।। रहीस सिंह।।
(विदेश मामलों के जानकार)
क्रीमिया एक बार फिर इतिहास के उस मोड़ पर पहुंच गया है, जहां पर किसी-न-किसी व्यवस्था या अव्यवस्था का जन्म हो सकता है. क्या होगा और किस मात्र में होगा, इस विषय पर संशय बरकरार है. लेकिन यदि ऐसा हुआ, तो उसका परिणाम क्या होगा और इसके लिए जिम्मेवार किसे माना जायेगा? क्रीमिया में जनमत संग्रह और वहां के लोगों के रूस में शामिल होने के निर्णय के क्या हैं निहितार्थ, इसी पर प्रकाश डाल रहा है आज का नॉलेज..
क्रीमिया की सरकार ने जनमत कराने का जो निर्णय लिया था, वह 16 मार्च को संपन्न हो चुका है. यूक्रेन के मुख्य चुनाव अधिकारी मिखाइल मैलिशेव के अनुसार, क्रीमिया में कुल 83 प्रतिशत जनता ने इस जनमत संग्रह में हिस्सा लिया और इसमें से 97 प्रतिशत ने क्रीमिया के रूस में शामिल होने के समर्थन में मत दिया. अब यूक्रेन की सरकार इसे अवैध घोषित कर रही है. पश्चिमी देश इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताते हुए रूस पर प्रतिबंधों की घोषणा कर रहे हैं और इन प्रतिबंधों को नजरअंदाज करते हुए रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन क्रीमिया को रूस में मिलाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में क्रीमिया में जनमत संग्रह के लिए यह सही वक्त था? क्या रूस और अमरिका सहित अन्य पश्चिमी शक्तियां क्रीमिया के जरिये किसी महान रणनीतिक खेल को जन्म दे रही हैं?
रूस में शामिल होने की चाहत
16 मार्च, 2014 को क्रीमिया की सरकार ने क्रीमियाइयों से दो प्रश्नों पर जवाब चाहे थे. पहला यह कि क्या आप स्वायत्त क्रीमिया गणराज्य को रूसी संघ में मिलाने के पक्ष में हैं? दूसरा कि क्या आप क्रीमिया गणराज्य के 1992 के संविधान को बहाल करने और क्रीमिया को यूक्रेन का हिस्सा बनाये रखने के हक में हैं? इस जनमत संग्रह में क्रीमिया की 83 प्रतिशत जनता ने मत दिया और मत देनेवालों के 96.6 प्रतिशत ने रूस में शामिल होने के समर्थन में मत दिया. हालांकि, क्रीमिया के तातार समुदाय, जो कि कुल क्रीमियाइ जनसंख्या का तकरीबन 12 फीसदी है, ने इस चुनाव का बहिष्कार किया था, क्योंकि यह समुदाय अपने जीवन के अनुकूल स्थितियों के लिए रूस को अच्छा नहीं मानता.
इस जनमत संग्रह के एक दिन बाद क्रीमिया की सरकार ने औपचारिक रूप से यूक्रेन से आजादी की घोषणा कर दी और साथ ही क्रीमिया के रूस समर्थक नेतृत्व ने राजधानी सिम्फेरोपोल में रूसी संघ में शामिल होने और क्रीमिया के ‘मानक समय’ को रूस के ‘टाइम जोन’ में मिलाने का प्रस्ताव पास कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि एक तरफ यूरोपीय संघ ने रूस पर प्रतिबंधों की घोषणा कर दी और दूसरी तरफ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने क्रीमिया को संप्रभु और स्वतंत्र देश की मान्यता देनेवाले आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये.
इयू व अमेरिका ने अवैध बताया
यूरोपीय संघ और अमेरिका ने इस जनमत संग्रह को अवैध करार दिया है और दूसरी तरफ मास्को ने दलील दी कि क्रीमिया की 60 प्रतिशत जनता रूसी मूल की है और वह स्वयं के लिए निर्णय लेने का हक रखती है. इसमें कोई संशय नहीं कि किसी भी देश की जनता अपने भाग्य के अधिकार का प्रयोग कर सकती है.
अब सवाल यह उठता है कि क्या किसी भी देश में किसी दूसरे देश द्वारा हस्तक्षेप के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय कानून है या ऐसा किया जाना उचित है? इस प्रश्न का उत्तर दो परिप्रेक्ष्यों को लेकर खोजने की जरूरत होगी. प्रथम यह कि नये अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार, यदि कोई सरकार या राज्य वहां के नागरिकों की रक्षा नहीं करती है, तो ‘रक्षा दायित्वों’ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद वहां हस्तक्षेप कर सकेगी. लेकिन इस प्रकार हस्तक्षेप केवल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ही कर सकती है, कोई अन्य देश नहीं.
