बैंकों पर फंसे कर्ज का बढ़ता बाेझ क्या निजीकरण ही है उपाय!

घोटालों, फर्जीवाड़ों और डूबे कर्जों की राशि के बढ़ते जाने के मौजूदा हालात में सरकारी क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के पक्ष में कई आवाजें उठने लगी हैं. लेकिन जानकारों का एक बड़ा वर्ग इस कदम को सही समाधान के रूप में स्वीकार नहीं करता है. उनका कहना है कि सरकारी बैंकों के प्रबंधन में […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 8, 2018 1:24 AM

घोटालों, फर्जीवाड़ों और डूबे कर्जों की राशि के बढ़ते जाने के मौजूदा हालात में सरकारी क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के पक्ष में कई आवाजें उठने लगी हैं. लेकिन जानकारों का एक बड़ा वर्ग इस कदम को सही समाधान के रूप में स्वीकार नहीं करता है. उनका कहना है कि सरकारी बैंकों के प्रबंधन में सुधार तो जरूरी हैं, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बैंकों की ज्यादातर मुश्किलें निजी क्षेत्र के कॉरपोरेट जगत की वजह से ही पैदा हुई हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली पहले ही निजीकरण के विचार को यह कह खारिज कर चुके हैं कि इसके लिए व्यापक राजनीतिक सहमति की जरूरत है और अभी इसके लिए माकूल माहौल नहीं है. बैंकों की समस्याओं और निजीकरण से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के साथ इन-दिनों की यह प्रस्तुति…

निजीकरण नहीं, प्रभावी विनियमन है वक्त की मांग
हीरा व्यवसायी नीरव मोदी व मेहुल चोकसी के हित में पंजाब नेशनल बैंक के कुछ कर्मियों द्वारा हजारों करोड़ रुपये के फर्जी लेन-देन की खबर जब से आम हुई, कुछ उद्योग संघों ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की मांग शुरू कर दी. हम वस्तुतः एक विचित्र-से वक्त में रह रहे हैं, जब ये उद्योग संघ देश से फरार चल रहे तथाकथित उद्योगपतियों की निंदा में तो एक शब्द नहीं कहते, पर उनके द्वारा किये गये वित्तीय फर्जीवाड़े का समाधान सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण में बताते हैं.
केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी सार्वजनिक बैंकों में और अधिक निजी भागीदारी की वकालत की है. उनकी यह सोच है कि बैंकों के और अधिक निजीकरण से ही जांच-पड़ताल, निगरानी और ऋणों का अनुशासित उपयोग सुनिश्चित किया जा सकेगा. वे यह भी समझते हैं कि आदर्शतः निजी क्षेत्र को न्यूनतर सार्वजनिक उधार मिलने चाहिए और यह उद्देश्य भी अधिक निजीकरण से ही सध सकता है.
निजी बैंक भी रोगग्रस्त
उपर्युक्त दोनों मतों को चुनौती दी जा सकती है. पीएनबी के फर्जीवाड़े के तुरंत बाद अब आईसीआइसीआई बैंक द्वारा भी अनियमितताओं की रिपोर्ट मिल रही है. विडियोकॉन इंडस्ट्रीज को 3,000 करोड़ रुपयों के ऋण स्वीकृत करने में ‘हित टकराव’ के गंभीर आरोप लगे हैं, क्योंकि इस निजी बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) चंदा कोचर के पति तथा बहनोई की वीडियोकॉन के प्रवर्तक वेणुगोपाल धूत के साथ उनके अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में सहभागिता की व्यापक खबरें सामने आयी हैं.
इससे यह तो साफ होता ही है कि केवल निजी बैंक होने से ही उसके द्वारा बेहतर निगरानी और ऋणों का अधिक अनुशासित वितरण सुनिश्चित नहीं हो जाता. उसके लिए बैंकों समेत सभी वित्तीय संस्थानों के विनियमन की एक स्वस्थ प्रणाली ही चाहिए. समस्या केवल प्रभावी व कठोर विनियमन की कमी की है और इन बुराइयों को बैंकों के निजीकरण द्वारा संबोधित करने की बात करना कुछ वैसा ही है, जैसा दस्त के मरीज को सर्दी-खांसी की दवा देना.
