मानसून में कॉफी

अरविंद दास़, पत्रकार arvindkdas@gmail.com पिछले दिनों मैं इतिहासकार प्रोफेसर एआर वेंकटचलापति की रोचक किताब ‘इन दोज डेज देयर वाज नो कॉफी’ पढ़ रहा था. इस नाम से ही लिखे चैप्टर में लेखक ने तमिल के चर्चित लेखक-फिल्मकार एके चेट्टियार को उद्धृत किया है- ‘कॉफी पे तो कोई पुराण लिख सकता है.’ दक्षिण में जैसा कॉफी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 19, 2018 12:38 AM

अरविंद दास़, पत्रकार

arvindkdas@gmail.com

पिछले दिनों मैं इतिहासकार प्रोफेसर एआर वेंकटचलापति की रोचक किताब ‘इन दोज डेज देयर वाज नो कॉफी’ पढ़ रहा था. इस नाम से ही लिखे चैप्टर में लेखक ने तमिल के चर्चित लेखक-फिल्मकार एके चेट्टियार को उद्धृत किया है- ‘कॉफी पे तो कोई पुराण लिख सकता है.’

दक्षिण में जैसा कॉफी पीने का रिवाज रहा है, वैसा उत्तर भारत में नहीं. वैसे तो 17वीं सदी में ही कॉफी अपने हमसफर चाय के साथ भारत में दस्तक दे चुका था, 19वीं सदी के आखिर में दक्षिण भारत में इसकी खपत बढ़नी शुरू हुई. इससे पहले यह यूरोपीय लोगों का ही पेय था. और 20वीं सदी के आते- आते यह दक्षिण भारतीय मध्यवर्ग का पसंदीदा पेय बन गया.

हालांकि, उदारीकरण के बाद उत्तर भारत में भी कॉफी की खपत ने जोर पकड़ा है. खासकर महानगरों के युवाओं, कामकाजी लोगों में कॉफी पीना सांस्कृतिक दस्तूर में शामिल हो गया है. नब्बे के दशक में जब मैं दिल्ली आया, तो मेरे जैसे गंवई पृष्ठभूमि वालों को कॉफी पीना आधुनिक होने का भान देता रहा. मेरी समझ में यह भान शराब पीने में नहीं है.

कॉलेज के दिनों में मेरे एक मित्र शराब की बोतल, बड़े भाई के लिहाज या डर से, मेरे कमरे में छिपाते फिरते थे. कॉफी के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है. पश्चिमी देशों में कॉफी पीने की संस्कृति आज भी कायम है और इसके ऐतिहासिक कारण है. अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं की तरह ही सार्वजनिक जीवन (पब्लिक स्फीयर) में इन कॉफी हाउस की महत्वपूर्ण भूमिका है. लोकतंत्र में ये राज्य और नागरिक समाज के बीच एक पुल की भूमिका निभाते रहे हैं.

मुझे याद है कि कुछ वर्ष पहले अपनी वियना यात्रा के दौरान एक कॉफी हाउस में मैंने निर्मल वर्मा की याद में बीयर का एक छोटा मग लिया, पर मेरे दोस्तों ने कॉफी पी थी. उन्होंने कहा था- ‘कॉफी के प्यालों के साथ चीयर्स कहना अच्छा शगुन नहीं होता.’ उसी यात्रा में ऑस्ट्रिया के एक शहर लिंज में राह चलते एक युवा महिला को मैंने कॉफी पीने का न्यौता दिया और वह खुशी-खुशी साथ हो ली थी. सत्तर और अस्सी के दशक में पटना, इलाहाबाद, शिमला जैसे शहरों में स्थित टी-कॉफी हाउस साहित्यकारों, कलाकारों के बहस-मुबाहिसा का केंद्र थे. पर अब इनकी स्थिति बदहाल है.

कॉलेज के ही दिनों में एक बार हम कुछ दोस्तों के साथ सिनेमा देखने गये. कॉफी का बिल मेरे एक दोस्त ने ही भरा था. उन दिनों को याद करता हुआ वह बिल का तगादा करता रहता है और मैं उसको कर्ज अदा करने के बदले साहिर लुधियानवी और जावेद अख्तर का किस्सा सुना देता हूं कि कैसे मरने के बाद भी लुधियानवी ने कर्ज वसूल लिया था. यदि आप थोड़े से भी रोमांटिक हैं, तो इस बात से शायद ही इनकार करें कि बारिश में किसी कैफे में बैठ कर कॉफी पीने का अपना सुख है, जो चाय में नहीं. यदि कोई साथी साथ हो तो फिर क्या कहने!

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