हजार बछड़ों की मां जर्मन महिला सुदेवी

जर्मनी की महिला फ्रेडरिक इरिन ब्रूनिंग को हजार बछड़ों की मां के नाम से जाना जाता है. वे 1978 में भारत घूमने आयी थीं. इसके बाद उन्होंने गोसेवा को अपना जीवन समर्पित कर दिया. उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन में लोग गायों के प्रति ज्यादा लगाव रखते हैं. लेकिन, अगर कोई विदेशी महिला गो […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 23, 2017 9:30 AM

जर्मनी की महिला फ्रेडरिक इरिन ब्रूनिंग को हजार बछड़ों की मां के नाम से जाना जाता है. वे 1978 में भारत घूमने आयी थीं. इसके बाद उन्होंने गोसेवा को अपना जीवन समर्पित कर दिया.

उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन में लोग गायों के प्रति ज्यादा लगाव रखते हैं. लेकिन, अगर कोई विदेशी महिला गो सेवा को अपना मिशन बना ले तो सुन कर सुखद अनुभव होता है. मथुरा में गोवर्धन परिक्रमा से आगे कोन्हई नाम का एक गांव है. आबादी से थोड़ी दूर धान के खेत पार करने पर आपको एक चारदीवारी दिखेगी जिसकी फाटक पर लिखा है राधा सुरभि गोशाला. देश में एक ओर जहां गोरक्षा के नाम पर हिंसा की राजनीति हो रही है वही हजार बछड़ों की मां सुदेवी दासी ने गोसेवा कर मिसाल कायम किया है.

इस गोशाला में लगभग 1200 से अधिक बूढ़ी गायें, बैल और बछड़े हैं. आसपास के गांवों में लोग बूढ़े या बीमार होने पर गायों को ऐसे ही छोड़ देते हैं तो वे गोशाला की शरण में आ जाती हैं. यहां रहनेवाले जानवर या तो बीमार हैं या फिर किसी दुर्घटना के शिकार हैं. सुदेवी ने अपना जीवन इन गायों की सेवा में ही लगा दिया है. जर्मनी के बर्लिन शहर में दो मार्च 1958 को जन्मी सुदेवी दासी का मूल नाम फ्रेडरिक इरिन ब्रूनिंग है. वे बताती हैं कि 1978 में वह भारत घुमने आयी थी. तब वे 20 वर्ष की थीं. इससे पहले उन्होंने थाईलैंड, सिंगापुर, इंडोनेशिया और नेपाल की सैर भी की थी. लेकिन, उनका मन ब्रज में ही बस गया.

लाख समझाने पर भी अड़ी रहीं
उन्होंने राधाकुंड में गुरु दीक्षा ली और यही की हो कर रह गयीं. अब उनका अधिकतर समय पूजा, जप और परिक्रमा में ही गुजरने लगा. एक दिन उनके पड़ोसी ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें गाय पालना चाहिए. उनकी सलाह मान उन्होंने एक गाय पालने से शुरुआत की. धीरे-धीरे गाय पालने का क्रम गोसेवा मिशन में बदल गया. उनके पिता जर्मनी की सरकार में आला अधिकारी थे. जब उन्हें यह खबर मिली तो उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को समझाने के लिए भारत आये. उन्होंने अपनी पोस्टिंग दिल्ली स्थित जर्मन दूतावास में करा ली. पिता के लाख समझाने के बाद भी सुदेवी अपने निश्चय पर अड़ी रहीं.

पैतृक संपत्ति से करती हैं गायों की सेवा
आज भी रोज गोशाले की एंबुलेंस आठ से दस गायें लेकर आती है. जो किसी दुर्घटना में घायल हुई होती हैं या वृद्ध और असहाय हैं. वे उनका उपचार करती हैं. इतनी गायों की संख्या वाले गोशाला को सम्हालना बड़ी चुनौती है. लेकिन सुदेवी लगातार इस सेवा में लगी हुई हैं. वे बछड़ों को अपने बच्चों की तरह पालती हैं. इस गोशाला में बीमार जानवरों की सेवा को देखते हुए अब दूसरी गोशालाओं से भी लोग अपने बीमार और वृद्ध गायों को यहां भेज देते हैं. गोशाला में अंधी और घायल गायों को अलग-अलग रखे जाने की भी व्यवस्था है. वह उन्हें बिना किसी ना-नुकुर के उन्हें अपने पास रख लेती हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि यहां रहने से उनकी पीड़ा कुछ कम हो जायेगी. गोशाला में 60 लोग काम करते हैं. उनका परिवार भी गोशाला से ही चलता है. हर महीने गोशाला पर करीब 25 लाख रुपये खर्च होते हैं. यह खर्च सुदेवी बर्लिन में अपनी पैतृक संपत्ति से मिलने वाले किराये और यहां से मिलने वाले दान से जुटाती हैं.

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