यह विचार भी विवादास्पद है कि निजी क्षेत्र को न्यूनतर सार्वजनिक ऋण या दूसरे शब्दों में, निजी क्षेत्र को अधिक निजी ऋणों से फर्जीवाड़े की समस्या नियंत्रित हो सकेगी. पहली बात यह कि निजी बैंकों द्वारा निजी कॉरपोरेट क्षेत्र को ऋणों का वितरण उन्हें सार्वजनिक बैंकों द्वारा दिये जानेवाले ऋण की अपेक्षा काफी सीमित है. वर्ष 2017 में निजी क्षेत्र के बैंकों ने प्राथमिकता क्षेत्र को 6.52 लाख करोड़ रुपये के ऋण दिये, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से उन्हें उससे तीन गुने से भी अधिक यानी लगभग 19.60 लाख करोड़ रुपये के ऋण हासिल हुए.
सार्वजनिक बैंकों का अहम योगदान
इसी वर्ष गैर प्राथमिकता क्षेत्र को भी सार्वजनिक बैंकों द्वारा निजी बैंकों की अपेक्षा दोगुने से भी अधिक ऋण दिये गये. निजी बैंकों द्वारा दी गयी यह ऋणराशि जहां 14.53 लाख करोड़ रुपये थी, वहीं सार्वजनिक बैंकों ने इस मद में 31.82 लाख करोड़ रुपये दिये. इस तरह यह स्पष्ट है कि हमारी अर्थव्यवस्था के लिए निजी बैंकों की बनिस्पत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ज्यादा बड़े ऋण प्रदाता हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक बैंक बड़े स्तर पर कार्यरत हैं और उनकी शाखाएं भी बड़ी तादाद में हैं, सो उनके द्वारा ऋण देने की मात्रा भी बहुत ज्यादा है. इसलिए इस परिदृश्य पर आनुपातिक दृष्टि डालने पर ही सच्ची तस्वीर सामने आ सकती है. यह सही है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पूरे देश में फैले हैं और वे निजी क्षेत्र से कहीं अधिक शाखाएं खोलते हैं,
पर यही तो इन बैंकों का गुण है, क्योंकि उन पर वित्तीय समावेशन की जिम्मेदारी है, न कि उन्हें केवल मुनाफा कमाने वाला संस्थान बनना है. और यही वह चीज भी है, जो उनके निजीकरण की किसी भी कोशिश के विरुद्ध सहज ही सबसे सशक्त दलील बनती है. निजी बैंक न तो ग्रामीण क्षेत्रों में जाना चाहेंगे, न ही वे सार्वजनिक बैंकों की भांति शाखाएं खोलेंगे.
कायम है जमाकर्ताओं का भरोसा
सार्वजनिक बैंकों में दूसरे सबसे बड़े बैंक पीएनबी के इस वाकये के बावजूद इसके जमाकर्ताओं में न तो कोई आतंक दिखा, न ही इस बैंक से हटने की कोई प्रवृत्ति नजर आयी. इसकी केवल एक ही वजह थी कि जमाकर्ताओं में इन सार्वजनिक बैंकों के लिए अंतर्निहित सरकारी गारंटी को लेकर यह भरोसा रहा है कि यदि ये बैंक बुरी तरह विफल भी हो जाएं, तो सरकार हस्तक्षेप कर इन्हें संकट से उबार लेगी. यह स्थिति वर्ष 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पूर्व की स्थिति से बिल्कुल विपरीत है,
जब निजी बैंकों की विफलता के प्रतिवर्ष औसतन 35 मामले सामने आ रहे थे. यहां तक कि 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था में लाये गये व्यापक सुधारों के बाद भी ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, टाइम्स बैंक, तथा सेंचूरियन बैंक जैसे कई निजी बैंक ध्वस्त हुए और फिर सार्वजनिक बैंकों के साथ उनका विलय किया गया. यह कहने की जरूरत नहीं कि इन बैंकों को लगे घाटे अंततः सार्वजनिक बैंकों को झेलने पड़े.
