कम हों तेल की कीमतें

II अभिजीत मुखोपाध्याय II अर्थशास्त्री abhijitmukhopadhyay@gmail.com नवंबर 2014 के बाद पहली बार गत गुरुवार को ब्रेंट कच्चे तेल की कीमत आपूर्ति में कमी की आशंकाओं के तले 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गयी. दरअसल, अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय क्षेत्र सहित वैश्विक अर्थव्यवस्था द्वारा उम्मीद से बेहतर परिणाम देने की वजह से पूरे विश्व में […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 29, 2018 7:41 AM
II अभिजीत मुखोपाध्याय II
अर्थशास्त्री
abhijitmukhopadhyay@gmail.com
नवंबर 2014 के बाद पहली बार गत गुरुवार को ब्रेंट कच्चे तेल की कीमत आपूर्ति में कमी की आशंकाओं के तले 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गयी. दरअसल, अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय क्षेत्र सहित वैश्विक अर्थव्यवस्था द्वारा उम्मीद से बेहतर परिणाम देने की वजह से पूरे विश्व में तेल की मांग चढ़ चुकी है.
दूसरी ओर, उसकी आपूर्ति में कमी हुई है, जो अंशतः तो तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक-ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज) की योजनानुसार ही है. यहां तक कि अमेरिकी तेल उत्पादक कंपनियों ने भी निकट भविष्य में ही मूल्यवृद्धि की आशा में अपनी आपूर्ति रोक रखी है. अमेरिका एवं चीन के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश है और यह अपनी तेल आवश्यकताओं के 80 प्रतिशत की पूर्ति आयात से ही करता है. हालिया अनुमानों के मुताबिक, तेल की कीमत में एक डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी भी हमारे तेल आयात बिल में प्रतिवर्ष लगभग 1.6 अरब डॉलर यानी 10 हजार करोड़ रुपये का इजाफा कर देती है.
जब मुद्रा विनिमय की दरों में परिवर्तन होता है, तब भी उसके ऐसे ही असर देखने को मिलते हैं. हाल में, डॉलर के मुकाबले रुपये में कमजोरी आयी है
देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने अभी हाल ही यह कहा कि तेल की कीमत में प्रति बैरल 10 डॉलर की वृद्धि हमारे जीडीपी को लगभग 0.2 से 0.3 प्रतिशत बिंदु नीचे ले आती है, जबकि वह हमारे चालू खाते के घाटे को तकरीबन 9 अरब डॉलर से लेकर 10 अरब डॉलर तक बदतर कर देती है. इन वजहों से तेल की कीमतों में आग लगने की आंच हम पर अत्यधिक असर डालती है.
परंतु परिस्थितियों को जिसने और भी जटिल कर रखा है, वह तेल की कीमत निर्धारित करने के मामले में केंद्रीय सरकार की कुछ विचित्र-सी नीति है.
पिछले वर्ष मई महीने से ही केंद्रीय सरकार ने देश में तेल की कीमतें विनियंत्रित कर रखी हैं, जिसके बाद तेल विक्रेता कंपनियों ने इन कीमतों में रोजाना आधार पर इजाफा करना शुरू किया. कीमतों के विश्लेषण से पता चलता है कि 22 मार्च 2018 से 24 अप्रैल 2018 तक कंपनियों ने इन कीमतों में औसतन 7 पैसे प्रतिदिन की वृद्धि की.
25 अप्रैल से लेकर 13 मई 2018 तक की अवधि में कर्नाटक चुनावों के वक्त यह वृद्धि रुकी रही. मगर 14 मई से 25 पैसे प्रतिदिन की दर से इसे फिर बहाल कर दिया गया. यह कोई कीमत विनियंत्रण का नतीजा नहीं, बल्कि कीमतें तय करने की प्रशासनिक प्रणाली है, जिसके द्वारा तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों में वृद्धि के बावजूद तेल कंपनियों के मुनाफा स्तर के साथ ही केंद्रीय सरकार की राजस्व आमद भी बरकरार रखी गयी.
वर्तमान में प्रसंस्कृत पेट्रोल की कीमत लगभग 37 रुपये प्रति लीटर ही पड़ती है, पर बाजार में उसकी इतनी ऊंची कीमत की वजह उस पर 19 रुपये प्रति लीटर का केंद्रीय उत्पाद तथा राज्य सरकारों द्वारा लगाये जानेवाले वैट के अलावा उपकर एवं अधिभार हैं. इस तरह, तेल की कीमतों पर 50 प्रतिशत से भी अधिक उत्पाद वसूला जा रहा है.
तेल की कीमतों में इजाफा तो उसके अंतरराष्ट्रीय मूल्यों में वृद्धि का हवाला देकर किया जाता है, पर यहां ध्यान देने की बात यह है कि वर्ष 2011 से लेकर 2014 तक तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत 100 डॉलर से खासी ऊपर घूम रही थी, पर उसकी घरेलू कीमतें वर्तमान कीमतों के आसपास ही स्थित थीं.
तेल को जीएसटी के अंतर्गत नहीं रखा गया है और इस पर राज्य सरकारें अपने कर स्वयं ही तय कर सकती हैं. नतीजा यह है कि तेल पर विभिन्न राज्यों के कर की रकम में भारी विविधता है. चूंकि वैट एवं जीएसटी जैसी नयी कर प्रणालियों के अंतर्गत पिछले कई वर्षों के दौरान कर संग्रहण ज्यादा से ज्यादा केंद्रीकृत होता गया है, राज्यों के लिए अपने कर राजस्व में ज्यादा कुछ ऊंच-नीच करने का दायरा अब नहीं रहा.
भारतीय अर्थव्यवस्था में पर्याप्त जॉब सृजित करने और अपने नागरिकों के हाथों पर्याप्त क्रयशक्ति सौंपने की योग्यता नहीं है, इसलिए देश की कारोबारी गतिविधियां एक सुस्त दौर से गुजर रही हैं.
हालांकि, जीडीपी आंकड़ों में थोड़ी वृद्धि का रुख दिखता है, पर कई विशेषज्ञ उस पर भी शंकाएं प्रकट करते हैं. अधिक से अधिक हम यही कह सकते हैं कि हमारे सामने एक मामूली-सी धीमी वृद्धि का दौर गुजर रहा है, जिसमें पर्याप्त जॉब तो सृजित नहीं ही हो सके, उल्टे जिसमें जॉब की कुछ हानि ही संभावित है. चूंकि पूरे विश्व में और खासकर अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने की संभावनाएं हैं, भारत में भी उसकी प्रारंभिक प्रवृत्ति प्रदर्शित हो रही है.
इसके साथ ही निकट भविष्य में ही यहां मुद्रास्फीति में भी इजाफे की उम्मीदें हैं. तेल की बढ़ती कीमतें मुद्रास्फीति की रफ्तार में तेजी ही लायेंगी.
ऐसी स्थिति में यदि मूल्यवृद्धि की इस प्रवृत्ति को प्रारंभ में ही नहीं थाम लिया गया, तो अर्थव्यवस्था की चाल के दिग्भ्रमित हो अनियंत्रित हो जाने की संभावनाएं बराबर बरकरार रहेंगी. खतरा यह है कि ऐसे में अर्थव्यवस्था की वृद्धि सुस्त तथा मुद्रास्फीति तेज हो जा सकती है. तेल पर केंद्रीय तथा राज्य करों में फौरी कमी ही इस रोग का एकमात्र उपचार है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

Next Article

Exit mobile version