विशेषज्ञ डॉक्टरों का आतंक!

बचपन में डाॅ दीक्षित के पास हर तकलीफ के लिए दौड़े जाते थे. बुखार हो, सिर दर्द हो, खांसी-जुकाम, टाइफायड, मलेरिया, कुछ भी हो, उनकी दवाओं से हम ठीक हो जाते थे. तब आजकल की तरह नहीं था कि आपके शरीर के जितने भी अंग हैं, उन सबके विशेषज्ञ डाॅक्टर मौजूद हैं और हर बीमारी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 29, 2017 8:44 AM

बचपन में डाॅ दीक्षित के पास हर तकलीफ के लिए दौड़े जाते थे. बुखार हो, सिर दर्द हो, खांसी-जुकाम, टाइफायड, मलेरिया, कुछ भी हो, उनकी दवाओं से हम ठीक हो जाते थे. तब आजकल की तरह नहीं था कि आपके शरीर के जितने भी अंग हैं, उन सबके विशेषज्ञ डाॅक्टर मौजूद हैं और हर बीमारी के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ के पास जाना पड़ता है, और अक्सर ही एक की राय दूसरे से नहीं मिलती. इसके अलावा विशेषज्ञ डाॅक्टर जिस बीमारी का इलाज कर रहा है, उसके अलावा शरीर में और क्या हो रहा है, इसकी चिंता वह नहीं करता.

दो साल पहले एक मित्र की कलाई में बेहद दर्द हुआ. विशेषज्ञ ने कहा कि कलाई का ऑपरेशन करना पड़ेगा. मित्र ने आॅपरेशन करा लिया, लेकिन दर्द से राहत नहीं मिली, बल्कि शरीर के हर जोड़ में दर्द रहने लगा. कुछ दिनों बाद उसकी उंगलियां टेढ़ी होने लगीं. इस परेशानी को लेकर वह डाॅक्टर से मिली. मित्र की बात सुनकर डाॅक्टर ने टका सा जवाब दिया- मैंने आपकी कलाई का इलाज किया था, उंगलियों का नहीं. अनेक अस्पतालों के चक्कर लगाने के बाद पता चला कि उन्हें रुमोटाइड आर्थराइटिस थी. उसी के कारण कलाइयों और जोड़ों में दर्द था और उसी के कारण उंगलियां टेढ़ी हो गयी थीं.

एक निकट के परिजन के घुटनों को बदलवाया गया था. अस्पताल से छुट्टी के वक्त इलाज कर रहे डाॅक्टरों से बार-बार पूछा गया कि आपने सारी दवाएं बंद कर दी हैं, इससे कोई दिक्कत तो नहीं होगी. डाॅक्टरों ने कहा- नहीं. लेकिन, घर आने के कुछ दिन बाद ही तबियत खराब होने लगी. परेशान होकर पुराने डाॅक्टर साहब के पास पहुंचे. उन्होंने कहा कि दवाएं किसी सूरत में बंद नहीं की जानी चाहिए थीं. जान भी जा सकती थी.

हम जैसे साधारण लोग, जो डाॅक्टरों को भगवान मानते हैं, और उनके कहे पर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं, वे क्या करें, कहां जाएं? किसकी बात पर यकीन करें? और यह हाल जब महानगर में रहनेवाले हम जैसे पढ़े-लिखे लोगों का है, तो दूर-दराज के इलाकों में रहनेवाले लोगों का क्या होता होगा. वे तो एक डाॅक्टर से दूसरे डाॅक्टर और एक पैथ लैब से दूसरी पैथ लैब का चक्कर लगाते ही परेशान हो जाते होंगे.

विशेषज्ञों से राहत की उम्मीद की जाती है, लेकिन एक परेशान मरीज के जीवन में विशेषज्ञ डाॅक्टरों का कितना आतंक होता है, इसे वही समझ सकता है, जो इलाज के लिए रात-दिन दौड़ता है, कर्ज लेता है, पैसे खर्च करता है, लेकिन फिर भी राहत नहीं मिलती. इसके अलावा विशेषज्ञों की फीस इतनी भारी-भरकम होती है कि अच्छी-खासी आय वाले भी उसे चुकाने में परेशानी महसूस करते हैं. ऐसे में गरीब के इलाज की कौन कहे. गरीब के पास तो आज की महंगाई में दो जून की रोटी के पैसे ही मुश्किल से जुटते हैं, वह तो जैसे एक बीमारी में ही निबट लेता है. आश्चर्य यह है कि स्वास्थ्य सेवाएं हमारी सरकारों की दैनंदिन चिंताओं से अक्सर बाहर होती हैं.

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