आज जो सुनना जरूरी है

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार आज का भारतीय मध्यवर्ग आत्मलीन, जनविमुख, संकीर्ण हृदय, अमेरिकोन्मुख, अर्थलोभी, अनुदार, सीमित-संकुचित, लगभग समाज निरपेक्ष होकर अपनी ऐतिहासिक भूमिका भूलता जा रहा है. आर्थिक उदारीकरण से लाभान्वित यह वर्ग देश और समाज से कटता जा रहा है. इस वर्ग की पहचान आजादी के तुरंत बाद जिन कुछ हिंदी कवियों-लेखकों ने सही ढंग […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 6, 2017 5:56 AM

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

आज का भारतीय मध्यवर्ग आत्मलीन, जनविमुख, संकीर्ण हृदय, अमेरिकोन्मुख, अर्थलोभी, अनुदार, सीमित-संकुचित, लगभग समाज निरपेक्ष होकर अपनी ऐतिहासिक भूमिका भूलता जा रहा है. आर्थिक उदारीकरण से लाभान्वित यह वर्ग देश और समाज से कटता जा रहा है. इस वर्ग की पहचान आजादी के तुरंत बाद जिन कुछ हिंदी कवियों-लेखकों ने सही ढंग से की, उनमें मुक्तिबोध अन्यतम हैं.

मुक्तिबोध के जन्मशती वर्ष में देश के अनेक हिस्सों में उन पर कई कार्यक्रम हुए हैं, उनका पुन: पाठ किया गया है, कई पत्रिकाओं ने अपने अंक उन पर केंद्रित किये हैं और यह लगभग स्वीकारा गया कि वे अपने समय से कहीं अधिक हमारे समय में प्रासंगिक और मूल्यवान हैं.

आज का भारत कल का भारत नहीं है. जिस ‘न्यू इंडिया’ की बात की जा रही है, वह नया भारत गांधी, नेहरू के सपनाें से भिन्न होगा. आज के भारत का हमारे पास कोई नक्शा (भौगोलिक नहीं) नहीं है. देश के निर्माण और विकास में जिस मध्यवर्ग की विशेष भूमिका होती है, वह मध्यवर्ग आज चिंतारहित, चिंताविमुख और निष्क्रिय है. सामाजिक निष्क्रियता के कारण ही आततायी शक्तियां सामाजिक हैसियत पाकर समाज को अपनी मनोनुकूल दिशा में ले जाने में कहीं अधिक सक्रिय होती हैं.

आठ खंडों में विभाजित 1207 पंक्तियों की कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध ने जिस ‘सिरफिरे पागल’ का ‘आत्मोदबोधमय’ गीत हमें सुनाया है, क्या हम सचमुच उसे सुन पा रहे हैं, गुन पा रहे हैं?

हमारे सारे ‘आदर्श’ और ‘सिद्धांत’ कहां-कैसे बिला गये? कर्ममय जगत में आदर्श और सिद्धांत कर्म में उतरकर ही सार्थक बनते हैं. कवियों की संख्या आज कम नहीं है, पर मुक्तिबोध ने जिसे ‘कार्यकवि’ (‘सौंदर्य उपासक’ कहानी में, जनवरी 1935) कहा है, वे ‘कार्यकवि’ आज कहां हैं? कौन हैं? स्वतंत्र भारत में कथनी-करनी में दूरी या हरिशंकर परसाई के शब्दों में कहें तो, ‘विपरीतता’ बढ़ती गयी है. शिक्षित-बौद्धिक व्यक्ति के लेखन, भाषण-वक्तव्य और आचरण में प्रकट असमानता और विरोध केवल उसके लिए ही नहीं, समाज के लिए भी कहीं अधिक अहितकर और घातक है.

