जानलेवा सोशल मीडिया

हमारी जिंदगी में तकनीक की बढ़ती भूमिका में सोशल मीडिया अहम है. यदि सूचनाओं के सकारात्मक प्रवाह और अभिव्यक्तियों की मुखरता के अवसर की स्थिति बनी है, तो झूठी खबरों, अफवाहों और खुद को तबाह करने जैसी मुश्किलें भी बढ़ी हैं. ‘ब्लू व्हेल’ के आत्मघाती डिजिटल खेल के खौफनाक दौर को बीते ज्यादा वक्त नहीं […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 13, 2018 7:21 AM

हमारी जिंदगी में तकनीक की बढ़ती भूमिका में सोशल मीडिया अहम है. यदि सूचनाओं के सकारात्मक प्रवाह और अभिव्यक्तियों की मुखरता के अवसर की स्थिति बनी है, तो झूठी खबरों, अफवाहों और खुद को तबाह करने जैसी मुश्किलें भी बढ़ी हैं. ‘ब्लू व्हेल’ के आत्मघाती डिजिटल खेल के खौफनाक दौर को बीते ज्यादा वक्त नहीं हुआ है कि ‘मोमो’ नामक नया खतरनाक फितूर सोशल मीडिया में वायरस की तरह फैलने लगा है.

हालांकि अभी इसके लैटिन अमेरिका में अधिक प्रचलित होने की खबर है, पर व्हाट्सएप के जरिये खेले जानेवाले इस हिंसक खेल के भारत में भी पनपने में बहुत समय नहीं लगेगा. ‘ब्लू व्हेल’ में भी अनेक किशोर जान गंवा चुके थे और कई बाल-बाल बचे थे. व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि के अलावा इंटरनेट पर अनेक डिजिटल प्लेटफॉर्म हैं, जो भारत में खूब इस्तेमाल होते हैं.

इनके उपभोक्ता ज्यादातर युवा हैं. इनमें किशोरों की भी अच्छी तादाद है. ऐसे खेलों में मनोवैज्ञानिक जाल बिछाकर किशोरों-युवाओं को फांसा जाता है और उन्हें अपने शरीर पर घाव बनाने के लिए कहा जाता है या ऐसी हरकतें करायी जाती हैं, जिनमें जान का खतरा होता है. आधुनिक जीवन-शैली के दबाव में माता-पिता और शिक्षक बच्चों के समूचे व्यक्तित्व पर नजर नहीं रख पाते हैं.

शहरी जीवन में बढ़ता अकेलापन बच्चों और किशोरों को डिजिटल दुनिया में धकेल देता है, जहां उन्हें लगता है कि उनकी एक खास पहचान बन सकती है, जो आम जीवन के सफलता-असफलता के द्वंद्व में कठिन है. इंटरनेट के अनजान आंगन में मौजूद कुंठित और बीमार इन बच्चों को अपना शिकार बनाकर ऐसे खेलों में उलझाते हैं. नवंबर में पकड़े गये ‘ब्लू व्हेल’ के 21 साल के सरगना फिलिप बुदेकिन ने बयान दिया था कि वह अपने शिकार को जैविक कचरा मानता था और उन्हें मरने के लिए उकसाकर वह दुनिया की सफाई कर रहा था.

ऐसी बातें एक रोगी मानसिकता का व्यक्ति ही कर सकता है. भले ही हमारे देश में डिजिटल तकनीक का बेतहाशा प्रसार हो रहा है, पर हमारे पास नियंत्रण और निगरानी के समुचित तंत्र और कानून नहीं हैं. समाज में इंटरनेट की खूबियों और खामियों के बारे में जागरूकता की भी कमी है.

इस स्थिति में बच्चों, किशोरों और युवाओं को खतरों से बचाने की चुनौती बहुत बड़ी है. अभिभावक और शिक्षक अगर थोड़ा सतर्क रहें, तो काफी हद तक बच्चों को बचाया जा सकता है. यदि बच्चे बहुत समय मोबाइल या कंप्यूटर पर देते हैं, तो मां-बाप को इसकी पड़ताल करनी चाहिए कि वे आखिर करते क्या हैं? ऐसे खेलों में लिप्त बच्चों के व्यवहार में बदलाव आने लगता है और वे एकाकी होने लगते हैं.

अवसाद के शुरुआती लक्षणों को पहचानना मुश्किल नहीं है. शिक्षक पढ़ाई में रुचि और ध्यान में कमी को लक्षित कर सकते हैं. सरकारी विभागों के साथ समाज और मीडिया को भी सोशल साइटों के दुरुपयोग को लेकर बेहद गंभीर होने की जरूरत है.

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