तोलोंग सिकि और कुड़ुख भाषा का विकास

II महादेव टोप्पो II देखा गया है भारत में आधिकांश भाषाओं का विकास अंग्रेजों के आगमन के बाद ही हुआ है. चूंकि अंग्रेजों के आने बाद ही भारत में छापाखानों का प्रचलन बढ़ा और अंग्रेज अधिकारी विद्वानों के शोध एवं अध्ययन से आधुनिक भारतीय भाषा हों या आदिवासी भाषाएं, विकास का अवसर मिला. इसी समय […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 20, 2018 5:07 AM
II महादेव टोप्पो II
देखा गया है भारत में आधिकांश भाषाओं का विकास अंग्रेजों के आगमन के बाद ही हुआ है. चूंकि अंग्रेजों के आने बाद ही भारत में छापाखानों का प्रचलन बढ़ा और अंग्रेज अधिकारी विद्वानों के शोध एवं अध्ययन से आधुनिक भारतीय भाषा हों या आदिवासी भाषाएं, विकास का अवसर मिला. इसी समय कई भाषाओं के साथ कुड़ुख को भी अपनी आरंभिक रचना प्रक्रिया से गुजरना पड़ा.अतः, इसका आरंभिक साहित्य रोमन लिपि में लिखा गया फिर देवनागरी लिपि में है.
जैसे संताली भाषा के लिए ओल चिकि के आविष्कारक रघुनाथ मुर्मू ने प्रचुर मात्रा में साहित्य रचा था. साथ ही इस लिपि की शिक्षण-विधि इस तरह विकसित की गयी कि जो भी इसे पढ़ेगा वह संताली जीवन, संस्कृति व अध्यात्म से गहरे जुड़ जायेगा.
यही कारण है कि जो लोग लिपि में आधुनिकता और वैज्ञानिकता का रोना रोते हैं वे इस लिपि को पसंद नहीं करते. हांसदा सोवेन्द्र शेखर के अंग्रेजी किताब के कवर में ओलचिकी के प्रयोग पर ऐसे ही लोगों को आपत्ति थी. ऐसा ही कुछ मतभेद कुड़ुख में आविष्कृत पिछले छह लिपियों को लेकर थी. लेकिन, अब दो राज्य सरकारों द्वारा मान्यता मिल जाने के बाद विद्वानों में मतभेद कम हुआ है.
इस वर्ष मातृभाषा दिवस के अवसर पर बंगाल सरकार नें तोलोंग सिकि (लिपि) में लिखी जानेवाली कुड़ुख को सरकारी प्रयोग के लिए मान्यता दे दी है. इस तरह तोलोंग सिकि को एक नयी पहचान एवं मान्यता मिल गयी है. लेकिन, भाषा-वैज्ञानिकता के आधार पर तथा कई देशी-विदेशी विद्वानों के सहमति मिलने, कई प्रकार के संशय दूर होने से अब तोलोंग सिकि की स्वीकार्यता बढ़ गयी है.
अतः रातू, सिसई, घाघऱा, विशुनपुर, मांडर के अलावा रांची के कुछ शिक्षण-केंद्रों विद्यालयों में तोलोंग सिकि से कुड़ुख की पढ़ाई हो रही है, वहां खुशी की लहर है. इसके अलावा लूर डिप्पा स्कूल में कुड़ुख की पढ़ाई होती है. साथ ही झारखंड सरकार द्वारा आयोजित दसवीं की परीक्षा में तोलोंग सिकि में लिखने की अनुमति प्रदान की गई है.
लेकिन रांची विश्विद्यालय में इस लिपि में पढ़ाई शुरू नहीं की जा सकी है. फिर भी विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए ही सही, एक नई पीढ़ी- तोलोंग सिकि में शिक्षित हो रही है. कुड़ुख पत्रिका ‘कुड़ुख डहरे’ के संपादक डॉ हरि उरांव ने कहा कि अधिक से अधिक लेखक इस लिपि में लिखेंगे तो उन्हें खुशी होगी.
इसी तोलोंग सिकि के विकास की कहानी ‘लकीरें बोलतीं है’ डोक्यूमेंट्री फिल्म में दर्शाया गया है. इस फिल्म को झारखंड के पत्रकार किसलय ने बनाया है. किसलय ने एक और महत्वपूर्ण काम यह किया है कि उन्होंने इस लिपि के फॉन्ट का विकास कंप्यूटर में उपयोग के लिए किया.