‘अंधेरे में’ कविता का ‘सिरफिरा पागल’ प्रश्न करता है – ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन’/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/अब तक क्या किया?/जीवन क्या जिया?’ यह प्रश्न केवल अपने से नहीं है, सबसे है- विशेषत: मध्यवर्गीय लोगों से. आदर्श और सिद्धांत के अनुसार जिया गया जीवन ही सार्थक और कल्याणकारी है. सार्थक जीवन सब नहीं जीते. आदर्श अौर सिद्धांत आचरण में ही, कर्म में ही ढलकर सार्थक होते हैं. नेहरू के समय में भारतीय मध्यवर्ग आज की तरह क्षुद्र और संकीर्ण नहीं था. अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को वह समझता था और उसमें सामाजिक सक्रियता भी थी. उसी समय पचास के दशक में मुक्तिबोध ने उसकी पहचान कर ली थी.

‘अंधेरे में’ कविता में ‘अब तक क्या किया/ जीवन क्या जिया’ की तीन बार आवृत्ति हुई है, जो हथौड़े की तरह हम पर प्रहार करती है. क्या हम सब सचमुच अपने से यह प्रश्न करते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं? जीवन जीने का अर्थ और प्रयोजन क्या है? हमारे जीवन-मूल्य क्या हैं? जीवन जीने का उद्देश्य क्या है? हम निरर्थक जीवन जी रहे हैं या सार्थक जीवन?

कविता में सिरफिरे पागल का धिक्कार हमारा अपना धिक्कार नहीं बनता. जाग्रत, व्याकुल, चिंतित व्यक्ति ही ऐसा प्रश्न करता है, जो सिरफिरे पागल ने किया. भूतों की शादी में ‘कनात’ की तरह तनकर, ‘उदरभरि बन अनात्म’ बनकर, ‘व्यभिचारी का बिस्तर’ बनकर, अपनी ही चिंता में दिन-रात पड़े रहकर ‘निष्क्रीय जिंदगी’ जीकर आखिर हमने क्या पाया? हमने ऐसा स्वबद्ध, स्वहित में जीवन क्यों जिया? ऐसा जीवन जीने के कारण ही हम पत्थर बन गये. हमने ‘लोकहित, जनहित’ की चिंता नहीं की. हम जीवित रहे और ‘देश’ मर गया. ‘मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम.’

देश जिन किसानों, श्रमिकों, सामान्यजनों और मेहनतकशों से बनता है, वे आज किस स्थिति में हैं? इस ‘तुम’ में हम सब- शिक्षित, भद्र, विशिष्ट, मध्यवर्गीय व्यक्ति, शामिल हैं. सामाजिक विकास में, आंदोलन और संघर्ष में इस वर्ग की आज कोई भूमिका नहीं है. इस वर्ग ने विवेक-बुद्धि और तर्क से, ‘भावना के कर्तव्य’ और ‘हृदय के मंतव्य’ से अपने को दूर कर लिया है. इसे ‘लोक’ और ‘जन’ की चिंता नहीं है. इसने स्वयं अपने आदर्शों का भक्षण किया है, ‘स्वार्थों के तेल में’ ‘विवेक बंधार डाला’ है.

मुक्तिबोध की जन्मशती बीत रही है. कविता के पाठक को ही नहीं, प्रत्येक ‘शिक्षित’ भारतीय नागरिक को आज अपने से यह प्रश्न पूछना होगा कि उसने अब तक का जीवन किस मकसद से जीया है? उसे इस प्रश्न से जूझना होगा कि ‘अब तक क्या किया?/ जीवन क्या जिया’ और यह भी कि जब देश मर रहा है, वह कैसे जीवित है? ‘देश’ से हमारा संबंध है या नहीं?

या हम अपना एक अलग ‘देश’ ही बना रहे हैं. ‘सिरफिरा पागल’ पागल नहीं है, वह ‘जागृत बुद्धि’ है, ‘प्रज्ज्वलित घी’ है. हमारी निष्क्रियता से ‘मार्शल लॉ’ लग सकता है, तानाशाह जन्म ले सकता है और ‘देश’ आततायियों के कब्जे में हो सकता है. इसलिए मुक्तिबोध को आज समझने की अधिक जरूरत है. जरूरी है आज ‘सिरफिरे पागल’ को सुनना.

Next Article

Exit mobile version