दुनिया की नजर में भारत

डॉ राम पुनियानी लेखक एवं विचारक ram.puniyani@gmail.com पिछले दिनों दुनिया के दो बड़े देशाें अमेरिका और चीन के दैनिक अखबारों ने भारत की छवि के बारे में लिखा. दोनों अखबारों ने अपने-अपने तरीके से भारत की आलोचना की. पहले बात अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की. दुनिया भारत को कैसे देखती है, और भारत किस दिशा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 24, 2017 6:26 AM

डॉ राम पुनियानी

लेखक एवं विचारक

ram.puniyani@gmail.com

पिछले दिनों दुनिया के दो बड़े देशाें अमेरिका और चीन के दैनिक अखबारों ने भारत की छवि के बारे में लिखा. दोनों अखबारों ने अपने-अपने तरीके से भारत की आलोचना की. पहले बात अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की. दुनिया भारत को कैसे देखती है, और भारत किस दिशा में बढ़ रहा है, इसी बात का प्रतिबिंब है न्यूयॉर्क टाइम्स की आलोचना में. न्यूयॉर्क टाइम्स ने कई बातें कही हैं. पहली, विकास और नौकरियों को लेकर भारत की मौजूदा सरकार के दावे बिल्कुल खोखले हैं. दूसरी, बीफ के नाम पर भीड़ के हमलों में मुसलिम अल्पसंख्यक और दलित समाज पे बड़े हमले हुए हैं.

यही बात भारत की एजेंसी ‘इंडिय स्पेंड’ ने भी कही है और अपने शोध में पाया है कि पिछले छह साल में भारत में मोब लिंचिंग (पीट-पीट कर हत्या करना) के 80 प्रतिशत मामले सिर्फ विगत तीन सालों यानी मई, 2014 के बाद हुए हैं और इनमें मारे जानेवालों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है. तीसरी बात अमर्त्य सेन की किताब पर बनी डॉक्यूमेंट्री से कुछ शब्दों को हटाने को लेकर आलोचना है. न्यूयॉर्क टाइम्स की इन सभी आलोचनाओं से साबित होता है कि दुनिया भारत को कैसे देखती है और इसमें भारत की कितनी बड़ी जिम्मेवारी है कि वह अपनी छवि को दुनिया के सामने कैसे बेहतर बनाये.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अल्पसंख्यक समुदायों और दलितों के बीच आज एक असुरक्षा का माहौल बन गया है. बीफ प्रतिबंधों के चलते कई जगहों पर तो उनकी आर्थिक हालत पहले से कहीं ज्यादा खराब हो गयी है.

दलितों और गरीबों की अपनी अर्थव्यवस्था में जानवरों का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन प्रतिबंधों के चलते उनकी अर्थव्यवस्था पर संकट आ गया है. जो देश अपने युवाओं को हिंसा-मुक्त समाज और रोजगार नहीं दे सकता, उस देश के विकसित होने की संभावनाएं नहीं रहती हैं. इस ऐतबार से दुनिया के इन दो बड़े देशों के प्रमुख अखबारों की आलोचनाओं पर हमें गौर करने की जरूरत है.

अगर कोई विदेशी अखबार यह कह रहा है कि मौजूदा सरकार बनने के बाद से भारत में बढ़े भीड़ के हमले बहुत खतरनाक हैं और एक उग्र असहिष्णुता पैदा हो गयी है, तो हमें यह सोचना-समझना चाहिए कि आखिर देश की इस छवि को कैसे सुधारा जाये. अगर आप गौर करें, तो एक-डेढ़ साल पहले ही देश में असहिष्णुता की एक लंबी बहस चली थी और कई लेखकों-साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, फिल्मकारों ने मजबूर और दुखी होकर अपने अवॉर्ड वापस किये, जो यह प्रतीक था कि इस देश में हम हिंसा का विरोध करते हैं. उन लोगों के विरोध को समझने के बजाय उनको ही बदनाम करने की कोशिश की गयी. उस दौर में शुरू हुई असहिष्णुता की परिणति ही है कि आज गौरक्षा के नाम पर एक इंसान की पीट-पीट कर हत्या हो जाती है.

यह हमारे समाज की एक विकृत छवि है, जिसे यहां के लेखकों-पत्रकारों-बुद्धिजीवियों ने समय-समय पर बताने की कोशिश की है और चेताया है कि समाज को सही दिशा देने की कोशिश हो, ताकि कोई भी भीड़ की हिंसा का शिकार न हो.

अब बात चीनी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ की. ग्लोबल टाइम्स ने एक दूसरी बात कही है कि भारत में हिंदू राष्ट्रवाद बढ़ा है, अल्पसंख्यकों-दलितों पर हमले बढ़े हैं, जिसकी वजह से चीन से भी टकराव की स्थिति हो गयी है. चीन हमारा पड़ोसी है और 1962 के बाद से हमारी किसी भी सरकार ने ऐसी परिस्थिति नहीं पैदा होने दी, जिससे कि भारत-चीन आमने-सामने आक्रामक मुद्रा में खड़े हों. लेकिन, फिलहाल भारत-चीन के बीच तनाव की स्थिति बनी हुई है. इसके लिए चीन ज्यादा जिम्मेवार है, जिसने कई तरह के सीमा-विवाद खड़े कर रखे हैं.

भारत-चीन रिश्तों और तनाव को लेकर एक बात बहुत अच्छी रही कि हमारे देश में वैसा उन्माद नहीं पैदा हुआ, जैसा भारत-पाक के संबंधों को लेकर पैदा होता है. उन्माद से हालात और खराब हो जाते हैं. उन्माद एक ऐसी चीज है, जो युद्ध से भी खतरनाक होती है, क्योंकि उन्माद की स्थिति में हर आदमी हिंसक हो जाता है. जब हर आदमी हिंसक होगा, तो लोकतांत्रिक समाज की मूल भावना खतरे में पड़ जायेगी.

न सिर्फ इन दोनों अखबारों की आलोचनाओं पर हमें गौर करना होगा, बल्कि खुद अपनी जिम्मेवारियों को भी समझना होगा कि हम किसी उन्माद में आने से बचें. बीते वर्षों में देशभर में जिस तरह से उन्माद बढ़ाने की प्रक्रिया तेज हुई है, और विडंबना यह कि सरकारें इसे रोकने में नाकाम रही हैं, उससे यह कहना गलत नहीं होगा कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं

हमारे समाज के विकास के लिए, समाज के स्वास्थ्य के लिए और सामाजिक सुरक्षा के लिए उन्माद का होना सचमुच बहुत खतरनाक चीज है. हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि समाज में उन्माद न फैले और हमारी नीतियां ऐसी हों, जिनमें सभी देशवासियों को बराबर का नागरिक माना जाये. अल्पसंख्यकों-दलितों को डराना, उनके अधिकारों में कमी करना और उन्हें सीमित करना ही उन्माद का उद्देश्य है. यह एक कमजोर पक्ष भी है, जिसका सीधा फायदा भ्रष्ट राजनीति उठाती है और दुनिया में भारत की बदनामी होती है.

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