जाने मौसम को क्या हो गया!

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार mithileshray82@gmail.com कक्का बनियान पहने खाट पर लेटे हुए थे और धूप को निहार रहे थे. दोपहर का समय था. एकाएक बड़बड़ाने लगे कि पता नहीं मौसम को क्या हो गया है. यह अपना स्वभाव तेजी से खोता जा रहा है. कहने लगे कि अबकी पूस में बिना सूर्य उदय वाला […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 20, 2019 5:54 AM
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
mithileshray82@gmail.com
कक्का बनियान पहने खाट पर लेटे हुए थे और धूप को निहार रहे थे. दोपहर का समय था. एकाएक बड़बड़ाने लगे कि पता नहीं मौसम को क्या हो गया है. यह अपना स्वभाव तेजी से खोता जा रहा है.
कहने लगे कि अबकी पूस में बिना सूर्य उदय वाला एक भी दिन नहीं गुजरा. रोज धूप खिली. सबने रोज नहाया. कभी उस तरह की पछिया भी नहीं चली, जिसमें दांत किटकिटाने लगते हैं. आठ-नौ बजे सुबह वह कुहासा भी नजर नहीं आया, जिसमें आगे के दृश्य ढक जाते हैं.
कक्का की बात पर मैंने गौर किया. टेंपो में घर लौटते हुए लोग भी कुछ इसी तरह की बातें कर रहे थे कि सर्दी का मौसम आया और अब जा भी रहा है, लेकिन एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा, जिसमें सूर्य नदारद हो. वे पीछे के समय में लौटने लगे थे. उनके सामने वह दृश्य तैरने लगा था, जब सर्दी में सूर्य दस-दस दिनों तक की छुट्टी पर निकल जाता था और वातावरण में ओस-कुहासा-हवा की चुभन स्पष्ट महसूस की जाती थी.
कक्का ने मुझे टोका. कहा कि जहां खेती-किसानी की बात होती है, उसमें मौसम की बातें भी अपने आप शामिल हो जाती हैं. वे यह कह रहे थे कि मौसम के आधार पर ही विभिन्न तरह की फसल उगाने की कल्पना को मूर्त रूप दिया जा सका है. फिर वे यह कहने लगे कि हो सकता है कि मौसम के बदलते मिजाज से किसी को कोई लेना-देना नहीं.
लेकिन जिनकी जिंदगी खेतों में उगनेवाले अन्न की उम्मीद पर टिकी रहती है, वे उपयुक्त मौसम का इंतजार करते हैं और उसके ठीक-ठाक रूप में नहीं आने पर उदास हो जाते हैं. कक्का कहने लगे कि मौसम से सेहत और मनोस्थिति के संबंध के बारे में उन्हें ठीक से पता नहीं है. लेकिन, बदल रहे इस मौसम से फसल की सेहत पर पड़ रहे फर्क को वह देख पा रहे हैं. उन्होंने कहा कि ठीक से ठंड नहीं पड़ने का मतलब गेहूं के पौधे बताते हैं.
उसके पौधे को पर्याप्त नमी नहीं मिलेगी और कुहासे उसको नहीं ढकेंगे, तो उपज पर इसका सीधा प्रभाव पड़ेगा. मौसम का अपने सही मिजाज के साथ न आने पर भी बढ़िया उपज की लिप्सा में अंधाधुन रासायनिक उर्वरक के इस्तेमाल से दाने की गुणवत्ता को तो हानि होगी ही होगी.
सर्दी के बारे में ये सब कहते हुए कक्का को बरसात की याद आ गयी. पूछने लगे कि बचपन का याद है न! सात-सात दिनों तक बारिश होती रहती थी और ऐसा लगता था कि सूर्य ने काले-काले बादल के असंख्य टुकड़ों के हवाले आकाश को कर दिया हो और खुद छुट्टी मनाने कहीं दूर निकल पड़ा हो. लेकिन, अब तो दूसरे तरह का ही नजारा है. बारिश का मौसम आकर निकल जाता है और लोग पंपसेट के सहारे धान की हरियाली को बचाने की जुगत में लगे रहते हैं.
कक्का इस बात को नोट कर रहे थे कि दिनों-दिन धूप की मियाद लंबी होती जा रही है. गर्मी का मौसम बीत जाता है और लोगों को लगता है कि अभी नहीं बीता है. कक्का यह पूछने लगे कि क्या एक दिन धूप और उसकी गर्मी के चपेट में आकर सारे मौसम खाक हो जायेंगे! क्या किसी के पास जवाब है?

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