मृत्यु के सभी रूप जानलेवा नहीं

मार्कण्डेय शारदेय (ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ) ज न्म कुण्डली के द्वितीय और सप्तम भावों को विशेष मारक माना गया है. अष्टम, द्वादश और षष्ठ भाव भी इसी तरह के हैं. पुनश्च, अन्य ग्रहयोगों के कारण भी मारकता देखी जाती है. प्रबुद्ध ज्योतिषी जब मारकेशों की महादशा-अंतर्दशा में लोगों को सावधान करते हैं, तो लोग काफी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 23, 2017 8:13 AM
मार्कण्डेय शारदेय (ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)
ज न्म कुण्डली के द्वितीय और सप्तम भावों को विशेष मारक माना गया है. अष्टम, द्वादश और षष्ठ भाव भी इसी तरह के हैं. पुनश्च, अन्य ग्रहयोगों के कारण भी मारकता देखी जाती है.
प्रबुद्ध ज्योतिषी जब मारकेशों की महादशा-अंतर्दशा में लोगों को सावधान करते हैं, तो लोग काफी डर जाते हैं. दरअसल, सुश्रुत ने अथर्वा के अनुसार मृत्यु के जो 101 रूप बताये हैं, वे सब के सब जानलेवा नहीं हैं. केवल काल संज्ञक को ही असली माना है. शेष तो त्रिदोषों के कारण रोग आदि के रूप में हैं और उनका चिकित्सकों द्वारा औषधियों से तथा पुरोहितों द्वारा मंत्रों से समुचित उपचार होने पर दूर हो जाते हैं –
दोषागन्तुज-मृत्युभ्यो रस-मन्त्र-विशारदौ।
रक्षेतां नृपतिं नित्यं यत्नाद् वैद्य-पुरोहितौ।।
ऐसे भी रोगों की उपस्थिति में डॉक्टर-वैद्य की सलाह के मुताबिक दवाओं का सेवन तथा परहेज करना ही पड़ता है. कुछ लोग दवा और दुआ दोनों की बात करते हुए धार्मिक उपचार को भी साथ-साथ लेकर चलते हैं. दोनों प्रक्रियाओं का उपयोग सुश्रुत के मत से भी अनुकूल ही है. काल आने पर कोई दवा-दुआ काम नहीं करती, नहीं तो बड़े-बड़े समर्थशाली कभी नहीं मरते. बड़े-बड़े डाक्टरों को बुला लें, लाखों-लाख मंत्रों का जप करा लें, परंतु असली मृत्यु आ गयी तो कोई नहीं बचा सकता. बचाव केवल मृत्युजन्य स्थितियों में ही होता है. जिसका जीवन शेष है, उसके बचने के रास्ते निकल आते हैं और चिकित्सकों-पुरोहितों का यश बढ़ जाता है.
ज्योतिष भी ग्रहों की मारकता को अवश्यम्भावी मृत्यु की घोषणा नहीं करता. कारण यह है कि आयु का निर्णय बहुत कठिन है, फिर भी उसके अनुसार विकल्पों की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता. इसीलिए यहां आठ प्रकार की मृत्युओं – व्यथा, दुःख, भय, लज्जा, रोग, शोक, अपमान एवं अंतिम रूप में मरण को रखा गया है –
व्यथा दुःखं भयं लज्जा रोगः शोकः तथैव च।
मरणं चापमानं च मृत्युः अष्टविधं स्मृतम्।।
यहां व्यथा सामान्य दुःख के अनुभव का द्योतक है, लेकिन दुःख आध्यात्मिक (शारीरिक-वात, पित्त, कफ से उत्पन्न व्याधियों का एवं मानसिक – काम, क्रोध, लोभ, मोह विषाद आदि से उत्पन्न आधियों का), आधिभौतिक (मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट-पतंग से प्राप्त कष्ट) तथा आधिदैविक (यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह, प्राकृतिक आपदा आदि से प्राप्त कष्ट) के रूप में व्यापक है. अपने अनिष्ट की आशंका व घोर आकृतियों से चित्त में जो क्लेद होता है, वह भय है. अपने अनुचित कार्य का किसी को पता चल जाने की स्थिति व बेइज्जती लज्जा है.
रोग अस्वस्थता है, तो प्रियजनों का वियोग शोक. अपमान अनादर, अवहेलना व पराजय है. ये सभी मृत्यु की तरह ही कमोबेश असह्य अवस्थाएं, वेदनाएं हैं. इसलिए इन्हें मृत्युवत् माना गया है. ज्योतिषी ग्रहों की प्रतिकूलताओं के कारण इन विषम परिस्थितियों से उबरने के लिए उपचार बताते हैं. ये उपचार प्रायः कष्टों के निवारक उसी प्रकार होते हैं, जैसे डॉक्टरी दवा. लेकिन रोगों की उत्पत्ति में डाक्टरी चिकित्सा में शिथिलता नहीं अपनानी चाहिए. मन्त्रोपचार को भी सहयोगी बनाना अत्युत्तम सूझ है.

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