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ChatGPT इंसानों के लिए सहारा या खतरा? दिमाग पर पड़ रहा गहरा असर, वैज्ञानिकों के रिसर्च में बड़ा खुलासा

ChatGPT Effect: क्या ChatGPT इंसानों की सोचने-समझने की क्षमता को कम कर रहा है? MIT की एक रिसर्च में यह खुलासा हुआ है कि ज्यादा AI इस्तेमाल से दिमाग सुस्त हो सकता है और मानसिक जुड़ाव कम हो सकता है. जानिए क्या कहते हैं वैज्ञानिक और कैसे बदल रही है शिक्षा प्रणाली की दिशा.

By Sameer Oraon | July 8, 2025 7:42 PM
ChatGPT इंसानों के लिए सहारा या खतरा? दिमाग पर पड़ रहा गहरा असर, वैज्ञानिकों के रिसर्च में बड़ा खुलासा

ChatGPT Effect: जब हमारे सामने ChatGPT जैसी AI टेक्नोलॉजी हमारे जीवन में दस्तक दी तो सभी ने सोचा कि यह हमारे काम को आसान बनाएगा. कई लोगों की लाइफ में यह चीज पर्सनल लर्निंग का भी जरिया बना. लेकिन इसके बाद यह मुद्दा डिबेटेबल हो गया है कि क्या ये कई लोगों की रोजगार छीन लेगा? यह सवाल बहुतेरे लोगों के मन में आया. इस पर हर किसी की अपनी अलग अलग राय है. लेकिन क्या आप जानते हैं ChatGPT जैसी टेक्नोलॉजी के आने के बाद इंसानों के मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाल रहा है. जी हां एक रिपोर्ट में यह उल्लेखित किया गया है कि इसका ज्यादा इस्तेमाल हमारे दिमाग को सुस्त बना रहा है. इंसानों के सोचने समझने की क्षमता कम हो जा रही है. यह दावा एमआईटी के वैज्ञानिकों ने अपने रिसर्च में किया है.

क्या है MIT के वैज्ञानिकों का दावा

MIT के वैज्ञानिकों ने एक दिलचस्प रिसर्च किया. जिसमें उन्होंने 54 वयस्कों को तीन अलग-अलग तरीकों से निबंध लिखने के लिए कहा. उन्होंने सबसे पहले ChatGPT का इस्तेमाल करते हुए लेख लिखने को कहा. दूसरी बार उन्होंने सर्च इंजन का सहारा लेकर और तीसरी बार केवल अपनी सोच का उपयोग करते हुए लेख लिखने को कहा. रिसर्चर्स ने इन प्रतिभागियों के दिमाग की इलेक्ट्रिकल गतिविधि और उनके निबंधों की गुणवत्ता को ट्रैक किया. जिसमें चौंकाने वाले रिजल्ट सामने आए. AI का इस्तेमाल करने वाले प्रतिभागियों का दिमाग बाकी दो तरीकों की तुलना में बहुत कम सक्रिय था. इतना ही नहीं, उन्हें अपने ही लिखे निबंधों को याद करने में भी दिक्कत होने लगी और उन्होंने खुद में व्यक्तिगत जुड़ाव कम महसूस किया.

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लंबे समय तक AI पर निर्भरता का असर क्या होगा?

रिसर्च से यह बात सामने आई कि जो लोग बार-बार AI का सहारा लेते हैं, उनके दिमाग की “कॉग्निटिव इन्वॉल्वमेंट” यानी सोचने-समझने में भागीदारी कम हो जाती है. यानी धीरे-धीरे वे खुद सोचने के बजाय AI पर निर्भर हो जाते हैं. जब इन्हीं लोगों को आगे चलकर बिना AI के टास्क दिए गए, तो वे उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए जितना बाकी समूहों ने किया.

क्या शिक्षा प्रणाली तैयार है AI के लिए?

AI के इस्तेमाल को समझने के लिए हमें 1970 के दशक की याद करनी होगी, जब कैलकुलेटर पहली बार स्कूलों में आया था. इसके बाद जो भी परीक्षाएं आयोजित की गयी उसमें प्रश्नों का लेवल जानबूझ टफ कर दिया गया. ताकि छात्रों को सिर्फ जोड़-घटाना न आए, बल्कि वे समझें कि गणितीय सोच कैसे काम करती है. लेकिन आज AI के मामले में वैसा नहीं हो रहा. शिक्षक अभी भी छात्रों से वही असाइनमेंट मांगते हैं जो पांच साल पहले मांगते थे, जबकि आज AI उन्हें मिनटों में पूरा कर सकता है. इससे छात्र “मेटाकॉग्निटिव लेजीनेस” की समस्याओं यानी कि सोचने की समस्या से जूझ रहे हैं.

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