असल मुद्दा तो अछूता ही है

आरके सिन्हा राज्यसभा सांसद rkishore.sinha@sansad.nic.in लोकसभा चुनावों का प्रचार सारे देश में जोर पकड़ चुका है. हर पक्ष दूसरे पर जनता को छलने का आरोप लगा रहा है. ये सत्तासीन होने पर आसमान से सितारे तोड़ कर लाने के अलावा तमाम अन्य संभव-असंभव वादे भी कर रहे हैं. इन सबके बीच एक मुद्दा लगभग अछूता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 16, 2019 12:09 AM

आरके सिन्हा

राज्यसभा सांसद

rkishore.sinha@sansad.nic.in

लोकसभा चुनावों का प्रचार सारे देश में जोर पकड़ चुका है. हर पक्ष दूसरे पर जनता को छलने का आरोप लगा रहा है. ये सत्तासीन होने पर आसमान से सितारे तोड़ कर लाने के अलावा तमाम अन्य संभव-असंभव वादे भी कर रहे हैं.

इन सबके बीच एक मुद्दा लगभग अछूता बना हुआ है- वह है शिक्षा. इतने महत्वपूर्ण बिंदु पर अभी तक कोई सारगर्भित बहस सुनने को नहीं मिल रही है. अगर हमारे देश में शिक्षा का स्तर नहीं सुधरेगा, तो देश बुलंदियों को कैसे छू सकेगा?

यह आश्चर्य का ही विषय है कि लोकसभा या विधानसभा चुनावों के दौरान शिक्षा के मसले पर कभी पर्याप्त बहस नहीं हो पाती. दरअसल, शिक्षा को राम भरोसे छोड़ दिया गया है.

हमने अपने यहां स्कूली स्तर पर दो तरह की व्यवस्थाएं लागू कर रखी हैं. पहला प्राइवेट-पब्लिक स्कूल, दूसरा सरकारी स्कूल. पब्लिक स्कूलों में तो सब कुछ उत्तम-सा मिलेगा. वहां पर बेहतर इंफ्रास्ट्रचर के साथ-साथ सुशिक्षित शिक्षक भी उपलब्ध मिलेंगे. यदि बोर्ड की कक्षाओं को पढ़ानेवाले शिक्षकों का प्रदर्शन कमजोर रहता है, तो इन शिक्षकों से भी सवाल पूछे जाते हैं.

साथ ही, इनकी कक्षाओं के छात्रों के बेहतरीन परिणाम आने पर इन्हें पुरस्कृत भी किया जाता है, लेकिन ऐसा लगता है कि ये बातें सरकारी स्कूलों पर लागू ही नहीं होतीं. वहां पर अध्यापकों की बड़ी पैमाने पर कमी होने के साथ-साथ जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर का भी नितांत अभाव है. इनमें बच्चों के लिए खेलों के मैदान तक नहीं हैं और अगर कहीं हैं भी, तो वे खराब स्थिति में हैं. इनमें पुस्तकालय और प्रयोगशालाएं आदि भी सांकेतिक रूप से ही चल रहे हैं.

आजादी के 70 साल बाद के लोकसभा चुनाव में भी शिक्षा के मुद्दे पर बहस का होना हमारी शिक्षा को लेकर पिलपिली राजनीतिक मानसिकता को ही दर्शाता है. हां, हम अपने को ज्ञान की देवी मां सरस्वती का अराधक अवश्य कह देते हैं. सरस्वती पूजा के दिन पंडाल लगा कर डिस्को डांस भी करवा देते हैं.

आखिर बुनियादी मुद्दों पर कोई भी पार्टी बहस क्यों नहीं करती? सभी दल शिक्षा को लेकर अपनी भावी योजनाओं से देश के मतदाताओं को अवगत क्यों नहीं करा देते? उसके बाद भले ही जनता अपना फैसला सुना दे, पर अब तक के चुनाव प्रचार के दौरान यह सब देखने को नहीं मिला है.

