तनिक इमाम-दस्ता तो दे

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार आज घर-घर में मिक्सर, ग्राइंडर, जूसर और ब्लेंडर हैं. किसी जमाने में ये स्टेटस सिंबल थे. मुझे याद है करीब पचास साल पहले मेरे घर में मिर्च, धनिया आदि मसाला कूटने के लिए लोहा-लाट इमाम-दस्ता, सिल-बट्टा और छोटे-मोटे अन्य तमाम घरेलू उपकरण मौजूद होते थे. ये सब संस्कृति का हिस्सा थे, […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 21, 2017 6:34 AM
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
आज घर-घर में मिक्सर, ग्राइंडर, जूसर और ब्लेंडर हैं. किसी जमाने में ये स्टेटस सिंबल थे. मुझे याद है करीब पचास साल पहले मेरे घर में मिर्च, धनिया आदि मसाला कूटने के लिए लोहा-लाट इमाम-दस्ता, सिल-बट्टा और छोटे-मोटे अन्य तमाम घरेलू उपकरण मौजूद होते थे. ये सब संस्कृति का हिस्सा थे, सांझी विरासत थी. एक-दूसरे से बेझिझक मांग लिये जाते थे. इतना ज्यादा भरोसा था एक-दूसरे पर कि मिश्राइन के घर में है, तो चौधराईन को खरीदने की क्या जरूरत?
इसी बहाने पता चल जाता कि अगले के घर आज क्या कुटने जा रहा है. साथ ही आधे घंटे खड़े-खड़े बुकराती हो जाती. एक-दूसरे का दुख-सुख पता चल जाता. पचास साल पहले इंटरनेट तो थे नहीं. लेकिन सूचनाएं इंटरनेट को भी बीट किया करती थीं. किसी खबर को फैलाना हो तो सिल-बट्टा वापस करने आयी मिश्राइन को बस कह भर दीजिये कि अपने दिल में रखना. शाम तक पूरे मोहल्ले को खबर हो जाती.
इन उपकरणों की जरूरत मेहमानों के आने पर अक्सर पड़ती थी. उन दिनों नॉन-वेज के लिए बर्तन अलग होते थे. इन्हें आंगन के कोने में या छत की मियानी में रखा जाता था. इसे भी बाज पड़ोसी शेयर करते थे. एक बार मां का पड़ोसन से झगड़ा हो गया. तेरी अंगीठी का धुआं मेरे घर नहीं घुसना चाहिए.
इत्तेफाक से उसी दिन पड़ोसन के घर मायके से मेहमान आये. मां को पता चला तो फौरन हम बच्चों के हाथ कुछ क्रॉकरी और बर्तन भिजवा दिये. मां को मालूम था कि पड़ोसन की रसोई में बहुत कम आइटम हैं. उसे फिक्र थी कि खास मेहमान के सामने पड़ोसन को शर्मिंदा न होना पड़े.
एक बार हमारा इमाम-दस्ता किसी पड़ोसन के घर गया. देने का नाम नहीं. छह महीने गुजर गये. मां ने जासूसी शुरू की. महीना बाद पता चला पच्चीस मील दूर उसकी किसी रिश्तेदार के रिश्तेदार घर पर इस्तेमाल हो रहा था.
बामुश्किल लड़-झगड़ कर मां वापस लेकर आयी. मां कई दिन तक बड़बड़ाती रही थी. इमाम-दस्ता खानदानी विरासत है. छठवीं पीढ़ी चल रही है. बड़े जतन से संभाल कर रखा था. अब इसे यादगार के तौर पर रखेंगे. लेकिन, यह एक ऐसा आइटम है कि अब भी कभी-कभी उधार जाता है. सुना है कहीं-कहीं तंदूर भी साझे पर चल रहे हैं.
हमारी यह साझी संस्कृति अब कहीं खो गयी है. आज हालत ये हैं कि डर लगता है कि सुबह-सुबह ठकुराईन न आ धमके- ऐ पपुआ के मम्मी, तनिक एक ठो नेबुआ तो दीजिये. ठाकुर साहेब का दिल नेबू की चाय पीने को हो रहा है.
कुछ लोग रसोई का एग्जॉस्ट भी बंद कर देते हैं, ताकि हमारे घर में नॉनवेज की महक न पहुंच जाये.

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