आधी हकीकत, आधा फसाना

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com सितंबर का महीना सरकार के लिए खासा तकलीफदेह साबित हुआ है और वह देश को आनेवाले समय के लिए कुछ खतरनाक संकेत दे रहा है.ओलां के बयानों ने अगर भारत-फ्रांस रिश्तों में एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है, तो फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति तथा भारतीय […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 27, 2018 8:24 AM
मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
सितंबर का महीना सरकार के लिए खासा तकलीफदेह साबित हुआ है और वह देश को आनेवाले समय के लिए कुछ खतरनाक संकेत दे रहा है.ओलां के बयानों ने अगर भारत-फ्रांस रिश्तों में एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है, तो फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति तथा भारतीय विपक्ष के आरोप सत्यापित होने पर राफेल कांड इस सदी के भारत का सबसे बड़ा घोटाला हो सकता है. पाकिस्तान मंद-मंद मुस्कुराता हुआ पड़ोसी की फजीहत पर फब्तियां कस रहा है, सो अलग.
कुछ नये चक्रवाती तूफान भी इस बीच क्षितिज पर उभर रहे हैं. एक धार्मिक कट्टरपन का तूफान है, जिसमें भाजपा के कई छोटे-बड़े नेता विवादास्पद बयान देकर आग भड़का रहे हैं. नाजुक समय में राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बांग्लादेशियों को भारत को खा रहे दीमक कहकर सीमा पार एक और अच्छे पड़ोसी को नाखुश कर दिया है. अदालत में विचाराधीन राम जन्मभूमि का मसला भी ‘मंदिर बन के रहेगा सरीखे’ अध्यक्षीय बयानों से गरमा रहा है. एक और आंधी किसान असंतोष की है.
किसानों की मौतों पर वे सीधे सरकार को जिम्मेदार बता रहे हैं. अन्य हलचल का आभास बसपा की सायास तटस्थता और क्षेत्रीय गठजोड़ों से मिल रहा है. क्या आर्यावर्त से इतर दक्षिण, जहां सवर्ण विरोधी आंधी पहले ही अवर्ण वोटों को ध्रुवीकृत कर चुकी है, और बिहार, जहां पिछड़े तीन दशकों से सत्ता में हैं, भी आपद-धर्म के तहत अब बहनजी, कांग्रेस और वाम दलों से हाथ मिलायेंगे? ऐसा हुआ, तो ताकतवर भाजपा विरोधी खेमे की तलाश करते अल्पसंख्यकों का भी उधर मुड़ना रोके नहीं रुकेगा. ऐसा गठजोड़ पहले से ज्यादा जुझारू व आक्रामक हो सकता है.
माननीय प्रधानमंत्री की खामोशी अब टूटनी चाहिए. रक्षा मंत्री को मोर्चे पर उतारकर कहलवाया गया कि सरकार सुरक्षा वजहों से देश को लड़ाकू हवाई जहाजों की कीमत नहीं बता सकती, पर विपक्ष और मीडिया द्वारा यह सारी आधिकारिक जानकारी वे फ्रांस सरकार के सार्वजनिक किये लेखे-जोखे से पा जाना नहीं रोक पाये. तदुपरांत, मामला संसद में उठा और रक्षा मंत्री जी ने भड़ककर कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर दाम कितना तय हुआ, यह जानकारी संसद को भी नहीं दी जा सकती. जाहिर है, मसले को अब सड़क से स्टूडियो तक आना ही था.
टीवी पर दोबारा और अधिक गुस्से से रक्षा मंत्री ने कहा कि विपक्ष का आरोप कि फ्रांस की दासौं कंपनी द्वारा चयनित एक भारतीय कंपनी के चयन में भारत सरकार का हाथ था, झूठ है. सरकार ने सहजता से पूरा सच सामने रखना किसी हाल में मंजूर नहीं किया और जितना किया, वह अब तक सीधे फ्रांस से आये बयान और खोजी पत्रकारों को दिये वहां के पूर्व राष्ट्रपति तथा दासौं कंपनी के बड़े अधिकारियों के साक्षात्कारों से झूठ साबित हो चुका है.
जब खुद मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली सरकारी लेखा-जोखा निगरानी समिति भी सारे कागजों की मांग कर रही हो, तो विपक्ष द्वारा एक जेपीसी बनाकर मसले को बाकायदा जांच के लिए सुपुर्द करने का सुझाव तो आना ही था.,पर सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि जेपीसी क्यों?
