ईद-ए-मीलादुन्नबी : पैगाम-ए-इंसानियत का द्योतक

डॉ मुश्ताक अहमद प्रधानाचार्य-सीएम कॉलेज, दरभंगा rm.meezan@gmail.com ई द-ए-मीलादुन्नबी का शाब्दिक अर्थ हजरत मोहम्मद के पैदाइश की खुशी है. यानी मुसलमान अपने पैगंबर के जन्मदिन को ईद-ए-मीलादुन्नबी के रूप में मनाने लगे हैं. दरअसल, हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम के जन्मदिन को ईद के रूप मे मनाने का मकसद यह है कि उन्होंने जो पूरी मानवता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 17, 2018 2:30 AM
डॉ मुश्ताक अहमद
प्रधानाचार्य-सीएम कॉलेज, दरभंगा
rm.meezan@gmail.com
ई द-ए-मीलादुन्नबी का शाब्दिक अर्थ हजरत मोहम्मद के पैदाइश की खुशी है. यानी मुसलमान अपने पैगंबर के जन्मदिन को ईद-ए-मीलादुन्नबी के रूप में मनाने लगे हैं. दरअसल, हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम के जन्मदिन को ईद के रूप मे मनाने का मकसद यह है कि उन्होंने जो पूरी मानवता के लिए पैगाम दिये हैं, उसको आम करना. साथ ही इस्लाम धर्मालंबी अपने कर्तव्यों का स्वयं एहतेसाब (आकलन) करें कि क्या आज मुसलमान उन उसूलों को अपना कर जीवन व्यतीत कर रहा है.
मानवीय मूल्यों की रक्षा ही इस्लाम की पहचान : ज्ञात हो कि इस्लाम धर्म की बुनियाद दो चीजों पर है- पहला कुरआन शरीफ है, जो अल्लाह की तरफ से पूरी मानवता के लिए राहनुमा है और दूसरा हदीस है, जो हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम ने इस्लाम मजहब के मानने वालों को संपूर्ण जीवन मानवीय आधार पर जीने के लिए बताया.
इस्लाम धर्म में इस बात की वकालत की गयी है कि सबसे बड़ा धर्म इंसानियत की हिफाजत है. मानवीय मूल्यों की रक्षा ही इस्लाम की पहचान है. यदि कोई मुसलमान कुरआन और हदीस के बताये हुए रास्ते से अलग है, तो वह मुसलमान नहीं हो सकता. इसलिए इस्लाम धर्म में हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम के जीवन एवं आचरण को अपनाना अनिवार्य करार दिया गया है, जिसे सुन्नत कहते हैं.
यहां इस्लाम धर्म किस प्रकार सामाजिक सरोकार और मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाता है, उसकी एक मिसाल देना चाहता हूं. हजरत मोहम्मद साहब ने फरमाया कि यदि तुम्हारा पड़ोसी भूखा है, तो तुम पर खाना हराम है. यहां यह नहीं कहा गया कि तुम्हारा पड़ोसी मुसलमान हो. पड़ोसी किसी भी मजहब का हो, यदि वह भूखा है, तो इस्लाम धर्म के मानने वालों के लिए यह अनिवार्यता है कि वह पहले अपने पड़ोसी को खाना खिलाये.
इसी तरह मुसाफिरों के बारे में भी कहा गया है कि यदि कोई मुसाफिर तुम्हारे घर आता है, तो पहले उसे खाना खिलाओ. यहां भी धर्म, जाति या पंथ की बात नहीं कही गयी है. शिक्षा के संबंध में भी यही शर्त रखी गयी है कि किसी भी धर्म के बारे में गलत नजरिया नहीं रखा जाये और किसी भी धर्म को बुरा नहीं कहा जाये, बल्कि जितने भी धर्म हैं उसकी शिक्षा हासिल की जाये, ताकि एक-दूसरे धर्म के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहे.
हदीस में बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है कि अपना अख्लाक ऊंचा रखो, यानी किसी के भी साथ बदएखलकी नहीं बरतो. यहां तक कि बुलंद आवाज (ऊंची आवाज) में बोलने की भी मनाही है.