इसका मतलब यह हुआ कि क्रीमिया में रूसी हस्तक्षेप में अंतरराष्ट्रीय कानूनों के विपरीत है. लेकिन स्वयं अमेरिका ने ग्रेनाडा, पनामा, डोमिनिकन रिपब्लिक, निकारागुआ और इराक में क्या किया था. आज जो तर्क रूसी राष्ट्रपति पुतिन दे रहे हैं, वही इन देशों में अमेरिकी या अमेरिकी नेतृत्व में नाटो सैनिकों के प्रवेश अमेरिकी प्रशासन की तरफ से दिया गया था. अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का इस तरह का दोहरा चरित्र ही विश्व व्यवस्था के लिए संकट साबित हुआ है.
यहां पर यह भी जानना जरूरी होगा कि आखिर क्रीमिया का इतिहास और उसकी समस्या क्या है?
तोहफे में दिया यूक्रेन को
क्रीमिया दरअसल काला सागर (ब्लैक सी) में एक छोटा सा पठारी क्षेत्र है. यह हमेशा से यूक्रेन का हिस्सा नहीं रहा है, बल्कि पूर्व सोवियत नेता रहे निकिता ख्रुश्चेव ने इसे यूक्रेन को तोहफे के तौर पर दे दिया था. दरअसल, रूस और क्रीमिया के ऐतिहासिक संबंधों को देखें तो ये 18वीं सदी में कैथरीन महान के समय तक जाते हैं. उस समय रूस ने दक्षिणी यूक्रेन और क्रीमिया पर जीत हासिल की थी और इन हिस्सों को ऑटोमन साम्राज्य से छीन लिया था.
उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होते-होते 1944 में सोवियत नेता स्टालिन ने क्रीमिया की पूरी मुसलिम आबादी को मध्य एशिया भेज दिया. स्टालिन की मौत के बाद सोवियत संघ की कमान संभालनेवाले निकिता ख्रुश्चेव ने क्रीमिया यूक्रेन को ‘तोहफे’ के रूप में दे दिया. हालांकि, 1954 में लिया गया ख्रुश्चेव का यह फैसला बेहद गंभीर था, लेकिन उस वक्त इस फैसले पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि रूस और यूक्रेन दोनों ही सोवियत संघ का हिस्सा थे.
वर्ष 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तो उस समय रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन इस बात पर सहमत हो गये कि क्रीमिया यूक्रेन का हिस्सा बना रहे, रूस का ब्लैक सी फ्लीट लीज के तहत सेवास्तोपोल में रहे. यह लीज कुछ साल पहले ही वर्ष 2042 तक बढ़ा दी गयी है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1994 के बुडापेस्ट समझौते के तहत रूस, अमेरिका, यूक्रेन और ब्रिटेन इस बात पर राजी हुए कि कोई भी देश यूक्रेन की क्षेत्रीय संप्रुभता और राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल नहीं करेगा.
भाषाई वर्चस्व का संघर्ष
इस प्रकार से क्रीमिया यूक्रेन में शामिल हो गया, लेकिन कुछ बेमेल चीजें इसमें निहित थीं, जिनके परिणाम अब आ रहे हैं. पहली यह कि यूक्रेन में 78 फीसदी लोग यूक्रेनी भाषा बोलते हैं और 17 फीसदी रूसी. जबकि क्रीमिया में तकरीबन 59 फीसदी रूसी भाषा बोलनेवाले लोग हैं. यूक्रेन की इस प्रकार की भाषाई स्थिति लगातार टकराव पैदा कर रही है. हालांकि, भाषाई टकराव अन्य टकरावों से पैदा हुआ है या फिर आक्रामक राष्ट्रवाद का परिणाम है, यह देखने योग्य है.
दरअसल, यूक्रेन संकट की एक वजह उसकी भाषा ही है. परंपरागत रूप से यूक्रेन के पश्चिमी भाग और राजधानी कीव में यूक्रेनी भाषा बोलनेवाले लोगों की अधिकता रही है, जबकि रूस के ज्यादा करीब स्थित देश के पूर्वी व दक्षिणी भाग और खास तौर पर क्रीमिया में रूसी भाषा बोलनेवाले ज्यादा लोग हैं. लेकिन यह भी सच है कि ज्यादातर यूक्रेनी बहुत आसानी से दोनों ही भाषाएं बोलते हैं.