आज भी कुछ निजी बैंकों में गैर उत्पादक परिसंपत्तियों की खासी मात्रा एकत्र है और उनमें भी कुछ बैंक निजी क्षेत्र के कर्जखोरों को असुरक्षित ऋण देने के अलावा पीएनबी की ही भांति वर्तमान ऋणों को चक्रित करते जाने के खेल में भी लगे हैं. सार्वजनिक बैंकों के मामलों में तो सरकार एक हितभागी के रूप में हस्तक्षेप कर सकती है, पर इन निजी बैंकों में अधिकतर तो अपने परिचालन मामले में काफी अस्पष्ट भी हैं.
सार्वजनिक तथा निजी दोनों ही बैंकों के बैलेंस शीटों में जानबूझकर चूककर्ता बने लोगों की भरमार है. इसलिए यह मान लेना कि बैंकिंग उद्योग की सभी बुराइयों की रामबाण दवा निजीकरण है, बचकाना ही होगा.
यही वक्त है कि बैंकों सहित सभी वित्तीय संस्थानों के प्रभावी विनियमन एवं सतत पर्यवेक्षण की व्यवस्था लागू की जाये. ऐसे बैंक फर्जीवाड़ों की संभावनाएं न्यूनतम करने हेतु विनियमन प्रक्रियाओं को कठोरतर बनाना जरूरी होगा, केवल तभी बैंक अधिक पारदर्शी तथा जिम्मेदार हो सकेंगे. जान-बूझकर पुनर्भुगतान में बार-बार चूक करनेवालों के नाम सार्वजनिक किये जाने चाहिए और उन्हें पर्याप्त काल के लिए काली सूची में डाला जाना चाहिए. दंड के ऐसे विधानों के क्रियान्वयन हेतु एक पारदर्शी तंत्र का सृजन भी होना चाहिए. इसकी बजाय, वर्तमान वित्तीय फर्जीवाड़ों के बहाने सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करना बैंकिंग क्षेत्र के वर्तमान संकट को और गंभीर बनाना होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)
सरकारी बैंकों की हालत निजी बैंकों से ज्यादा खराब
71 प्रतिशत से घट कर 69 प्रतिशत पर पहुंच गया मार्च, 2016 से मार्च, 2017 के बीच राज्य संचालित बैंकों द्वारा दिये गये ऋण का हिस्सा, भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक.
58.66 लाख करोड़ रुपये पहुंच गयी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की अग्रिम 31 मार्च, 2017 तक. यह अग्रिम वित्त वर्ष 2016 के 58.27 लाख करोड़ रुपये से 0.7 प्रतिशत अधिक थी.
84.7 लाख करोड़ रुपये रही बैंकिंग क्षेत्र की कुल अग्रिम मार्च 2016 के अंत तक, जो बकाया राशि से 3.6 प्रतिशत अधिक थी.
22.6 लाख करोड़ रुपये थी निजी बैंकों की बकाया राशि 31 मार्च, 2017 तक. यह राशि पिछले वर्ष के 19.74 लाख करोड़ रुपये से 14.5 प्रतिशत अधिक थी.
8.7 प्रतिशत की कमी के साथ 3.44 लाख करोड़ रुपये रही विदेशी बैंकों की अग्रिम.
87 प्रतिशत रही गैर निष्पादित परिसंपत्तियां, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की, 31 मार्च, 2017 तक.
6.85 लाख करोड़ रुपये (परिसंपत्तियों का लगभग 12 प्रतिशत) पर पहुंच गयी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कुल सकल गैर निष्पादित परिसंपत्तियां वित्त वर्ष 2017 के अंत तक. ये परिसंपत्तियां 31 मार्च, 2016 के 5.4 लाख करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों के मुकाबले 9 प्रतिशत अधिक है.
12 प्रतिशत रही वित्त वर्ष 2017 में कुल सकल गैर निष्पादित परिसंपत्तियों में निजी बैंकों की हिस्सेदारी, जबकि वित्त वर्ष 2016 में यह हिस्सेदारी 9 प्रतिशत थी. इस दौरान निजी बैंकों की सकल गैर निष्पादित परिसंपत्तियों का अनुपात 2.8 प्रतिशत से बढ़कर 4 प्रतिशत पर पहुंच गया.
