Happy Diwali 2022: मिट्टी के दिए रचते हैं उजालों का संसार

Happy Diwali 2022: दिवाली पर आंगन, दीवारों में अल्पना लीप कर बनाई जाती है और घरों के द्वार पर रंगों से रंगोली बनाई जाती है. मन की चेतना में रंग इतने रचे-बसे होते हैं कि उनका किसी भी स्वरूप में आगमन शुभता को दर्शाता है. रंग मन की विविधता के द्वार हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 23, 2022 5:54 PM

Happy Diwali 2022: लोक कल्याण और लोक संस्कृति ऐसे बहुरंगी पक्ष है जो प्रेरित करते हैं उत्साह, उमंग, उल्लास, खुशी को. हम नितांत अधूरे हैं इन भावों के बिना और यह भाव जगाने के लिए पुरातन परंपरा है त्त्योहारों की जो विश्व की हर एक संस्कृति का अविभाज्य अंग है. त्यौहारों के साथ लोक व्यवहार भी जुड़े हैं. स्वच्छता, शुद्धता, सुंदरता, पवित्रता, नवीनता का प्रतीक है दीपावली. आराध्य के साथ इन सब बातों को ऐसे पिरोया गया है कि आम व्यक्ति उन आधारों-प्रतीकों को सहजता से आत्मसात कर सके. जहां स्वच्छता व्यक्तिगत प्रेरणा होने के साथ सामाजिक स्तर पर भी होने से बहुआयामी प्रभाव पड़ते हैं जो हमें सामुहिक रूप से बीमारियों से दूर रखने और मिलकर रहने के लिए आगे बढ़ने को कहते हैं.

रों के द्वार पर रंगों से रंगोली बनाई जाती है

शरीर रोग रहित और समाज विकार रहित होने पर ही हम विकास की परिभाषा को रच सकते हैं. इसलिए कहा भी गया है कि जिस समाज में अस्पताल, जेलें, पागलखाने और कोर्ट कम से कम होंगे वही समात विकसित कहलाएगा. त्यौहार इन्ही बातों को कम करने की नींव का काम करते हैं. दीपावली इसी तत्व को पहचानने का सबसे बड़ा त्यौहार है. आंगन, दीवारों में अल्पना लीप कर बनाई जाती है और घरों के द्वार पर रंगों से रंगोली बनाई जाती है. मन की चेतना में रंग इतने रचे-बसे होते हैं कि उनका किसी भी स्वरूप में आगमन शुभता को दर्शाता है. रंग मन की विविधता के द्वार हैं. मन को केंद्रित करने में रंग भी अपनी भूमिका निभाते हैं. रंगोली में विभिन्न आकृति मंडलों को अभिव्यक्त करती है और मंडलों का गूढ़ ज्ञान हमारी सांस्कृतिक परम्परा का हिस्सा रहा है. कहते है हर एक देवता का अपना मंडल है और ये ज्यामितीय आकृतियां उनके आव्हान के लिए है.

शुभ गणेश का प्रतीक हैं और लाभ लक्ष्मी का

घर के द्वार पर वंदनवार भी लगाए जाते हैं. यह वंदनवार देहरी के ठीक ऊपर होते हैं, देहरी हमारे घर और बाहर की दुनिया की सीमा को दिखाती है. ऊपर लगे वंदनवार उस सीमा पर अभिनंदन का घोष है कि सर्वथा श्रेष्ठ घटे और यहां से निकलने या आने वाला व्यक्ति उसका साक्षी बने. यही साक्षी भाव उसके जीवन में भी आए और जीवन की कोई घटना उसे अंदर तक प्रभावित न कर सके. वंदनवारों में आम, जामुन के पत्ते प्रयुक्त होते हैं जो आव्हान है उस प्रकृति का की वह हमारे आवागमन को पूर्णता प्रदान करे. घरो के बाहर लाभ-शुभ लिखने की परंपरा है. शुभ गणेश का प्रतीक हैं और लाभ लक्ष्मी का. इसलिये दीवाली के दिन लक्ष्मी के साथ-साथ गणेश की भी पूजा होती है.

लक्ष्मी के सदुपयोग के लिए बुद्धि और विवेक की आवश्यकता होती है

लक्ष्मी सामाजिक समृद्धि का आधार स्तंभ हैं, जिसकी कामना गरीब और अमीर सभी करते है. लेकिन केवल समृद्धि ही सब कुछ नही है. लक्ष्मी (धन) के सदुपयोग के लिए बुद्धि और विवेक की आवश्यकता होती है. बुद्धि और विवेक के अभाव में धन का दुरुपयोग होने से हमारा नैतिक पतन अवश्यंभावी है. हमारे आसपास ऐसे उदाहरण कम नहीं है, जहॉ धन की बहुतायता वाले परिवार दुराचार और अनैतिकता के रास्ते पर चलते-चलते पतन की ओर अभिमुख होते देखे गये है. अतः आज के इस पावन पर्व दीवाली के अवसर पर हम लक्ष्मी और गणेश दोनों की पूजा करके सदाचार, विवेकशील और समृद्धशाली होने की अपनी मनोकामना व्यक्त करते है.

