हिजला मेला : जनजातीय सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतीक

अरुण सिन्हा जहां से मानव समाज के जीवन में चैतन्य बोध होने की प्रक्रिया शुरू होती है , वहीं से आमोद-प्रमोद की भी शुरुआत होती है. पर्व-त्योहार, मेले इसका अभिन्न अंग हैं. झारखंड के दुमका जिले में हर साल फरवरी में‌ लगनेवाला हिजला मेला संताली जीवन व संस्कृति का आईना है. ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 14, 2020 6:42 AM

अरुण सिन्हा

जहां से मानव समाज के जीवन में चैतन्य बोध होने की प्रक्रिया शुरू होती है , वहीं से आमोद-प्रमोद की भी शुरुआत होती है. पर्व-त्योहार, मेले इसका अभिन्न अंग हैं. झारखंड के दुमका जिले में हर साल फरवरी में‌ लगनेवाला हिजला मेला संताली जीवन व संस्कृति का आईना है.

ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से ऊब कर 1855 में भारत का पहला विद्रोह हुआ जिसे संताल हूल कहा गया. इस हूल ने तत्कालीन सरकार और संताल समाज के बीच एक गहरी खाई बना दी. इसी खाई को पाटने के लिए 1890 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदे जेआर कास्टेयर्स (तत्कालीन उपायुक्त, संताल परगना जिला) ने एक रणनीति बनायी. उसने इस समाज की मानसिकता का अध्ययन किया. पाया कि संताल समाज गीत, संगीत, नृत्य और हाट-मेलों का प्रेमी है.

उसने दुमका के मयूराक्षी नदी के मनोरम तट पर हिजला गांव में मेले का आयोजन करवाया. उसका उद्देश्य संताल समाज से संबंध बेहतर करना था. उसने महसूस किया कि संतालों के नियम-कानूनों, जीवन शैली, कला-संस्कृति और संस्कार-परंपराओं को जानना जरूरी है. इसीलिए ‘उनके कानून’ ( हिज लॉ) को जानने और उसे मान्यता देने के लिए हिजला मेला अपने स्वरूप में आया. यह एक सफल प्रयोग था. बाद में एक और ब्रिटिश अधिकारी मैक्फर्सन ने इसके स्वरूप को विधिक स्वरूप प्रदान करने के लिए एक लिखित दस्तावेज भी तैयार करवाया, जो आज भी सम्यक रूप से लागू है.

इसके बाद तो वास्तव मे यह मेला संताल समाज की संसद बन गया, जहां बैठ कर उनके सर्वांगीण विकास की रूपरेखा तय की जाती थी. 1975 में दुमका के तत्कालीन उपायुक्त जीआर पटवर्द्धन ने इस मेले में ‘जनजातीय’ शब्द जोड़ा और 2008 में झारखंड सरकार ने इसे ‘राजकीय मेला महोत्सव’ घोषित किया.

1890 से 2020 तक, 130 सालों में यह मेला साल-दर-साल समृद्ध हुआ और इसके कई नये आयाम उभरे. अब यहां बीट म्यूजिक भी है और ‘सिंगा’, ‘टमाक’, ‘मांदर’ की गूंज भी. ‘सोगोई सोहर’ भी है, ‘सोहराय’ और ‘बाहा’ गीत भी. आदिवासी जीवन, संस्कृति अौर परंपरा के साथ-साथ ग्रामीण विकास,‌ खेती-किसानी, बागवानी, मछली, रेशम, पशु अौर तसर कीट पालन से लेकर देसी चिकित्सा, खादी ग्रामोद्योग, लघु शिल्प एवं रोजगार के नये अवसरों के सृजन को दर्शाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान सालभर इस मेले‌ का ‌इंतजार करते हैं.

यह मेला एक विशाल सांस्कृतिक संकुल है. एक तरफ जनजातीय और ग्रामीण कलाकारों का जुटान, तो दूसरी अोर आधुनिकता के रंग में रंगे जनजातीय और शहरी कलाकारों का जत्था. इस बार मेले में संताल नृत्य शैलियों की प्रस्तुति का अंदाज बेहद खास नजर आ रहा है.

पारंपरिक परिधानों में रंगों के बहुविध प्रयोग, युवतियों के माथे पर कांसे के कलशों का संतुलन अौर आंगिक लगरों में नृत्य की गतिशीलता ने अद्भुत समा बांधा है. जनजातीय और ग्रामीण नाट्य शैलियां भी मेले में रंग भर रही हैं. कलाकार सामयिक विषयों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यबोध की अपनी समझ भी साझा कर रहे हैं. यह मेला गांव में नाटक खेलने की उस परंपरा को जिंदा रखे हुए, जो कभी समाज के मनोरंजन अौर अभिव्यक्ति की मूल विधा थी, मगर अब लुप्तप्राय है.

मेले‌‌ में पाकुड़ से आयीं सुशीला सोरेन कहती हैं, हमें यहां अपने समाज में हो रहा बदलाव भी दिखता है अौर परंपरा भी दिखती है. सिदो-कान्हू कला-जत्था के अरुण मरांडी जैसे लोक कलाकार तो छह माह से इस मेले की सांस्कृतिक प्रतियोगिता की तैयारी करने लगते हैं. इस‌ मेले‌‌ का यह‌ मोल बचा रहे, यही कामना है.

(लेखक हिजला मेला समिति के सदस्य रहे हैं.)

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