भारत की विरासत का प्रतीक है भारत माता की जय का नारा

डॉ राकेश सिन्हा विश्लेषक भारत माता की जय, यह सिर्फ एक नारा नहीं है. इसके पीछे एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, वह पृष्ठभूमि है भारत में राष्ट्रवाद के अभ्युदय का. भारत में राष्ट्रवाद को एक भूमि का टुकड़ा या भोग का साधन नहीं माना गया है, बल्कि राष्ट्रवाद का तात्पर्य मां और संतान के संबध से […]

By Prabhat Khabar Print Desk | March 20, 2016 7:47 AM

डॉ राकेश सिन्हा

विश्लेषक

भारत माता की जय, यह सिर्फ एक नारा नहीं है. इसके पीछे एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, वह पृष्ठभूमि है भारत में राष्ट्रवाद के अभ्युदय का. भारत में राष्ट्रवाद को एक भूमि का टुकड़ा या भोग का साधन नहीं माना गया है, बल्कि राष्ट्रवाद का तात्पर्य मां और संतान के संबध से है. इसी संबंध के अनुकूल भारत में राष्ट्रवाद का विकास हुआ. यही कारण है कि 1857 के संग्राम से लेकर लगातार भारत माता की जय ही स्वतंत्रता का एक प्रमुख नारा बना रहा.

यह कोई राजनीतिक नारा नहीं है. कुछ नारे ऐसे होते हैं, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में लगाये जाते हैं, लेकिन कुछ नारे अनुकूल परिस्थितियों में भी लगाये जाते हैं, उसी में एक नारा है भारत माता की जय. इस नारे के कई आयाम हैं. पहला, यह नारा भारत की विरासत का प्रतीक है. इस विरासत में बाैद्धिक और सांस्कृतिक दोनों हैं, जिससे भारत को पूरी दुनिया में एक प्रमुखता मिली है. दूसरा, हम राष्ट्रवाद को एक जीवंत सिद्धांत मानते हैं, जो व्यक्ति में राष्ट्र के प्रति सरोकार पैदा करता है, क्योंकि हमारा राष्ट्रवाद किन्हीं नकारात्मक कारणों से उत्पन्न नहीं हुआ है. तीसरा, हम अपनी मातृभूमि को स्वर्ग से भी महत्वपूर्ण मानते हैं.

महर्षि बाल्मिकी ने कहा है कि हमारी मातृभूमि का वह स्थान है, जिसका कोई समानांतर नहीं है, हमारी मातृभूमि जैसी भी हो, वह स्वर्ग से भी भली लगती है. चौथा और अंतिम आयाम यह है कि जो लोग कहते हैं कि भारत माता की जय नहीं बोलेंगे, वे वास्तव में एक नारे से नहीं मुकर रहे हैं, बल्कि मुसलिम लीग की मानसिकता के तहत ऐसे नारों, मुहावरों, अवधारणाओं को खारिज कर रहे हैं, जो भारतीय राष्ट्रवाद के मूल प्रतीक थे. इसका एक उदाहरण देता हूं- सन 1920 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था नागपुर में. उस अधिवेशन में मुहम्मद अली जिन्ना बोलने आये थे. तब तक महात्मा गांधी भारतीय राजनीति के शिखर पर पहुंच चुके थे.

उनकी त्याग और तपस्या को देखते हुए लोग उन्हें मोहनदास करमचंद गांधी की जगह महात्मा गांधी के रूप में स्वीकार चुके थे. महात्मा गांधी स्वयं राष्ट्रवाद के प्रतीक बन गये थे. अधिवेशन में जिन्ना ने महात्मा गांधी को मिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी कह कर संबोधित किया.

इसका विरोध हुआ और सभी धर्मों के प्रतिनिधियों ने एक स्वर में कहा कि आप इनको महात्मा गांधी कहिए. उस वक्त गांधीजी को महात्मा गांधी न कहने के पीछे जिन्ना का तर्क था कि महात्मा शब्द में धार्मिकता का भाव आता है. भारत में जो शब्द या मुहावरे बने हैं, वे भारत भूमि की संस्कृति और परंपरा से निकले हैं. महात्मा हम किसी मुसलिम को भी कह सकते हैं, सिख और ईसाई को भी कह सकते हैं. जहां तक इस नारे को कहने की बात है, तो इसे लेकर सड़क पर चलते हुए किसी व्यक्ति से जबरन थोड़ी कहा जा सकता है कि वह इसे कहे ही.

जो लाेग यह कह रहे हैं कि हर भारतवासी को भारत माता की जय कहना चाहिए, तो वे ऐसा अपने भारतीय नागरिक होने के अधिकार के तहत कह रहे हैं, इसमें कुछ भी गलत नहीं है. जो लोग ऐसा कह रहे हैं कि भारत माता की जय का नारा लगाने के लिए उनसे जबरदस्ती की जा रही है, तो मैं समझता हूं कि वे गैर-जरूरी उत्तेजना पैदा करने के लिए ऐसा कह रहे हैं.

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