जेरोम पॉवेल का दुनिया को तगड़ा झटका, ब्याज दर को स्थिर रखकर दिया 2008 जैसी महामंदी का संकेत
Federal Reserve Interest Rates: 2008 की आर्थिक मंदी भी इसी तरह के संकेतों के साथ शुरू हुई थी, जब बैंक दिवालिया होने लगे थे और बाजार में नकदी संकट उत्पन्न हो गया था. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर मौजूदा परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर हुईं, तो वैश्विक बाजार एक बार फिर बड़ी मंदी का शिकार हो सकता है.
Federal Reserve Interest Rates: 19, मार्च 2025 बुधवार की रात 11:30 को (भारतीय समयनुसार) अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष जेरोम पॉवेल ने ब्याज दरों को स्थिर रखने का निर्णय लेकर वैश्विक अर्थव्यवस्था को झटका दिया है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला 2008 की महामंदी जैसे हालात पैदा कर सकता है.
पॉवेल के फैसले का प्रभाव
अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपनी बैठक में ब्याज दरों को 4.25% से 4.5% के दायरे में स्थिर रखने का निर्णय लिया. इस कदम ने वित्तीय बाजारों में चिंता बढ़ा दी है. विशेषज्ञों का कहना है कि पॉवेल का यह निर्णय संकेत देता है कि अर्थव्यवस्था में मौजूदा अस्थिरता को देखते हुए फेडरल रिजर्व मंदी के जोखिम को लेकर गंभीर है. ऐसे फैसले 2008 की वैश्विक आर्थिक संकट जैसी स्थिति पैदा कर सकते हैं, जब महंगाई और बेरोजगारी चरम पर थी.
क्यों लिया गया यह फैसला?
- मुद्रास्फीति नियंत्रण: अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर अपेक्षाकृत ऊंची बनी हुई है. फेडरल रिजर्व को डर है कि यदि ब्याज दरों में कटौती की गई, तो महंगाई और अधिक बढ़ सकती है.
- बाजार की अस्थिरता: हाल के दिनों में शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव और बैंकिंग संकट ने फेडरल रिजर्व को सतर्क बना दिया है.
- वैश्विक आर्थिक दबाव: चीन की अर्थव्यवस्था में सुस्ती और यूरोप में आर्थिक संकट ने अमेरिका को अपनी मौद्रिक नीति पर सख्ती बरतने के लिए मजबूर किया है.
फेडरल रिजर्व के फैसले से संभावित असर
- उधारी महंगी होगी: ब्याज दरों में स्थिरता के कारण लोन और क्रेडिट कार्ड की दरें उच्च स्तर पर बनी रहेंगी, जिससे आम उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ेगा.
- शेयर बाजार पर दबाव: निवेशकों को डर है कि उच्च ब्याज दरों के कारण कंपनियों का मुनाफा घट सकता है, जिससे शेयर बाजार में गिरावट संभव है.
- बेरोजगारी बढ़ने की आशंका: फेडरल रिजर्व के इस फैसले के कारण कंपनियां अपने खर्चों में कटौती कर सकती हैं, जिससे नौकरियों पर खतरा मंडरा सकता है.
2008 की महामंदी से तुलना
2008 की आर्थिक मंदी भी इसी तरह के संकेतों के साथ शुरू हुई थी, जब बैंक दिवालिया होने लगे थे और बाजार में नकदी संकट उत्पन्न हो गया था. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर मौजूदा परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर हुईं, तो वैश्विक बाजार एक बार फिर बड़ी मंदी का शिकार हो सकता है. भारत जैसे विकासशील देशों पर इसका प्रभाव गहरा हो सकता है. डॉलर की मजबूती के कारण रुपये में कमजोरी देखने को मिल सकती है, जिससे आयात महंगा हो सकता है. इसके अलावा भारतीय स्टार्टअप और टेक कंपनियों के लिए निवेश जुटाना कठिन हो सकता है.
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