शक्की विपक्ष यह मामला सीधे न्यायिक जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय क्यों नहीं ले जाता? तर्क में भरपूर चतुराई छुपी है. न्यायिक जांच का सीधा मतलब होगा कि जितने समय जांच जारी रहेगी, सरकार अदालती विचारधीनता की ओट लेकर राफेल खरीद मसले पर संसद से सड़क तक कोई बहस नहीं होने देगी.
अगर प्रधानमंत्री मोदी अपनी ‘मन की बात’ में कहीं इतनाभर कह देते कि यह विवाद व्यर्थ है, वे सत्यापित करते हैं कि खरीद नियमानुसार हुई है और जल्द ही फ्रांस की ही तरह भारत सरकार भी खरीद के कुल ब्योरे सार्वजनिक कर देगी, तब यह मामला इतना तूल न पकड़ता.
क्या यह उचित है कि दासौं और एक भारतीय निजी कंपनी की रिश्तेदारी में संविधान के आधारस्तंभ और राष्ट्र के दिग्गज यूं फंसते नजर आएं और खामोशी जारी रहे? अगर भारतीय शिखर नेतृत्व खुद से संबंधित कोई सच्चाई ढांकने का इच्छुक नहीं है, तो इस शक की जड़ को ही खत्म कर दिया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री तथा उनके काबीना मंत्री सर्वोच्च न्यायालय की किसी बेंच की ओट में छिपना चाहते हैं या सांसदों से शोर करवा के अधूरे दस्तावेजों के बूते संसद में बहस को ठप कराना चाहते हैं.
थैलीशाहों से मिलीभगत यानी क्रोनी कैपिटलिज्म को मिटाने का वादा करके सत्ता में आयी सरकार को क्या यह हक है कि अपनी बारी आने पर वह कभी राष्ट्रीय सुरक्षा का नाम ले और कभी नेता विपक्ष को विदूषक और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा बताकर खुद पर लग रहे ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के आरोप रफा-दफा कर अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश करे?
एक लगभग असंभव घटना यह हो सकती है कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दे दें और आम आदमी बनकर 2019 के चुनावों में पुनर्प्रवेश करें. इंदिरा गांधी को इमर्जेंसी के दो साल बाद चौगुनी लोकप्रियता के साथ लौटा लानेवाला देश उनको भी तो उसी तरह वापस ला सकता है, लेकिन हमारे यहां न तो शीर्ष नेता बदलने की परंपरा है, न ही राज-त्याग की. यहां एक बार रणक्षेत्र से राजा का हाथी वापस चला गया, तो सेना भी पीठ दिखाने में विलंब नहीं करती.
जो राजा एक तय अवधि के बीच लड़ाई नहीं जीतता, हिंदुस्तान उसके नंबर काट लेता है. भीष्म से लोहिया तक को देखिए, बेचारे उम्रभर प्रिटेंडर टु द थ्रोन बने रह गये.
दूसरी संभावना अन्य नेता बदलने की हो सकती थी, पर जैसा चौधरी चरणसिंह ने कहा था- बीच लड़ाई में घोड़ा नहीं बदला जाता. नेता के पराजय की कगार तक पहुंच जाने पर भी नहीं. मंत्रिमंडल में इस सरकार ने नवरत्न न खोजे, न उनके दर्शन हुए, संसद में सार्थक बहसें लगभग बंद हैं, राज्यों के अधिकतर क्षत्रप भीतर जितना फूं-फां करें, दिल्ली के शीर्ष नेताओं के राज्य में आने पर जिला तहसीलदारों की तरह चरणसेवक बने दिखते हैं.
इस प्रवृत्ति के लिए भाजपाई और उनके भक्त नेहरू-गांधी परिवार को कोसते हैं, पर वह भारत की एक स्थायी ग्रंथि है. अगर ऐसा न होता, तो क्या हमको कश्मीर में मुफ्ती सुता (या शेख अब्दुल्ला के वारिस), ओडिशा में बीजू तनय, तमिलनाडु में करुणानिधि सुता, आंध्र में रामाराव के दामाद, पंजाब में पटियाला महाराज और राजस्थान में महारानी अपनी छोटी उंगली पर इतने सालों से अपने राजकीय गोवर्धन धरे दिख सकते थे क्या?
विचारधारा, संगठन और कार्यकर्ता अपनी जगह, लेकिन हर महायान को पूरे पांच बरस तक हांकने के लिए भारत की जनता को एक महानायक या महानायक के सारथित्व वाला करिश्माई पार्थ चाहिए.

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