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अब मायावती इतना मुस्कुराने क्यों लगी हैं?

प्रोफ़ेसर अरुण कुमार अर्थशास्त्री पहले बसपा प्रमुख मायावती एक टाइप किया हुआ रूक्का पढ़तीं थीं. पढ़ लिए जाने के बाद यदि कोई पत्रकार सवाल पूछे तो भड़क जाती थीं – क्या तुम मेरी प्रेस कांफ्रेंस का कचरा करने आए हो! और उठकर चल देती थीं. इसके अलावा हर चुनाव के मौके पर दलितों से मनुवादी […]

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पहले बसपा प्रमुख मायावती एक टाइप किया हुआ रूक्का पढ़तीं थीं. पढ़ लिए जाने के बाद यदि कोई पत्रकार सवाल पूछे तो भड़क जाती थीं – क्या तुम मेरी प्रेस कांफ्रेंस का कचरा करने आए हो! और उठकर चल देती थीं.

इसके अलावा हर चुनाव के मौके पर दलितों से मनुवादी मीडिया से सावधान रहने की अपील भी जारी की जाती थी. लेकिन वे इन दिनों चुनावी मौसम में आयोजित हो रही प्रेस कांफ्रेंसों में मुस्कराती दिखती हैं और ‘दलित या दौलत की बेटी’ जैसे असुविधाजनक सवालों के जवाब तक देने लगी हैं.

मायावती की पार्टी को प्रवक्ताओं की क्या जरूरत?

‘चुप रहता है पर चौंकाता है मायावती का वोटर’

यह परिवर्तन किसी आध्यात्मिक साधना का नहीं, यूपी की सत्ता फिर से पाने के रास्ते की एक मजबूरी की देन है जिसे मुसलमान वोट कहा जाता है.

पिछले लोकसभा चुनाव में दलित-ब्राह्मण गठजोड़ की सोशल इंजीनियरिंग के ध्वस्त हो जाने के बाद मायावती ने इस बार बसपा के इतिहास में सबसे अधिक सौ टिकट मुसलमानों को दिए हैं.

जिताऊ गठजोड़ का इरादा

वे इक्कीस प्रतिशत दलित और अठारह प्रतिशत मुसलमानों को जोड़कर एक नया जिताऊ गठजोड़ खड़ा करने में लगी हैं. इसके लिए मुस्कराते हुए हर उस छोटे मुद्दे पर सफाई दी जा रही है जिस पर पहले मुसलमान उनसे नाराज रहा करते थे.

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एक बार मुख्यमंत्री रहते मायावती से मिलने गए मुस्लिम धर्मगुरूओं के जूते सुरक्षाकर्मियों ने घर के बाहर उतरवा दिए थे, तब काफी विवाद हुआ था. मायावती बता रही हैं कि ऐसा सफाई के लिहाज से किया गया था, किसी को अपमानित करने की मंशा नहीं थी, वे खुद भी सैंडिल बाहर उतार कर ही अपने घर में जाती हैं.

यह कांशीराम की नहीं, मायावती की बसपा है

उन्होंने माफिया माने जानेवाले मुख्तार अंसारी को एक बार फिर से पार्टी में लेकर ‘साजिश का शिकार गरीबों का मसीहा’ बताया है और वादा किया है कि चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए फिर कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगी.

चौकन्ने हैं मुसलमान

इतनी साफगोई और सदाशयता के बावजूद मुसलमान चौकन्ने हैं क्योंकि वे उनके बुनियादी मसलों नुमाइंदगी, तालीम, रोजगार, सेहत, वक्फ संपत्तियों की लूट जैसे मसलों पर बात नहीं कर रही हैं बल्कि अन्य पार्टियों की ही तरह सिर्फ डरा रही हैं कि अगर बसपा को वोट नहीं दिया तो भाजपा आ जाएगी.

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मायावती की मुश्किल यह है कि उनके पास कोई कायदे का मुसलमान नेता नहीं है जो वोटरों को उनकी बदली हुई नीयत का यकीन दिला सके. जिन मुसलमानों को चुनाव मैदान में उतारा गया है उनमें से अधिकांश हर किस्म की सत्ताधारी पार्टियों के करीब रहने वाले बड़े व्यापारी और ठेकेदार हैं जिन्हें पैसे से चुनाव का प्रबंधन करने के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा है.

नेताओं के बसपा छोड़ने से मायावती को फ़र्क पड़ेगा?

बसपा के सबसे बड़े स्टार प्रचारक नसीमुद्दीन सिद्दकी और राजनीति में नया आया उनका बेटा हैं जिनकी छवि मुसलमान नेता की नहीं बल्कि मायावती की हर बात में हां मिलाने वाले वफादार की है. चुनावी सभाओं में नसीमुद्दीन बता रहे हैं कि मुसलमान सत्ता की बिरयानी में पड़ा तेजपत्ता हैं जिसे दूसरी पार्टियां खाने के समय बाहर फेंक देती हैं.

अवसरवादी मायावती ?

मुसलमान वोटरों के असमंजस का सबसे बड़ा कारण मायावाती का अवसरवादी अतीत है. वे भाजपा के साथ कई बार सरकार बना चुकी हैं और गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी के पक्ष में प्रचार कर चुकी हैं. इस एक तथ्य से अखिलेश यादव-राहुल गांधी की जोड़ी (सपा-कांग्रेस गठजोड़) इतनी आश्वस्त है कि मुसलमानों को रिझाने के लिए कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं कर रही. उन्हें लग रहा है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों का फायदा उन्हें अपने आप मिलने जा रहा है.

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मायावती का गणित यह है कि मुसलमान इस चुनाव में पहले ‘अपना भाई फिर सपाई’ देखेगा इसीलिए इतनी बड़ी तादाद में टिकट दिए गए हैं. उन्होंने उनके पक्ष में दलित वोटों को ट्रांसफर कराने के लिए पार्टी के वालंटियरों को झोंक दिया है. फिर भी आम मुसलमान अभी तो मायावती की मुस्कान के जवाब में मुस्कराता नहीं दिखाई दे रहा है.

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