महत्वपूर्ण बात यह है कि क्रीमिया विवाद शुरू होने के बाद से यूक्रेन के बहुत से लोग रूसी भाषा बोलने से इनकार करने लगे थे. जब से रूसी संसद ने पुतिन को यूक्रेन में सेना भेजने की अनुमति दी है, तब से कीव के बहुत से नागरिकों ने सिर्फ यूक्रेनी भाषा बोलना शुरू कर दिया है. क्रेमलिन के इस तरह यूक्रेन में घुसने के खिलाफ यह यूक्रेनी लोगों का विरोध जताने का एक तरीका है. ऐसा नहीं कि उन्हें किसी अन्य देश की भाषा से घृणा है, लेकिन वे इसका ज्यादातर प्रयोग राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं. इस मामले में पदच्युत राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच भी दूध के धुले नहीं रहे. वे देश के पूर्वी हिस्से से आते हैं, जहां ज्यादातर लोग रूसी भाषा बोलते हैं, लेकिन 2010 में राष्ट्रपति चुने जाने पर उन्होंने खुद देश की राष्ट्रीय भाषा यूक्रेनी सीखने का फैसला लिया.
हाल के भाषाई विवाद के पीछे एक मुद्दा यह भी है कि यूक्रेन की नयी सरकार ने पिछले महीने 2010 के एक कानून को रद्द करने का फैसला लिया, जिसमें यूक्रेन के कुछ हिस्सों में रूसी भाषा को दूसरी आधिकारिक भाषा का दरजा दिया गया था. रूस ने यूक्रेन के इस कदम की निंदा की और इसे रूसी लोगों के मानवीय अधिकारों का हनन बताया. इसी का इस्तेमाल कर पुतिन ने यह दलील भी दे डाली कि रूसी भाषा बोलनेवाली जनता के हितों की रक्षा करने के लिए रूस को यूक्रेन में अपनी सेना भेजना जरूरी है.
दक्षिणपंथी ताकतों का खेल
यूक्रेन में उपजे इस संकट का एक और भी कारण है. सोवियत विघटन के बाद वहां कुछ ऐसी शक्तियां पांव पसारने लगीं, जिनका उद्देश्य नये संघर्षो को जन्म देकर अपने हितों को पूरा करना था. गौर से देखें तो विगत डेढ़ दशक से यूक्रेन में दक्षिणपंथी और नव-नाजीवादी (नियो-नाजी) अपना प्रभाव रणनीतिक तौर पर बढ़ाते दिख रहे हैं. ये रूस के परंपरागत शत्रु हैं, क्योंकि इनकी दृष्टि में द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय का सबसे बड़ा कारण सोवियत संघ ही था.
अभी पश्चिमी ताकतें इसे लगातार समर्थन दे रही हैं, ताकि रूस को कमजोर किया जा सके. ये वास्तव में चरमपंथी हैं, जो चाहते हैं कि यूक्रेन पूर्ण रूप से यूक्रेनी भाषा बोलनेवाले लोगों का देश बने और दूसरी भाषा वाले यहां से अपने मूल स्थान चले जायें. वे अन्य भाषाएं बोलनेवालों को यूक्रेनी नागरिक मानने से इनकार करते हैं. यह विडंबना ही है कि पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए कई गणराज्यों में इस समय भाषाई आधार पर देश की रक्षा करनेवाले अतिवादी सक्रिय हैं.
इस संबंध में एक तरफ दो समूह- राइट सेक्टर और स्वोबोदा (स्वतंत्रता) हैं, तो दूसरी तरफ द्वितीय विश्वयुद्ध के समय राष्ट्रवादी स्टेपान बांडेरा का नाम लिया जाता है. ये तीनों ही रूस विरोधी और किसी न किसी रूप में नाजी समर्थक हैं. इसलिए रूस लगातार यह शिकायत करता रहा है कि कीव में हो रहे प्रदर्शनों पर दक्षिणपंथी गुट (जिसमें नियो-नाजी भी शामिल हैं) हावी है, जो नयी सरकार में साझीदार भी हैं.
संघों के जरिये रणनीतिक खेल
इस टकराव की पृष्ठभूमि में दो संघों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. इनमें एक तो यूरोपीय संघ ही है, जबकि दूसरा यूरोशियन कस्टम यूनियन या यूरेशियाई संघ है. इस संघ की स्थापना नवंबर, 2011 में हुई, जिसमें रूस, कजाकिस्तान और बेलारूस शामिल थे. इस संघ का प्रमुख लक्ष्य है- मुक्त व्यापार, कस्टम और वाणिज्यिक आदान-प्रदान से सदस्य देशों को लाभ पहुंचाना. इसके बाद किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान ने भी इसमें शामिल होने की मंशा व्यक्त की और वर्ष 2013 में यूक्रेन ने भी अपनी सदस्यता के लिए आवेदन किया. इस बीच जनवरी, 2012 में संघ ने यूरेशियाई आयोग की शुरुआत कर दी.