एमबीबीएस डॉ नारायण उरांव ने अक्षर एवं लिपि बना लिया था लेकिन इस नव-आविष्कृत लिपि के विकास में कई तरह की बाधाएं थीं. इसकी तकनीकी जटिलताओं को किसलय ने अपनी कड़ी मेहनत से आसान और कंप्यूटर-फ्रेंडली बनाया.
डॉ नारायण उरांव बताते हैं कि कई तरह के प्राकृतिक कार्य घड़ी की विपरीत दिशा में होतीं हैं. आदिवासी इसी से प्रेरित होकर अपने कई कार्य जैसे हल चलाना, जाता से पीसने, पूर्वजों को जल अर्पित करने आदि घड़ी की विपरीत दिशा में करते हैं.
अतः, उन्होंने जिस लिपि का आविष्कार किया है वह भी ऐसे ही लिखी जाती है. यह लिपि कुड़ुखों द्वारा नृत्य के समय पहने जाने वाले परिधान ‘तोलोंग’ से प्रेरित है. यह बारह हाथ का लंबा कपड़ा होता है जिसे कमर पर कई बार घुमा फिराकर बांधा, पहना जाता है. डॉ नारायण बताते हैं कि यह लिपि इसी प्रक्रिया से प्रेरित है.
इसी कारण इसका नाम तोलोंग सिकि यानी तोलोंग लिपि रखा गया. इस लिपि के विकास के लिए इस एमबीबीएस डॉक्टर ने कई भाषाविदों से लंबी बात-चीत की और विचार विमर्श किया, भाषा-विज्ञान की कई किताबें पढ़ीं. केंद्रीय भाषा संस्थान, मैसर के भाषाविद् स्वर्गीय डॉ फ्रांसिस एक्का तथा देश के कई भाषा वैज्ञानिकों से भी विमर्श किया. उन्होंने डॉ रामदयाल मुंडा से भी विमर्श किया था. रामदयाल मुंडा इस लिपि की वैज्ञानिकता से प्रभावित थे और उन्होंने कहा था कि इस लिपि के माध्यम से झारखंड की समस्त आदिवासी भाषाएं लिखी जा सकती हैं.
किसलय ने बताया कि यह शीघ्र ही यूनिकोड प्रारूप में कंप्यूटर में प्रयोग के लिए उपलब्ध हो जाएगा. आशा की जानी चाहिए कि तब यह उपयोग के लिए सरल हो जायगी और कंप्यूटर, मोबाइल प्रेमी युवा पीढ़ी के बीच ज्यादा लोकप्रिय हो सकेगी.
जैसे ओल चिकी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए गांव-गांव में हजारों कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर ओलचिकि में लिखना पढ़ना सिखाया गया. लगभग यही चुनौती तोलोंग सिकि के पास है कि वह अधिक से अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए क्या करें. जिस तरह तोलोंग लिपि के विकास के लिए फिल्म बनायी गयी.उसी तरह इसके शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए एक प्रशिक्षण सामग्री तैयार की जाय और उसे यू-ट्यूब के माध्यम से या किसी अन्य तरीके से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जाय. एक और चुनौती कुड़ुख भाषियों के पास है कि इस लिपि में किताबों की मात्रा कम है, पत्रिकाएं भी कम हैं.
यह तब और लोगों तक ज्यादा पहुंच सकता है जब इस भाषा के विद्वान, लेखक आदि अधिक से अधिक किताबें विभिन्न विषयों पर लिखें. रेडियों टी.वी. व नए एफ एम चैनलों में अपने लिए स्थान ढूंढ़े जैसा कि संताली में झाड़ग्राम बंगाल के एक एफ एम चैनल से दो घंटे का कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है.
वे स्थानीय अखबारों में कुड़ुख भाषा के लिए कॉलम या फिर रेडियो या दूरदर्शन में कुड़ुख भाषा के लिए कार्यक्रम आयोजित हों तो इसके विकास में सहयोग हो सकेगा. सरकार की भी यह जिम्मेवारी है कि वह स्थानीय भाषा संस्कृति के संरक्षण व विकास के लिए कार्यक्रम निर्धारित करे क्योंकि इसी लक्ष्य के तहत आकाशवाणी, दूरदर्शन द्वारा स्थानीय, आदिवासी भाषा में कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं.
लेकिन, सबसे बड़ी पहल यह होगी कि कुड़ुख भाषा के लेखक, विद्वान, शिक्षक, शोधकर्ता विभिन्न विषयों पर अधिक से अधिक लिखने के साथ अनुवाद कर विपुल मात्रा में कुड़ुख साहित्य का रचना-भंडार भरें.

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