कला के जरिये प्रतिरोध

राकेश श्रीमाल टिप्पणीकार इन दिनों प्रतिरोध की संस्कृति का कला में बोलबाला बढ़ गया है. आखिर ऐसा क्यों न हो? कलाकार, लेखक या रंगकर्मियों की एकरसता भी तो इससे टूटती है. बहुत हो गया चुपचाप रचनाकर्म करते रहना. अब थोड़ा उजागर ढंग से प्रतिरोध की धारा में बह लिया जाये. हालांकि, प्रतिरोध का हमारी कला-संस्कृति […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 6, 2017 7:22 AM

राकेश श्रीमाल

टिप्पणीकार

इन दिनों प्रतिरोध की संस्कृति का कला में बोलबाला बढ़ गया है. आखिर ऐसा क्यों न हो? कलाकार, लेखक या रंगकर्मियों की एकरसता भी तो इससे टूटती है. बहुत हो गया चुपचाप रचनाकर्म करते रहना. अब थोड़ा उजागर ढंग से प्रतिरोध की धारा में बह लिया जाये. हालांकि, प्रतिरोध का हमारी कला-संस्कृति में पुरातन महत्व है. कबीर क्या प्रतिरोध के बड़े प्रतिनिधि नहीं रहे हैं?

इन दिनों चूंकि, सबको बाजार चाहिए, सबको अपना रचा-बसा दिखाना-बेचना है और इसी बहाने खुद को साबित कर स्थापित होना है. प्रतिरोध से बेहतर, सर्वसुलभ और आसान तरीका भला और क्या हो सकता है. स्थिति यह है कि प्रेम कविता लिखकर भी प्रतिरोध किया जा सकता है.

चलिए, एक विषय ले लेते हैं- ‘प्रदर्शन हेतु प्रतिरोध या प्रतिरोध का प्रदर्शन’. यह कोई गली-मोहल्ले में होनेवाली निबंध या भाषण प्रतियोगिता का विषय नहीं है. यह संस्कृति से बढ़कर या उससे बाहर शुद्ध अकादमिक विषय है. वह संस्कृति ही क्या, जो अकादमिक जगत में जगह नहीं बना पाये. इस विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी भी हो सकती है और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार भी. मूल में प्रतिरोध है. भले ही वह प्रदर्शन हेतु प्रतिरोध हो या प्रतिरोध का प्रदर्शन हो.

मामला यहीं तक नहीं है. इस डिजिटल समय में वर्चुअल प्रतिरोध की भी अनंत संभावनाएं हैं और इस प्रतिरोध को आप आधुनिक कला माध्यमों या देशज अथवा लोक कलाओं की परंपराओं से भी जोड़ सकते हैं.

बस, कुल जमा हासिल प्रतिरोध उभरकर आना चाहिए. भले ही वह किसी धन्ना सेठ के ऑडिटोरियम में हो, रवींद्र नाट्य मंदिर में हो, अकादमियों या विश्वविद्यालय के सभागार में हो या मंडी हाउस के इर्द-गिर्द. दरअसल, प्रतिरोध कला का एक ऐसा ब्रांड या टैग बन गया है, जिसकी खपत इन दिनों बढ़ गयी है. कोई आश्चर्य नहीं कि ‘प्रतिरोध के लिए सीमित होते स्पेस’ पर भी गहन चिंतन-मनन कई महान विचारकों के लिए इन दिनों स्टडी रूम का शगल हो गया हो. प्रतिरोध में हिंसा और अहिंसा को भी वैचारिक धरातल तो मिल ही गया है.

कला में उग्र और अतिवादी प्रतिरोध की महज शाब्दिक सुगबुगाहट भी जारी है. प्रतिरोध के औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक प्रतिमान भी गढ़े जा रहे हैं. वे लोग कोई और हैं या थे, जिनके रचनात्मक प्रतिरोध से सत्ता भी डरती रही है और अपने अघोषित तंत्र से उन्हें जीवन से ही उखाड़ फेंकती रही है.

लेकिन जो प्रतिरोध का झंडा-बैनर लिये यह खोजते रहते हैं कि कला-संस्कृति के शॉपिंग मॉल में किस तरह से अपने माल को सजा पाएं, उनके लिए प्रतिरोध किसी पेटेंट या आइएसआइ मार्के के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. सबसे मजे की बात तो यह है कि इस तरह के (मात्र) प्रदर्शनकारी प्रतिरोध में, जिनका प्रतिरोध किया जा रहा है, वे ही परोक्ष-अपरोक्ष रूप में इसके प्रायोजक होते हैं.

Next Article

Exit mobile version