हालांकि, जार्जिया, आर्मीनिया आदि देशों ने भी पहले इसमें शामिल होने की इच्छा जतायी, लेकिन बाद में वे पलट गये. अमेरिका सहित पश्चिमी यूरोप के देश इस संघ को साकार होने नहीं देना चाहते, क्योंकि उनको इस संघ में पूर्व सोवियत संघ की झलक दिख रही है. ऐसा लगता है कि अमेरिका और यूरोप के कुछ देश इस समय यूरोपीय संघ को अपेक्षाकृत आर्थिक और सामरिक रूप से कमजोर होते देख रहे हैं, इसलिए उनका भय और बढ़ जाता है. दूसरी तरफ, काला सागर और भूमध्य सागर में रूसी बेड़े की मौजूदगी से रूस की सैनिक ताकत बढ़ रही है. इस तरह से रूसी ताकत की बढ़त भी पश्चिमी शक्तियों को एक खतरे के रूप में दिख रही है. अगर क्रीमिया की भौगोलिक स्थिति को देखें, तो स्पष्ट हो जायेगा कि क्रीमिया का रणनीतिक महत्व क्या है और रूस अथवा यूक्रेन के पास रहने से उसका किस तरह का प्रयोग किया जा सकता है.
बहरहाल इतिहास के किन्हीं अध्यायों में क्रीमिया के कीचड़ से इटली जैसे राष्ट्रों को उदय हुआ, तो कभी कुछ बड़े संघर्षो का उदय, जिनके परिणाम और दुनिया नयी दिशा देने वाले आये. अब देखना यह है कि इस बार क्रीमिया के कीचड़ से किस प्रकार की व्यवस्था का जन्म होता है?
यूक्रेन की भौगोलिक स्थिति
यूक्रेन की भौगोलिक स्थिति रूस, बेलारूस, पोलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया और मालदोवा की सीमाओं से संबद्ध है. काला सागर (ब्लैक सी) और अजोव सागर इसे घेरते हैं. यह एक एकात्मक राज्य है, जिसमें 24 प्रांत, एक स्वायत्तशासी गणतंत्र क्रीमिया, विशेष दरजा हासिल दो नगर कीव और सेवास्तोपोल (पहला यूक्रेन की राजधानी है और दूसरा एक समझौते के तहत रूसी ब्लैक सी फ्लीट के लिए ठिकाना है). यह पृथक व्यवस्थापिका, कार्यकालिका और न्यायपालिका के साथ सेमी-प्रेसीडेंशियल व्यवस्था द्वारा संचालित है. यूक्रेन सोवियत संघ के पतन के बाद से इसी व्यवस्था के तहत है और रूस के बाद यूरोप में सबसे बड़ी सैन्य व्यवस्था को बनाये रखे हुए है.
क्रीमिया एक नजर में
यूनानी, स्किथी, गोथ, हूण, खजर, बुलगार, उसमानी तुर्क, मंगोल और बहुत से अन्य साम्राज्यों ने समय-समय पर क्रीमिया पर कब्जा जमाया है. 18वीं सदी के बाद इस पर रूसी साम्राज्य का अधिकार कायम हो गया और 1917 की सोवियत क्रांति के बाद यह सोवियत संघ का हिस्सा बना. 1954 में यह यूक्रेन को मिला और सोवियत संघ के विघटन के बाद भी उसी का स्वायत्तशासी हिस्सा बना रहा. यूक्रेनियन जनगणना 2001 के अनुसार, क्रीमिया की आबादी 2,033,700 थी. इसमें से रूसी 58.32 प्रतिशत, यूक्रेनियन 24.32 प्रतिशत, क्रीमियन तातार्स 12.1 प्रतिशत, बेलारूसियन 1.44 प्रतिशत, तातार्स 0.54 प्रतिशत, आर्मीनियन 0.43 प्रतिशत, यहूदी 0.22 प्रतिशत, ग्रीक 0.15 प्रतिशत और अन्य हैं. क्रीमिया अपने पूरे इतिहास में हमलों और अधिग्रहणों का शिकार रहा है, फिर चाहे वे हूण रहे हों, ग्रीक या ऑटोमन. 18वीं सदी में मास्को ने इस पर कब्जा जमा लिया और फिर काला सागर में अपनी फौजें तैनात कर दीं. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान क्रीमिया एक निर्णायक क्षेत्र रहा, जो कुछ समय के लिए जर्मनी के कब्जे में रहा, लेकिन बाद में पुन: सोवियत संघ के कब्जे में चला गया. इसका सेवास्तोपोल शहर रूसी सेना के बेड़े को लेकर यूक्रेन और रूस में हमेशा तनाव का विषय रहा है. वर्ष 2010 में यूक्रेन ने रूस के साथ समझौता किया, जिसके तहत मास्को को 25 साल तक सेवास्तोपोल में रहने की इजाजत दी गयी. इसके बदले रूस ने गैस की कीमतें 30 फीसदी कम कर दीं.