जो थी नहीं वह सरकार गयी!

II कुमार प्रशांत II गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com पहले जम्मू-कश्मीर का सरकारी युद्धविराम समाप्त कर दिया गया अौर फिर सरकार ही समाप्त कर दी गयी. लेकिन न युद्धविराम हुअा, न सरकार गयी. अब वहां सरकार भाजपा की है, जो सीधे दिल्ली के निर्देश पर चल रही है: अौर अब वहां युद्ध छिड़ा है- भाजपा बनाम महबूबा! […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 27, 2018 8:01 AM
II कुमार प्रशांत II
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
पहले जम्मू-कश्मीर का सरकारी युद्धविराम समाप्त कर दिया गया अौर फिर सरकार ही समाप्त कर दी गयी. लेकिन न युद्धविराम हुअा, न सरकार गयी. अब वहां सरकार भाजपा की है, जो सीधे दिल्ली के निर्देश पर चल रही है:
अौर अब वहां युद्ध छिड़ा है- भाजपा बनाम महबूबा! युद्ध की घोषणा अारएसएस के राम माधव ने दिल्ली में, और उस पर मुहर भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कश्मीर जाकर लगायी. रणनीति साफ थी- माधव राजनीति संभालें, शाह उस राजनीति की जगह फैलायें. उन्हें लगता है कि इसी छद्म से हिंदुत्व के अागे की राह बनती है. अब देखना है कि तीसरा मुख क्या कहता है. कांग्रेस अौर नेशनल कांफ्रेंस ने भी कश्मीर से पल्ला झाड़ लिया. अब कश्मीर में एक होगा, जो खुद को अधिकाधिक हिंदुत्ववादी दिखायेगा; दूसरा चाहे, न चाहे, अधिकाधिक कट्टरपंथियों के पास या साथ जायेगा.
कश्मीर के बारे में हमारे पास कोई दूरगामी नीति नहीं है- कश्मीर की त्रासदी से जूझते हुए अौर कांग्रेस व जनसंघ की शुतुरमुर्गी चालबाजियों के वार झेल-झेलकर घायल हुए जयप्रकाश नारायण ने सालों पहले यह बात कही थी.
19 जून, 2018 को महबूबा की सरकार को गिराकर यही इबारत फिर से लिखी गयी अौर भारत के प्रधानमंत्री अौर कश्मीर की मुख्यमंत्री जोकरों की तरह दिखायी दिये. कभी दोनों का दावा था कि कश्मीर के ताले की चाबी हमारे पास है. अाज हम देख रहे हैं कि चाबी भी किसी दूसरे के पास है अौर ताला भी किसी दूसरे का लगा है.
जैसे बंदर के हाथ में मोतियों की माला, वैसे ही हमारे हाथ में कश्मीर! शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा अब्दुल्ला-खानदान के दूसरे चिरागों ने, मुफ्ती परिवार ने, दिल्ली में बनी हर सरकार ने अौर शयामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेंद्र मोदी तक ने कितना कश्मीर को संभालने का काम किया अौर कितना अपना सिक्का जमाने का, अाज का कश्मीर इसका ही जवाब बनकर खड़ा है.अाज का कश्मीर हमारी राजनीतिक ईमानदारी अौर प्रशासकीय कुशलता तथा सामाजिक नेतृत्व के दिवालियेपन का दस्तावेज है.अब मोदी सरकार ने कह दिया है िक उसे कश्मीर से फौजी जबान में बात करनी है. लाल किले से गाली-गोली नहीं गले लगानेवाली प्रधानमंत्री की जुमलेबाजी कितनी नकली थी, उनकी ही सरकार इसे प्रमाणित कर रही है.
साथ ही यह भी तो प्रमाणित हो रहा है कि गलेबाजी अौर जुमलेबाजी से अाप सरकार बना सकते हैं, देश चला नहीं सकते. इन चार सालों में दूसरा कुछ हुअा हो कि न हुअा हो, यह तो साबित हो ही गया है कि यह सरकार देश चलाना नहीं जानती है. प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता अौर सरकार का इकबाल अाज निम्नतम स्तर पर है.
