पहचान से वंचित पाकिस्तान

कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक पड़ोसी पाकिस्तान की राजनीति हिंदुस्तान के रास्ते जा रही है. कहनेवाले यह भी कह रहे हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान का साया हिंदुस्तान पर गहराता जा रहा है. दोनों बातों में सत्यांश है, क्योंकि हम पड़ोसी ही नहीं हैं, भाई भी हैं भले ही अपनी कारगुजारियों से हम एक-दूसरे के खिलाफ काफी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 11, 2017 6:41 AM
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
पड़ोसी पाकिस्तान की राजनीति हिंदुस्तान के रास्ते जा रही है. कहनेवाले यह भी कह रहे हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान का साया हिंदुस्तान पर गहराता जा रहा है. दोनों बातों में सत्यांश है, क्योंकि हम पड़ोसी ही नहीं हैं, भाई भी हैं भले ही अपनी कारगुजारियों से हम एक-दूसरे के खिलाफ काफी दूर निकल अाये हैं.
पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से यह जानते-समझते रहे हैं कि इस देश की गद्दी अपने हाथ में रखनी हो, तो धर्म का अतिवादी चोला पहनना मुफीद रहेगा. इसलिए हर पाकिस्तानी नेता भी इस्लाम से कम या नीचे की बात नहीं करता है. हमारे यहां भी अब ऐसी ही कवायद की जा रही है. संकीर्णता का खेल जब भी खेला जाता है, बड़े अल्फाजों में लपेट कर ही खेला जाता है.
हाल ही में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनकी कुर्सी से बेदखल ही नहीं कर दिया, उनका राजनीतिक जीवन एक तरह से तमाम कर दिया.
पाकिस्तान के जन्मदाता मुहम्मद अली जिन्ना को छोड़ दें, तो पाकिस्तानी राजनीति की अधिकतर हस्तियों ने ऐसा ही किया है. यह भी एक कारण रहा है कि 70 साल के पाकिस्तानी इतिहास में एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं है, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया हो.
बेनजीर का पल्लू पकड़ कर जरदारी ने मर्यादाहीन कमाई की तो नवाज शरीफ ने मर्यादाहीनता की परिभाषा ही बदल डाली. अब नवाज किस रास्ते फिर सत्तानशीं होंगे, यह देखना है, लेकिन अाज हम जो देख रहे हैं, वह तो यह है कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी खुद ही चुन लिया है! यह लोकतंत्र है या राजतंत्र है?
भारतीय लोकतंत्र की खोज यह है कि जब तक ईश्वर ही कोई दूसरा फैसला न कर दे, राज चलाने के सबसे योग्य ‘अाप’ ही हैं!
हमारा एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसे लोकतंत्र के अाईने में देख कर अाप शर्मिंदा न हो जायें. साल 1975 में जब अदालत ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट अाचरण का अपराधी मान कर उन्हें प्रधानमंत्री के लिए अयोग्य बता दिया था, तब भाई लोगों ने एक रास्ता निकाला था कि कोई ‘स्टेपनी’ खोज कर उसे इंदिराजी की गद्दी तब तक संभालने को कहा जाये, जब तक अदालती लड़ाई जीत कर मदाम वापस नहीं अा जातीं.
जानकार बताते हैं कि ऐसे कुछ नाम इंदिरा गांधी के सामने रखे भी गये, लेकिन वे समझ रही थीं कि एक बार जो इस पद पर बैठा, उसे पर निकलने लगते हैं. इसलिए लोकतंत्र के इस खतरे को झेलने के बजाय उन्होंने लोकतंत्र को ही खत्म कर देना बेहतर समझा अौर देश में अापातकाल की घोषणा हुई.
पाकिस्तानी लोकतंत्र का इस्तेमाल नवाज शरीफ ने कुछ अलग तरीके से किया अौर पहले ही घोषणा कर दी कि उनके भाई शाहबाज शरीफ, जो अभी पंजाब के मुख्यमंत्री हैं, उनकी जगह प्रधानमंत्री होंगे.
लेकिन, पाकिस्तानी संविधान के मुताबिक, प्रधानमंत्री का सांसद होना जरूरी है, सो तजवीज यह निकाली गयी कि एक डमी प्रधानमंत्री बनाया जाये, जो तब तक गद्दी की रखवाली करे, जब तक शाहबाज चुनाव जीत कर सांसद नहीं बन जाते. तो जिस बात से इंदिरा गांधी डर गयी थीं, नवाज शरीफ उससे नहीं डरे, क्योंकि उनकी पार्टी में ऐसे लोकतंत्र की अभी दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं है कि जिसके पर निकलते हों. हां, पंजाब के मुख्यमंत्री की खाली हुई कुर्सी जरूर भरी जानी है, तो उसके लिए शाहबाज के बेटे हम्जा को ‘चुन’ लिया गया है.
पाकिस्तान की त्रासदी यह है कि वह अपने जन्म से अब तक कभी पूरा राष्ट्र बन नहीं सका!
एक कबीलाई मानसिकता से उसका जन्म हुअा अौर कबीलों की खिचड़ी-सा बन कर ही वह रह गया. यह खिचड़ी फौज को सर्वाधिक रास अाती है. इसलिए पाकिस्तानी लोकतंत्र का मतलब दो फौजी तानाशाहियों के बीच का वह छोटा-सा काल है, जब फौजी जनरल थकान उतारते होते हैं. नवाज शरीफ ने भारत का साथ लेकर फौज का मुकाबला करने की कभी सोची जरूर, लेकिन ऐसा करने के लिए जैसी रणनीति और साहस जरूरी थी, वह उनके पास थी ही नहीं. इसलिए वे इस क्षण प्रधानमंत्री अौर उस क्षण चूहे बन जाते थे.
नरेंद्र मोदी ने सत्ता में अाने के बाद उनके लिए कुछ ऐसे अवसर बनाये कि वे हिम्मत करते तो फौजी चंगुल से निकल सकते थे. लेकिन, हर बार नवाज कमतर साबित हुए अौर अब तो वे पाकिस्तानी इतिहास का एक पन्ना भर हैं.
अंतिम फौजी तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने नवाज के इस्तीफे के बाद कहा, ‘जब-जब राजनीतिक शासन अाता है, पाकिस्तान का विकास रुक जाता है.’ लेकिन, फौज ने अब यह समझ लिया है कि नाहक तख्तापलट की जरूरत नहीं है, जबकि अपने सारे काम राजनीतिक शासन से करवाये ही जा सकते हैं.
इसलिए अभी पाकिस्तान में किसी तख्तापलट का खतरा नहीं है, लेकिन किसी लोकतांत्रिक पाकिस्तान के उदय की भी संभावना नहीं है. एक अधूरे अौर विखंडित राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान अभी कुछ अौर समय तक एशिया के सीने में घाव की तरह रिसता रहेगा.

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