दीये जलाये जाने की हमारी लोक परंपरा आज भी अपनी लोक संस्कृति को आलोकित करती है

आलोक उसी तरह जरूरी है जैसे जीवन में सूर्य. रात और दिन की विधिता के पीछे कुछ मंतव्य हैं वर्ना दिन ही दिन बनाया जा सकता था या फिर रात ही रात. जीवन में जिस तरह उतार-चढ़ाव आते हैं जैसे सुख-दुख उसी से मिलकर बना होता है जीवन. रात का अपना महत्व है तो दिन का अपना. यहां आलोक से आशय मन के उजास का है. इसके श्रेष्ठ प्रतीक है मिट्टी के दिए. मूल रूप में दीपावली दीपों की रोशनी का उत्सव है. मिटटी के दीये में तेल डाल कर रूई की बाती बना कर दीये जलाये जाने की हमारी लोक परंपरा आज भी अपनी लोक संस्कृति को आलोकित करती है.

गांवों कस्बों में दीपदान की परम्परा आज भी है

दीप मेरे जले अकंपित-घुल अचंचल/स्वर प्रकंपित कर दिशाएं/मीड़ सब भूकी शिराएं/गा रहे आंधी प्रलय/तेरे लिये ही आज ही मंगल. महादेवी वर्मा के दीप भी आंधी प्रलय में ही जीवन के गीत गाते हैं. हर एक दीपक का अंतस भी यही कह रहा होता है कि कैसे भी हो मंगल हो. चाहे वह अंधकार मिटाकर हो या अज्ञान मिटाकर हो या फिर आंधियों को झेलकर हो. गांवों कस्बों में दीपदान की परम्परा आज भी है. मंदिर, चौराहों, पालतु पशुओं के स्थलों खलियान, गरीब की झोपड़ी, नदी में दीप दान किया जाता है. कारण यही है कि जीवन के वे समस्त पक्ष उजाले से भर सकें. केवल अपना घर उजाला कर लेने से कुछ नहीं होता है निकलना तो हमें बाहर ही है, काम तो सभी आते हैं उनके जहान भी रौशन होंगे तो हम भी अंदर से रोशन हो सकेंगे. दीपावली केे दिन कुंवारी कन्याएं और विवाहित महिलाएं थाली में जलते हुए दीपों को सजाकर दीपदान करती हुई आज भी गांव और छोटे कस्बों में देखी जा सकती हैं. समय के चक्र में हमारी लोक संस्कृति को शहरों में पनपने नहीं दिया है. परन्तु वह गांव में आज भी मौलिक रूप से विद्यमान हैं. दीपदान में ये महिलाएं आसपड़ोस में घर-घर जलते हुए दीपक बांटती फिरती है.

दीपावली ही वह मिलन है जो अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चले

माना गया है कि भृगु ऋषि ने अग्नि की खोज की. वहीं से अग्नि संस्था का जन्म हुआ – इंद्र ज्योतिः तथा ‘‘सूर्यांश संभवों दीपः” अर्थात सूर्य के अंश से दीप की उत्पत्ति हुई. जीवन की पवित्रता, भक्ति अर्चना और आर्शीवाद का दीप एक शुभ लक्षण माना जाता हैं सूर्य के अंश से पृथ्वी की अग्नि को जिस पात्र में स्थापित किया गाय वह आज सर्वशक्तिमान दीप के रूप में हमारे घरों में है. इसलिए कहा गया है, शुभम करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा/ शत्रुबुद्धि विनाशाय दीपज्योति नमस्तुते.. सुन्दर और कल्याणकारी, आरोग्य और संपदा को देने वाले हे दीप, शत्रु की बुद्धि के विनाश के लिए हम तुम्हें नमस्कार करते हैं. ऐसे मंगलदायी दीप के लिये भक्त के मन में आदरयुक्त भावना उत्पन्न हुई होगी और इसी ने दीपक को कलात्मक रूपा से गढ़ना शुरू कर दिया होगा. सूर्य के वंशज दीपक को एक कवि भी निहारता है और अपनी प्रेयसी को भी पुकारता है कि जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना/संकेत मिलन का भूल न जाना/मेरा प्यार ना बिसराना/जब दीप जले आना……. यही संकेत है कि दीपावली ही वह मिलन है जो अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चले, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चले, आंधी तूफानों को पार करने की शक्ति दे सके.

डॉ लोकेन्द्रसिंह कोट

lskot1972@gmail.com

Next Article

Exit mobile version