महबूबा-मोदी के तीन साल से ज्यादा चले गठबंधन में वे एक-दूसरे से शह अौर मात का खेल खेलने में लगे रहे अौर एक-दूसरे को इस्तेमाल करते रहे. प्रधानमंत्री जब भी कश्मीर गये, महबूबा के हुजूर में कसीदे पढ़ के अाये. महबूबा ने तो कह दिया कि मोदीजी ही कश्मीर की समस्या हल कर सकते हैं.
न कभी राम माधव ने कहा अौर न कभी अमित शाह ने कहा कि महबूबा-सरकार मुस्लिम अाबादी का पोषण कर रही है अौर गैर-मुस्लिम अाबादी की उपेक्षा! महबूबा ने भी कभी नहीं बताया कि गठबंधन में उन पर जोर डाला जा रहा है कि वे दमन की कार्रवाई तेज करें अौर न यही कि भाजपा गठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रही है.
फिर रातोंरात सारा कुछ बदल कैसे गया? शायद इसलिए कि दोनों ने समझ लिया कि अब इस रिश्ते को निचोड़कर भी कुछ पाया नहीं जा सकता है.
छोटी राजनीति से ऊपर उठकर राहुल गांधी-उमर अब्दुल्ला इस वक्त कश्मीर को सहारा दे सकते थे.कश्मीरी मतदाता के फैसले को भाजपा ने धता बता दी. यही तो कश्मीरियों की सबसे बड़ी शिकायत है कि जब भी हम अपनी पसंद की सरकार बनाते हैं, दिल्ली किसी-न-किसी बहाने उसे तोड़ देती है. मतदाता ने न कांग्रेस को अौर न नेशनल कांफ्रेंस को सरकार बनाने का अाधार दिया था. लेकिन पीडीपी की सरकार बने, यह फैसला तो मतदाता ने किया ही था.
अत: राहुल-उमर यह तो कह ही सकते थे कि हम सरकार में नहीं जायेंगे, महबूबा अपनी सरकार का पुनर्गठन करें अौर हम उसे बाहर से बेशर्त समर्थन देंगे. महबूबा इसे कबूल करतीं तो उनकी जिम्मेदारी बनती कि वे इस समर्थन को जारी रखने की व्यवस्था बनातीं.
यदि इनकार भी करतीं, तो भी यह प्रस्ताव कश्मीरी मतदाता के लिए मरहम का काम करता. लेकिन हमारी राजनीति सत्ता पर संकट तो थोड़ा-बहुत समझती भी है, राष्ट्र पर संकट नहीं समझती है. इसलिए यह मौका गंवा दिया गया.
अब कश्मीर को दोनों तरफ के वार झेलने हैं अौर रक्त राष्ट्र का बहना है. अागे खेल क्या होगा, यह हमें बता दिया गया है. यह वही खेल है, जो सालों से हिंदुत्व वालों की लालसा रही है. अौर हमारा जवाब भी वही है, जो सालों पहले इसी दिल्ली में, सांप्रदायिकता के जहर की काट खोजते हुए महात्मा गांधी ने दिया था: ‘यह कानाफूसी सुनी है कि कश्मीर को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है.
इनमें से जम्मू हिंदुअों के हिस्से अायेगा अौर कश्मीर मुसलमानों के हिस्से. मैं ऐसी बंटी हुई वफादारी की अौर हिंदुस्तान की रियासतों के कई हिस्सों में बंटने की कल्पना भी नहीं कर सकता. मुझे उम्मीद है कि सारा हिंदुस्तान समझदारी से काम लेगा अौर कम-से-कम उन लाखों हिंदुस्तानियों के लिए, जो लाचार शरणार्थी बनने के लिए बाध्य हुए हैं, तुरंत ही इस गंदी हालत को टाला जायेगा.’

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