कुछ प्रमुख बैंकों का एनपीए
भारतीय स्टेट बैंक
188,068
पंजाब नेशनल बैंक
57,721
बैंक ऑफ इंडिया
51,019
आईडीबीआई बैंक
50,173
बैंक ऑफ बड़ौदा
46,173
आईसीआईसीआई बैंक 43,148
केनरा बैंक
37,658
यूनियन बैंक ऑफ इंडिया
37,286
इंडियन ओवरसीज बैंक 35,453
सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया 31,398
यूको बैंक
25,054
ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स 24,409
एक्सिस बैंक
22,031
कॉरपोरेशन बैंक
21, 713
इलाहाबाद बैंक
21,032
सिंडिकेट बैंक
20,184
आंध्रा बैंक
19,428
बैंक ऑफ महाराष्ट्र
18,049
देना बैंक
12,994
यूनाईटेड बैंक ऑफ इंडिया 12,165
इंडियन बैंक
9,653
एचडीएफसी बैंक
7,243
बैड लोन में आईडीबीआई शीर्ष पर
फंसे हुए कर्ज यानी बैड लोन के मामले में आईडीबीआई बैंक सूची में सबसे ऊपर है. इस बैंक के कुल ऋण का एक चौथाई हिस्सा फंसे हुए कर्ज में तब्दील हो चुका है. इंडियन ओवरसीज बैंक, यूको बैंक, व यूनाईटेड बैंक ऑफ इंडिया के कुल ऋण का पांचवां हिस्सा फंसे हुए कर्ज में बदल गया है.
बैंक फंसा हुआ कर्ज (कुल कर्ज का)
इंडियन ओवरसीज बैंक 21.95 प्रतिशत
यूको बैंक 20.64 प्रतिशत
यूनाईटेड बैंक ऑफ इंडिया 20.1 प्रतिशत
सार्वजनिक क्षेत्र के कम से कम छह बैंक ऐसे हैं, जिनका कुल फंसा हुआ कर्ज 15 प्रतिशत से अधिक लेकिन 20 प्रतिशत से कम है. वहीं आठ बैंक ऐसे हैं जिनके फंसे हुए कर्ज का प्रतिशत 10 से 15 के बीच है. इसका अर्थ यह हुआ कि सार्वजनिक क्षेत्र के महज तीन बैंक ही ऐसे हैं जिनके कुल फंसे हुए कर्ज की राशि 10 प्रतिशत से कम है. विजया बैंक के पास सबसे कम फंसे हुए कर्ज की राशि है. इस बैंक का बैड लोन 6.17 प्रतिशत है.
16.02 प्रतिशत एनपीए में तब्दील हो चुकी हैं आईडीबीआई बैंक के कुल ऋण की राशि. यह अकेला सरकारी बैंक है, जिसके कुल एनपीए की राशि 15 प्रतिशत से अधिक है.
10 प्रतिशत से अधिक व 13.08 प्रतिशत तक के एनपीए वाले बैंक में सात सरकारी बैंक शामिल हैं.
3.3 प्रतिशत एनपीए के साथ इंडियन बैंक इस सूची में सबसे नीचे है.
तो समाधान क्या है
इसका समाधान पांच बिंदुओं में समझा जा सकता है.
भारत में सरकारी और निजी बैंकों का एक सही मिश्रण ही कारगर साबित होगा, एकतरफा झुकाव ठीक नहीं है.
परफॉर्मेंस मेट्रिक्स (प्रदर्शन मापदंड) कड़े करके ही गलत ऋण देने की प्रथाओं पर अंकुश लग सकेगा. लगातार वैसा करने से ही हजम करने योग्य से अधिक एनपीए प्रतिशत हो गया है.
सरकारी बैंक में सरकार की अंशधारिता घटाकर 50 प्रतिशत तक लायी जाये. सारे सरकारी बैंकों को एक ही बैंक होल्डिंग कंपनी के तहत लाकर पूंजी उगाहने के काम को और कुशल बनाया जाये.
आरबीआई को वास्तविक शक्तियां दी जायें, जिसमें खामियों के अनुपात में दंड लगा सके. इसके अभाव में सारे ऑडिट व्यर्थ हैं.
घोटालेबाजों से निबटने हेतु कानूनों में अामूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है.

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