सामाजिक न्याय वाली पार्टियों में सुप्रीमोवाद से नुकसान

खालिद अनीस अंसारी समाजशास्त्री ( खालिद अनीस अंसारी) हाल में आये 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उत्तर प्रदेश और बिहार की सामाजिक न्याय की प्रमुख पार्टियों- सपा, बसपा और राजद को करारा झटका दिया है. ऐसी स्थिति में इन पार्टियों की विचारधारा, रणनीति और सांगठनिक संरचना के स्तर पर सवाल उठना लाजमी है. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 26, 2019 3:15 AM

खालिद अनीस अंसारी

समाजशास्त्री ( खालिद अनीस अंसारी)
हाल में आये 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उत्तर प्रदेश और बिहार की सामाजिक न्याय की प्रमुख पार्टियों- सपा, बसपा और राजद को करारा झटका दिया है. ऐसी स्थिति में इन पार्टियों की विचारधारा, रणनीति और सांगठनिक संरचना के स्तर पर सवाल उठना लाजमी है. इन नतीजों को सामाजिक न्याय की पराजय के तौर पर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इन पार्टियों ने लोहिया की ‘सप्त-क्रांति’, आंबेडकर के ‘जाति-विनाश’ या कांशीराम की ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की व्यापक अवधारणा से काफी पहले से दूरी बना ली थी.
कांशीराम कहते थे कि ‘जिस समाज की गैर-राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं होतीं, उस समाज की राजनीति कामयाब नहीं हो सकती’. सामाजिक आंदोलन और बहुजन जनता के सशक्तिकरण से जुड़े ठोस मुद्दों से रिश्ता तोड़कर इन पार्टियों ने काफी समय से अपने आप को सिर्फ चुनावी अखाड़े तक सीमित कर लिया.
सामाजिक न्याय को महज जातियों के गणित और जोड़-तोड़ से परिभाषित करके पार्टी के अंदर आंतरिक जनतंत्र की जगह नंगा सुप्रीमोवाद और परिवारवाद स्थापित किया.
इसलिए 85 प्रतिशत बहुजन जनता की नुमाइंदगी का दावा करनेवाली पार्टियों में एक तरफ तो भारतीय लोकतंत्र में उभरती हुई नयी आवाजों- अति दलित, अति पिछड़े और पसमांदा के लिए कोई जगह नहीं थी, तो वहीं टिकट के खरीद-फरोख्त की राजनीतिक संस्कृति ने आम कैडर को हतोत्साहित कर दिया.
ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो संघ-भाजपा ने अपने संस्थानों और कैडर के नेटवर्क, बड़ेपूंजीपतियों के आर्थिक सहयोग, जबरदस्त चुनावी मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक/प्रिंट/ सोशल मीडिया स्ट्रेटजी, इत्यादि के जरिये भारतीय समाज में ‘हेजीमोनी’ (या प्राधान्य) स्थापित कर लिया है.
आज पूंजीवाद का संकट और उपभोक्तावाद की चमक-दमक तमाम तरह की असुरक्षाओं और आकांक्षाओं को जन्म देता है. कोई भी राजनीति बिना शत्रु या प्रतिपक्षी की परिकल्पना के मुमकिन नहीं है और जनता की असुरक्षाओं को ‘दक्षिणपंथी’ और ‘प्रगतिशील’ पॉपुलिज्म दोनों दिशा दे सकते हैं.
भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के विमर्श ने एक मजबूत मतदाता वर्ग खड़ा कर लिया है. जहां एक ओर कल्याणकारी योजनाओं के जरिये वंचित तबकों के जीवन की आकांक्षाओं को पूरा करने का सपना परोसा है, वहीं उनकी असुरक्षाओं और कुंठाओं से उपजे आक्रोश को दलित/ मुसलमान/ वामपंथ जैसे आंतरिक या पाकिस्तान जैसे बाहरी शत्रुओं की तरफ मोड़ दिया है.
संघ-भाजपा का नैरेटिव मजबूत जरूर है, लेकिन फूलप्रूफ नहीं. कॉर्पोरेट जगत और सवर्ण हितों की रक्षा करती हुई संघ-भाजपा की राजनीति हमेशा अंतर्विरोधों का शिकार रहेगी. उनकी तथाकथित सामाजिक समावेश एवं समरसता पर आधारित नीतियों की सीमाएं हैं. अगर बहुजन तबके संघ-भाजपा के वर्चस्व को सिर्फ चुनावी दायरे में तोड़ने की सोचेंगे, तो कभी कामयाब नहीं होंगे.
उन्हें सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दायरे में भी चुनौती देनी पड़ेगी. लोहिया कहते थे कि ‘अगर सड़कें खामोश हो जायें, तो संसद आवारा हो जायेगी’. बहुजन पार्टियां अपने प्रतिपक्षी संघ-भाजपा की रणनीति का गहराई से अध्ययन करें और सड़क पर उतरें. क्या सपा, बसपा या राजद ऐसा करने की स्थिति में हैं?

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