बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि पर विशेष: बिरसा मुंडा का संघर्ष व त्याग

हरि राम मीणा बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ. वर्तमान झारखंड राज्य के चलकद के निकट उलिहातू और बम्बा दोनों गांव बिरसा के जन्म स्थान होने का दावा करते हैं. किशोरावस्था में सुगना मुंडा का वह बेटा बिरसा बहुत मोहक बांसुरी बजाया करता था, लेकिन बांसुरी से पेट नहीं भरता. मां-बाप स्वयं […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 9, 2017 7:30 AM

हरि राम मीणा

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ. वर्तमान झारखंड राज्य के चलकद के निकट उलिहातू और बम्बा दोनों गांव बिरसा के जन्म स्थान होने का दावा करते हैं. किशोरावस्था में सुगना मुंडा का वह बेटा बिरसा बहुत मोहक बांसुरी बजाया करता था, लेकिन बांसुरी से पेट नहीं भरता. मां-बाप स्वयं का पेट भरने की स्थिति में नहीं थे, यह बिरसा की मौसी जानती थी. मौसी बिरसा से विशेष स्नेह रखती थी. एक दिन मौसी सुगना मुंडा के घर आयी और बिरसा की ठीक से परवरिश करने के उद्देश्य से बिरसा को अपने गांव खटंगा ले गयी. मौसी ने बकरियां चराने का जिम्मा बिरसा को सौंपा. बिरसा बांसुरी बजाने में मस्त रहता. बकरियां इधर-उधर चली जातीं. कुछेक बकरियों को भेड़िया खा भी गये. मौसी का नाराज होना स्वाभाविक था. इसके बाद बिरसा वहां से वापस अपना गांव आ गया.

बिरसा रोटी की तलाश में भटकता रहा और किशोरावस्था से युवावस्था में पहुंचते-पहुंचते दरिद्रता की वजह और उसका निराकरण खोजता रहा. उसने वजह तलाश ली भूख की. वजह थी वनोपज पर आदिवासियों के पुश्तैनी अधिकारों पर पाबंदी, कृषि भूमि के उत्पाद पर लगान और अन्य प्रकार के टैक्स और इन सबके पीछे गोरे साहब और उनके देसी कारिन्दे-सामंत, जागीरदार व ठेकेदार थे. ये सब आदिवासियों के लिए दिकू (शोषक) थे. अगर दिकू को घोड़ा चाहिए, तो दाम कौन देगा? आदिवासी. अगर दिकू को पालकी पर चढ़ना है, तो पालकी कौन उठायेगा? आदिवासी. दिकू के गाने-बजाने वालों को बख्शीश, उसकी दुधारू गाय को चारा, उसके पान-तंबाकू का खर्च कौन देगा? आदिवासी. यदि किसी आदिवासी के घर कोई मरा, तो घरवालों पर टैक्स लगाया जायेगा. यदि कोई बच्चा पैदा हुआ, तो उस पर भी टैक्स लगाया जायेगा. शादी या पूजा हुई, तो फिर टैक्स. यदि किसी ठेकेदार को कचहरी ने अपराधी घोषित किया और उसे जुर्माना भरना पड़ा, तो जुर्माना कौन देगा? आदिवासी.

बिरसा समझ गया कि शोषणकारी बाहरी इनसान होता है और जब तक उसे नहीं भगाया जायेगा, तब तक दुखों से मुक्ति नहीं मिलेगी. इसी बीच दरिद्रता ने बिरसा के पिता को ईसाई बनने के लिए विवश किया. बिरसा को भी सब्जबाग दिखाये गये. वह भी पादरी के झांसे में आ गया. उसे चाईबासा के लूथरन मिशन में भेजा गया. जहां उसने जाना कि गोरे मिशनरी और शासक अंगरेज एक जैसे हैं. बिरसा ने अब मुक्ति-संग्राम की ठान ली और एलान कर दिया ‘अबुआ राज ऐते जना, महारानी राज टुण्डु जना अर्थात हमारा राज आयेगा, महारानी का राज खत्म होगा.’ चाहे मुंडा हों, उरांव हों, हो हों, कोल हों, कोई भी आदिवासी खाप हों, बिरसा मुंडारी अंचल के सभी आदिवासियों का सर्वमान्य नायक बन गया. ब्रिटिश सत्ता केंद्रों में खबर पहुंची कि ‘बिरसा नाम का युवक स्वयं को चमत्कारी संत बता कर हुकूमत के खिलाफ आदिवासियों को बहका रहा है.’

