अपना-अपना ड्रेस-कोड

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार हम आदतों के इतने आदी हैं कि दूसरों को उनके कैदी भी लगें, तो भी कोई ताज्जुब नहीं होगा. उधर आदतों की फितरत ऐसी है कि वे किसी को अपने लगने की भनक तो लगने ही नहीं देतीं, लगने के बाद आसानी से छोड़ कर भी नहीं जातीं. उनकी इस खासियत […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 23, 2017 6:04 AM

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

हम आदतों के इतने आदी हैं कि दूसरों को उनके कैदी भी लगें, तो भी कोई ताज्जुब नहीं होगा. उधर आदतों की फितरत ऐसी है कि वे किसी को अपने लगने की भनक तो लगने ही नहीं देतीं, लगने के बाद आसानी से छोड़ कर भी नहीं जातीं. उनकी इस खासियत को सबसे पहले दुष्यंत कुमार ने पहचाना था और कहा था-तुम एक आदत-सी बन गई हो, और आदत कभी नहीं जाती.

सबको उनकी नियत ड्रेस में ही देखने की चाह भी एक ऐसी ही आदत है. जो कोई अपनी नियत ड्रेस में नहीं दिखता, उसे हम पहचानते तक नहीं. यह बात व्यक्तियों के संबंध में ही नहीं, वस्तुओं, स्थितियों, भाषाओं आदि के संबंध में भी सच है. ‘नंद’ शब्द को ही लें, जिसके बारे में हम सिवाय इसके शायद ही कुछ जानते हों कि वह चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व मगध का शासक-वंश था या फिर कृष्ण का पालक पिता. ‘नंद’ का अर्थ ‘प्रसन्नता’ होता है, कम ही लोग जानते होंगे. कृष्ण को ‘नंद-नंदन’ कहने के पीछे यही भाव है कि जो प्रसन्नता को भी प्रसन्न करे. लेकिन, यही ‘नंद’ शब्द जब ‘आ’ उपसर्ग का कोट पहन कर आ जाता है, तब हम फौरन उसे पहचान लेते हैं.

भगवान तक को हम उसकी मनचाही ड्रेस में नहीं देख सकते. अपनी वृंदावन-यात्रा के दौरान तुलसीदास ने भगवान कृष्ण से साफ कह दिया था कि मुझसे आदर-सम्मान चाहते हो, तो वंशीधर का बाना छोड़ कर धनुर्धर के भेस में सामने आओ- तुलसी मस्तक तब नवै, धनुष-बाण लेहु हाथ! कहते हैं कि भगवान कृष्ण को उनकी बात माननी पड़ी, वरना उनकी भगवत्ता ही खतरे में पड़ जाती.

स्त्रियों को तो हम सर्वथा उनकी तयशुदा ड्रेस में ही देखना चाहते हैं. उनकी सुविधा के लिए वह ड्रेस तय भी पुरुषों ने ही कर दी है. उनके खयाल से औरतों के साथ बलात्कार होता ही तभी है, जब वे इस ड्रेस-कोड का पालन नहीं करतीं. बच्चियों को भी शायद उन्हीं की गलतियों का खामियाजा भुगतना पड़ता होगा.

अब यही किसानों के मामले में हो रहा है. जैसा कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है और इसका सारा दोष किसानों के सिर जाता है. स्वभावत: देश ने भी उन्हें इसका वह सिला दिया है कि वे किसानी से तो क्या, जिंदगी से भी तौबा करने को मजबूर हैं.

उससे पहले वे सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए कभी-कभार आंदोलन जैसा कुछ करते भी हैं, तो सरकार उसे इसलिए खारिज कर देती है कि वे किसानों की परंपरागत अधनंगी पोशाक में क्यों नहीं होते. पैंट-कमीज या जींस-टीशर्ट पहन कर आनेवाले भला किसान कैसे हो सकते हैं? ड्रेस-कोड का ध्यान न रखने पर वह उन्हें मरने क्यों न दे या गोली चलवा कर मार क्यों न दे?

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