सामाजिक बुराइयों को दूर करना इबादत के बराबर : सामाजिक बुराइयों को दूर करने को इबादत का दर्जा दिया गया है. इसलिए इस्लाम में किसी भी प्रकार के नशापान करने की इजाजत नहीं है. सामाजिक बुराइयों में दहेज प्रथा को लानत कहा गया है. लड़की के जन्म को शुभ माना गया है. सूदखोरी (ब्याज पर लेन-देन) को हराम करार दिया गया है.
हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम ने फरमारया और अमली जिंदगी जी कर भी दिखाया कि यदि कोई बुरा है, तो उससे केवल इस लिए नफरत नहीं करना है कि उसके अंदर बुराई है, बल्कि उसके साथ भी हमारा रवैया अखलाकी और रहम का होना चाहिए. यहां एक मिसाल काफी है-
हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम मक्का में जिस रास्ते से गुजरते थे, उस रास्ते में एक बूढ़ी औरत जो इस्लाम धर्म को माननेवाली नहीं थी, रोज रास्ते पर कूड़ा फेंक देती थी और हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम उसे रोज साफ करते थे. एक दिन रास्ते पर कोई कूड़ा नजर नहीं आया तो हजरत मोहम्मद साहब ने मालूम किया कि रास्ते पर कूड़ा नहीं है आखिर क्यों? उनको बताया गया कि जो बूढ़ी औरत रास्ते पर कूड़ा फेंकती थी, वह बहुत बीमार है.
यह सुनकर वे उस बूढ़ी के घर गये और अयादत की और उनके अच्छे होने की दुआ भी की. जब वह बूढ़ी बीमारी से छुटकारा पा गयी तो उसने इस्लाम धर्म को अपना लिया. महज इसलिए कि हजरत मोहम्मद साहब ने उसके साथ जो इंसानी रवैया अपनाया, वह उसे मुताअस्सिर कर गया. हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम का यह आचरण पैगाम देता है कि इंसानी हमदर्दी ही सबसे बड़ा धर्म है.
इस्लाम में जात-पात उसूलों के खिलाफ
इस्लाम में कहीं भी जात-पात का जिक्र नहीं है, लेकिन सच्चाई यह है कि आज मुस्लिम समाज में भी जात-पात का चलन हो गया है, जो इस्लाम धर्म के उसूलों के खिलाफ है. इसी प्रकार शराबनोशी (नशा), दहेज प्रथा, सूदखोरी का चलन भी आम हुआ है. इससे इस्लाम धर्म का चेहरा दागदार हुआ है.
इसलिए ईद-ए-मीलादुन्नबी का जश्न मनाने वालों के लिए यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि वह हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम के उपदेश के साथ कुरआन और हदीस में जीवन जीने के जो तरीके बताये गये हैं, उन पर अमल करें. जब कोई मुसलमान कुरआन और हदीस की रोशनी में जीवन व्यतीत करेगा, तो वह एक मिसाली इंसान बन सकता है. गालिब ने कहा था-
‘बस के दुश्वार है हर काम का आसां होना,
आदमी को भी मययस्सर नहीं इन्सां होना.’
इन रास्तों पर चलकर ही होगा यह जश्न सार्थक
सही मायने में जब कोई आदमी अपने कार्यकलाप एवं आचरण की बदौलत इंसान बन जाता है, तो वह पूरी इंसानी बिरादरी अर्थात मानवता का रक्षक बन जाता है, मगर अफसोस है कि आज धर्म के नाम पर जिस तरह की सियासत हो रही है, उसने धर्म के मूल्यों को ही समाप्त कर दिया है. नतीजा है कि इंसानी बिरादरी के लिए हर तरफ तबाही का सामान पैदा किया जा रहा है.
इसलिए ईद-ए-मीलादुन्नबी का जश्न उसी समय सार्थक हो सकता है, जब हम इस्लाम मजहब के मानने वाले हजरत मोहम्मद स-अलैहे वसल्लम के बताये हुए रास्ते पर चलें और अपने आचरण से यह साबित करें कि हम उनके पैगाम को फैलानेवाले हैं, जो पैगाम पूरी मानवता के लिए एक मशाल की हैसियत रखता है. इसलिए अल्लामा इकबाल ने कहा है –
‘आज भी हो जो ब्राहीम-सा ईमां पैदा,
आग कर सकती है अंदाजे गुलिस्तां पैदा’

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