आठ अगस्त 1895 के दिन पुलिस का एक दल बिरसा को पकड़ने चालकाड़ गांव आया. करीब हजार अनुयायियों के विरोध के कारण पुलिस बिरसा को छू तक नहीं सकी. अब तक बिरसा अहिंसक आंदोलन के लिए लोगों को संगठित कर रहा था. इस घटना के बाद वह आक्रोश से भर गया. अंगरेज अफसरों ने 23 अगस्त को एक विशेष बैठक में निर्णय लिया कि ‘बिरसा विद्रोह’ को सख्ती से कुचला जाये. इसका जिम्मा दिया गया जिला सुपरिटेंडेंट जीआरके मीयर्स को. मीयर्स, पादरी लस्टी और जमींदार जगमोहन सिंह हाथियों पर सवार होकर विशेष पुलिस दस्ते के साथ चालकाड़ पहुंचे. बिरसा सोया हुआ था. उसे दबोच लिया गया और चुपचाप रातों-रात रांची की जेल में डाल दिया गया. प्रचार किया गया कि बिरसा चमत्कारी संत नहीं होकर एक अपराधी चरित्र का व्यक्ति है. उसके अपराधों के मुकदमों की खुली सुनवाई होगी, लोग देखने आयें. अंगरेज अफसरों ने सोचा ऐसा करने से बिरसा के प्रति लोगों का मोह भंग हो जायेगा. बिरसा को दो वर्ष की सजा सुनायी गयी. आदिवासियों ने इसका विरोध किया. मजबूरन सरकार को सजा से पूर्व बिरसा को छोड़ना पड़ा.

अब बिरसा ने आंदोलन को अधिक उग्र कर दिया. फरवरी 1898 के दिन चालकाड़ के निकट डुम्बारी पहाड़ियों में आदिवासियों की पंचायत बुलायी गयी. वहीं बिरसा ने आदिवासी सेना का गठन किया. एटके गांव के गया मुंडा को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया. जगह-जगह सभा की गयी. बिरसा ने खूंटी, रांची, चक्रधरपुर, बुंडू, कर्रा, तोरपा, बसिया, सिसई, बुस, बाड़ी, रूईटोला, पोजे, कोटा, गाड़ा आदि जगहों पर क्रांतिकारी दल का गठन किया. क्रांतिकारियों का मुख्य केंद्र खूंटी को बनाया गया. सन 1899 के ‘बड़ा दिन’ को आक्रमण का दिन निश्चित किया गया. पुलिस थानों, जागीरदारों व अंगरेजों के ठिकानों को निशाना बनाना तय किया गया. अलग-अलग टुकड़ियों ने दर्जन भर ठिकानों पर सफल हमले किये. स्वयं बिरसा ने तीन सौ आदिवासियों के धनुर्धर लड़ाकुओं के साथ खूंटी थाना पर आक्रमण किया. अत्याचारी दारोगा व उसके एक सहयोगी को मार दिया गया. संघर्ष में बिरसा का एक अनुयायी भी शहीद हुआ. गया मुंडा सैकड़ों आदिवासियों के साथ संघर्ष करता हुआ रांची की ओर बढ़ने लगा. बिरसा के आंदोलन से अंगरेज अफसर आतंकित हो गये. रांची के कमिश्नर फीवर्श और डिप्टी कमिश्नर जून फील्ड ने आंदोलन को दबाने का जिम्मा लिया. बड़ी तादाद में फौज लेकर वे खूंटी की ओर रवाना हुए. डम्बारी गांव के निकट आदिवासी लड़ाकुओं व अंगरेज फौज के बीच लड़ाई हुई. आदिवासियों के पास धनुष-बाण व गो-फन थे और अंगरेजों के पास बंदूकें. बंदूकों की गोलियों के सामने आदिवासियों ने खूब लोहा लिया. देश की खातिर लड़ते हुए करीब दो सौ आदिवासी शहीद हुए. बिरसा व गया को गिरफ्तार करने की खूब कोशिश की गयी, मगर दोनों नायक पकड़े नहीं गये. कुछ अन्य आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया.

वर्तमान झारखंड के अधिकांश इलाकों में ‘बिरसा क्रांति’ फैल चुकी थी. उन इलाकों के लिए ब्रिटिश सत्ता के सामने बिरसा की गिरफ्तारी एक मात्र चुनौती व प्राथमिकता बन चुकी थी. जब तक देश में आजादी की लड़ाई ने पांव नहीं रखे, तब तक बिरसा अपना महाभारत लड़ चुका था. अंततः बिरसा को धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया. अंगरेजों के पास तथाकथित मुकदमों की सुनवाई का वक्त भी नहीं था. नौ जून 1900 को रांची की जेल में बिरसा को जहर देकर मार दिया गया और प्रचार किया गया कि वह हैजा की बीमारी से मर गया. बिरसा की लाश को चुपचाप रात में रांची की जेल के पिछवाड़े में जला दिया गया. बिरसा आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दे गया. इसके बावजूद उसका आंदोलन थमा नहीं और उग्र होता गया. आदिवासी बिरसा को आज भी ‘धरती आबा’ यानी कि भगवान मानते हैं और आज भी उस महान विभूति से प्रेरणा लेते हैं.

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