ग्राम सभा की बात

साल 2013 में ओडिशा के नियमगिरि में वेदांता के बॉक्साइट खनन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ओर से कोई फैसला न सुनाते हुए वहां की ग्राम सभाओं को निर्णय देने का अधिकार दिया था. यह संभवत: स्वतंत्र भारत का ऐसा ऐतिहासिक फैसला था, जिसमें आदिवासियों ने अपने निर्णय से दुनिया की एक बड़ी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 6, 2017 8:40 AM
साल 2013 में ओडिशा के नियमगिरि में वेदांता के बॉक्साइट खनन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ओर से कोई फैसला न सुनाते हुए वहां की ग्राम सभाओं को निर्णय देने का अधिकार दिया था. यह संभवत: स्वतंत्र भारत का ऐसा ऐतिहासिक फैसला था, जिसमें आदिवासियों ने अपने निर्णय से दुनिया की एक बड़ी कंपनी को मात दिया था. यह ग्राम सभा के द्वारा संभव हुआ था.
ग्राम सभा की बात संवैधानिक रूप से पेसा अधिनियम-1996 में कही गयी है. खासतौर पर पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों (आदिवासी क्षेत्र) में ग्राम सभा को विशेष अधिकार दिये गये हैं. इसमें परंपरा का निर्वहन, गरीबी उन्मूलन, बाजार का प्रबंधन, विकास परियोजनाओं, भू-अर्जन एवं खनन पट्टा के लिए अनुमोदन से संबंधित शक्तियों के प्रावधान के जरिये ग्राम सभा की स्वायत्तता को विस्तार देने की कोशिश की गयी है. ‘भारत जन आंदोलन’ ने इसके लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन किया था. ‘हमारे गांव में हमारा राज’ की संकल्पना ने अनुसूचित क्षेत्रों में वास्तविक आजादी की लहर को पैदा किया था. लेकिन, बहुत जल्दी ग्राम सभा के अधिकारों से बहुराष्ट्रीय पूंजी के हितों का टकराव शुरू हो गया और पेसा अधिनियम आंशिक रूप से भी लागू नहीं हो सका. आज पेसा अधिनियम के होते हुए भी बहुत बड़े पैमाने पर आदिवासी क्षेत्रों में जमीन की लूट जारी है.
ग्राम सभाओं द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में उनके आत्मनिर्णय के अधिकार को सुनिश्चित करने की कोशिश है. ग्राम सभा आदिवासियों की जीवनशैली एवं उनकी स्वायत्तता को बरकरार रखने के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति है. इसमें शक्ति के विकेंद्रीकरण का भाव भी है. लेकिन, सवाल है कि पूंजीवादी ढांचे के अंदर लोकतांत्रिक शक्ति का विकेंद्रीकरण कितना संभव है? क्या निजी हित या पूंजी का हित समुदाय के हित से जुड़ सकता है? ग्राम सभा की परिकल्पना के केंद्र में समुदाय है. समुदाय का निर्णय वहां प्रभावी है. लेकिन, आज खुद राज्य सत्ता संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों को समुदायों के बीच वितरित करने के बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए संवैधानिक प्रावधानों को ‘बाइपास’ कर रही है. ऐसे में सवाल है कि ग्राम सभा के अस्तित्व का स्वरूप क्या होगा? क्या बहुराष्ट्रीय निवेश और आम जन का आत्मनिर्णय साथ-साथ संभव है?
दरअसल, ‘स्मार्ट सिटी’ के जमाने में ‘गांव’ अप्रासंगिक किये जा रहे हैं. उसी का परिणाम है कि ग्राम सभाओं का अस्तित्व सिकुड़ रहा है. ग्राम सभाओं को स्वायत्तता देने का मतलब है बहुराष्ट्रीय पूंजी के अनियंत्रित प्रवाह में रुकावट. अनुसूचित क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन ग्राम सभाओं की स्वायत्तता के रहते हुए संभव नहीं है. इसलिए विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए ‘भूमि अधिग्रहण’ से संबंधित जो भी नये कानून बन रहे हैं, उसमें पेसा अधिनियम 1996 के प्रावधानों की घोर अनदेखी है. हाल के दिनों में कई ऐसे मामले सामने आये हैं, जहां प्रशासन की नीतियों और ग्राम सभा के बीच सीधी टकराहट हुई है. भूमि अधिग्रहण से संबंधित कानूनों में ग्राम सभा के अधिकार निष्प्रभावी हैं. भारत जन आंदोलन के दिनों में ‘न लोक सभा, न विधान सभा, सबसे ऊपर ग्राम सभा’ की जो बात उठी थी, अब वह लगभग दफ्न हो रही है. नव उदारवाद के दौर में भारतीय लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण पर गहरा अघात पहुंचा है. देश के ज्यादातर हिस्सों में हो रहे जन आंदोलन इसके उदहारण हैं.
ग्राम स्वराज की परिकल्पना गांधीजी ने की थी. गांधी जयंती के अवसर पर अन्य रूपों में गांधीजी को याद किया जाता है, लेकिन गांधी के विचारों में जहां जन समुदाय के साथ संसाधनों के बंटवारे की बात आती है, वहां सरकारें मौन रह जाती हैं. असगर वजाहत का एक महत्वपूर्ण नाटक है ‘गोड्से @ गांधी.कॉम’. इस नाटक में एक दृश्य है, जिसमें गांधीजी के ऊपर देशद्रोह का मुकदमा इसलिए दायर किया जाता है, क्योंकि वे केंद्र के शासन की जगह ग्राम सभा की नीतियों का अनुसरण करते हैं. यह आज की व्यवस्था का यथार्थ है. आज आदिवासी क्षेत्रों में जो जन प्रतिरोध उभर रहे हैं, उनका सैन्य दमन कर ग्राम सभा के प्रतिनिधियों को नक्सली होने के झूठे मुकदमों में बंद किया जा रहा है. वस्तुत: यह समाज के ‘अंतिम जन’ के विरुद्ध संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई है.
आज पूंजी के संकेंद्रण ने शक्ति को भी संकेंद्रित किया है. गांवों के विकास की बात राजनीतिक जुमलों में तो कही जाती है, लेकिन गांवों के पास खुद अपने निर्णय का अधिकार नहीं है. आज ग्राम सभाओं के पास न अपनी कोई वित्तीय ताकत है और न ही कोई प्रशासनिक ढांचा है. अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं की स्वायत्तता की जगह सरकार ने उसे पंचायतों से जोड़कर ब्यूरोक्रेसी के अधीन कर दिया है. हो सकता है कि ‘स्मार्ट सिटी’ के बड़बोलेपन के बीच आपको ग्राम सभा की बात शायद बेमानी लगे, लेकिन सोचिये कि क्या ‘स्मार्ट सिटी’ के जमाने में एक दिन भारत के सारे-के-सारे गांव ‘स्मार्ट सिटी’ में तब्दील हो जायेंगे‍?
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in

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