कुछ डूब जाते हैं, तो कुछ पार होते हैं. नदी उनसे फसल छीनती है, तो यही नदी अगली बार फसल देती भी है. वे नदी से कभी भी नाउम्मीद नहीं होते. सरकार तरबूज को लेकर कितना उदासीन है, इसका एहसास तरबूज उत्पादन के आंकड़ों को देखकर होता है.
पूरे देश में तरबूज उत्पादन की अनुकूल स्थिति होने के बावजूद भारत विश्व उत्पादन में मात्र 0.38 प्रतिशत ही योगदान कर पाता है, जबकि बिहार पूरे देश के तरबूज उत्पादन का मात्र 1.28 प्रतिशत ही उपजा पाता है. वहीं पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश पूरे देश का एक चौथाई से अधिक तरबूज अकेले उपजाता है.
तरबूज की खेती को लेकर इस इलाके में अपार संभावना है. सरकारी महकमा इन किसानों को लेकर लापरवाह है. असमय वाल्मीकि नगर बैराज से पानी छोड़ दिया जाता है, जिससे गंडक का जलस्तर बढ़ जाता है, तरबूज की हजारों एकड़ फसल डूब जाती है और हजारों घरों की उम्मीद भी. लेकिन, यहां प्रशासन का कोई नुमाइंदा या कोई जनप्रतिनिधि इन किसानों की खोज-खबर लेने भी नहीं आता!

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