शिक्षा के अधिकार कानून के तहत एक स्कूल में 35 बच्चों पर एक अध्यापक होना अनिवार्य है, पर नियमों को तो ताक पर रखा जा रहा है.

कहीं-कहीं तो 220 बच्चों पर एक ही शिक्षक है और कहीं-कहीं तो पूरा-का-पूरा स्कूल ही एकाध शिक्षामित्र के सहारे चल रहा है. दिल्ली सरकार बड़े-बड़े दावे करती है कि उसने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाये हैं. दिल्ली सरकार की तरफ से यह तो बताया जाता है कि वह स्कूलों की इमारतों को सुंदर बना रही है, पर उसकी तरफ से इस तथ्य को छिपाया जाता है कि पिछले चार साल के दौरान दिल्ली के पांच लाख बच्चे सरकारी स्कूलों में फेल हुए हैं, जिनमें से चार लाख बच्चों को फिर स्कूलों ने दाखिला देने से इनकार भी कर दिया है.

नौवीं में जो बच्चे फेल हुए, उनमें से 52 फीसदी को फिर दाखिला नहीं मिला. क्या आप यकीन करेंगे कि दिल्ली में 1,028 स्कूलों में से 800 स्कूलों में प्रिंसिपल नहीं हैं और 27 हजार से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली पड़े हुए हैं?

आप मानेंगे कि शिक्षा क्षेत्र में आकर कुछ बेहतर करने को लेकर हमारी नयी पीढ़ी तो कभी उत्साहित नहीं होती. अब मेधावी नौजवान शिक्षक बनने के लिए तो तैयार ही नहीं हैं. यह सोचना होगा कि शिक्षक बनने को लेकर इस तरह का भाव नौजवानों में क्यों पैदा हो गया है? यह भी संभव है कि नौजवानों को लगता हो कि शिक्षक के रूप में अब करियर फायदे का सौदा नहीं रह गया. इसमें अस्थिरता बहुत है.

अब जरा दिल्ली विश्वविद्यालय के 77 कॉलेजों की बात कर लेते हैं. आपको यकीन नहीं होगा कि इनमें लगभग चार हजार शिक्षक तदर्थ (एडहॉक) शिक्षक के रूप में ही पढ़ाते हैं. देश के इतने महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय में भी पिछले कई सालों से शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति नहीं हुई है.

इसलिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने बड़े पैमाने पर तदर्थ शिक्षकों की बहाली कर रखी है, ताकि कॉलेजों में शिक्षण का कार्य सुचारू रूप से चल सके. इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार की शिकायतें भी मिल रही हैं. दरअसल, यह दुर्भाग्यपूर्ण हालात सभी जगहों पर ही देखी जा सकती है.

ये तदर्थ अध्यापक हर दिन शोषण, मानसिक यंत्रणा, ज्यादा काम और असुरक्षा के वातावरण में नौकरी करते हैं. वास्तव में, हमें कभी-कभी बेहद निराशा होती है कि हम शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय को लेकर कितना गैर-जिम्मेदराना रवैया अपनाये हुए हैं. शिक्षा जैसे सवाल पर भी हमारे सभी राजनीतिक दल एक तरह से नहीं सोच पा रहे हैं. इस लिहाज से उत्तर भारत के राज्यों की स्थिति वास्तव में खासी दयनीय है.

कुछ दिन पहले हरियाणा से एक खबर आयी कि दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में जम कर नकल हुई. दसवीं की हिंदी की परीक्षा में नकल के 346 मामले दर्ज किये गये. बताइए, हरियाणा जैसे विकसित राज्य में हम नकल पर काबू नहीं कर पा रहे हैं. बहरहाल, आपके पास जब किसी दल का नेता वोट मांगने आये, तो जरा पूछ लें कि शिक्षा के सवाल पर उसकी या उसकी पार्टी की क्या राय है?

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