भारत मां के सौंदर्य का चितेरा शायर

डॉ अल्लामा इकबाल की जयंती पर विशेष शोएब रहमानी एक दौर था जब भारत के हर घर में डॉ अल्लामा इकबाल को हरदिलअजीजी हासिल थी. छोटे और बड़े, जवान और बूढ़े, सबकी जुबान पर उनका तराना था, लेकिन देश के विभाजन के बाद कुछ ऐसे हालात पैदा हुए कि लोगों ने इकबाल को भी बांट […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 9, 2014 4:42 AM
डॉ अल्लामा इकबाल की जयंती पर विशेष
शोएब रहमानी
एक दौर था जब भारत के हर घर में डॉ अल्लामा इकबाल को हरदिलअजीजी हासिल थी. छोटे और बड़े, जवान और बूढ़े, सबकी जुबान पर उनका तराना था, लेकिन देश के विभाजन के बाद कुछ ऐसे हालात पैदा हुए कि लोगों ने इकबाल को भी बांट कर देखना शुरू कर दिया. मीर और गालिब में कौन बड़ा है, यह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन अगर यह कहा जाये कि मीर, गालिब और इकबाल- तीनों चोटी के शायर हैं तो इस पर सभी एकमत हैं.
इकबाल के पूर्वज सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राrाण थे, जो कारोबार के सिलसिले में जम्मू से अविभाजित पंजाब के प्रसिद्ध शहर सियालकोट में आकर बस गये. उनके पूर्वज इकबाल के जन्म से ढाई सौ साल पहले इसलाम धर्म स्वीकार कर चुके थे. इकबाल का जन्म 9 नवंबर 1877 को हुआ और उनकी प्रारंभिक शिक्षा सियालकोट में हुई. अंगरेजी के अतिरिक्त उन्हें उर्दू, फारसी और अरबी का अच्छा ज्ञान हासिल किया. इकबाल मेधावी छात्र थे. सियालकोट से मैट्रिक पास करके वह लाहौर चले आये और वहां गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिल हुए. लाहौर में गोष्ठियों व मुशायरों की धूम रहती थी. धीरे-धीरे इकबाल भी इन मुशायरों में जाने लगे.
इकबाल की शायरी की शुरुआत सन् 1901 से हुई. राष्ट्रीय उभार के प्रारंभिक काल में देश की महानता, विशालता और सौंदर्य का जितना मधुर चित्रण इकबाल ने किया है, कोई दूसरा नहीं कर पाया. इकबाल ने बच्चों के लिए भी बहुत-सी कविताएं लिखीं. उनका ‘तराना-ए-हिंदी’, सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गूंज उठा. एमए पास कर इकबाल 1905 में इंग्लैंड चले गये और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी लंदन में दर्शन पढ़ने लगे. वहां से वह जर्मनी चले गये. वहां उन्होंने ईरान के दर्शन पर एक पुस्तक लिखी, जिसके कारण म्यूनिख यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी.
जर्मनी से लौट कर लंदन में बैरिस्टरी की परीक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने लंदन यूनिवर्सिटी में छह महीने तक अरबी पढ़ायी.
इकबाल 1908 में विलायत से हिंदुस्तान लौटे और गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में पढ़ाने लगे. उन्हें वकालत करने की भी इजाजत थी. 1926 में लाहौर के पंजाब काउंसिल के सदस्य चुने गये. 1931 में उन्होंने गोल मेज कॉन्फ्रेंस में शिरकत की. प्रोफेसर निकल्सन ने उनके फारसी महाकाव्य ‘असरारे खुदी’ का अंगरेजी में अनुवाद किया था. इस ख्याति को देखते हुए अंगरेजी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि दी. इकबाल को किसी एक वैचारिक दायरे में बांधना मुश्किल है. जब वह इसलाम का पुनरुत्थान चाहते थे और मुसलमानों को संबोधित करके लिखते थे, तब भी उन्होंने रामचंद्र, स्वामी रामतीर्थ और गुरु नानक पर कविताएं लिखीं.
21 अप्रैल 1938 ई को अल्लामा इकबाल इस दुनिया से विदा हो गये. लाहौर में उनके नमाज-ए-जनाजा में सत्तर हजार लोगों ने शिरकत की. इकबाल के व्यक्तित्व और उनकी शायरी की विश्वसनीयता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद, नेताजी, टैगोर जैसी हस्तियों ने इकबाल के बड़प्पन का सच्चे दिल से लोहा माना है.
(लेखक अल्लामा इकबाल फाउंडेशन से संबद्ध हैं)

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