।। सुभाष कश्यप ।।
(लोकसभा के पूर्व महासचिव)
किसी संस्था की सफलता और गरिमा उसके कुशल कामकाज और अनुशासन में निहित होती है. लेकिन लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद को अगर इस कसौटी पर परखा जाये, तो जेहन में कई स्वाभाविक सवाल उठते हैं. खासकर, 15वीं लोकसभा के संदर्भ में. हंगामा, गतिरोध, महत्वपूर्ण विधेयकों का बगैर बहस पास होना और माननीयों का आचरण सदन की नयी पहचान बन रहे हैं. क्यों है यह स्थिति और क्या है रास्ता, इसी बहस को आगे बढ़ा रहा है आज का समय.
पंद्रहवीं लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो गया. इसके सत्रों में संसद का सुचारु संचालन होता नहीं दिखा. राज्यसभा में भी कुछ ऐसी ही तसवीर नजर आयी. हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के ऐसे संचालन की शायद ही कल्पना की होगी. अगर कल्पना की होती तो, इन अवस्थाओं के लिए कोई प्रावधान अवश्य किया होता. आंध्र प्रदेश विभाजन के लिए तेलंगाना बिल पेश किये जाने के दौरान संसद में जो कुछ घटित हुआ, वह संसदीय इतिहास के लिए काला धब्बा और शर्म की बात है. बिल पास करने के दौरान संसद की कार्यवाही के लाइव टेलीकास्ट पर रोक और सदन के दरवाजे बंद करना संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व घटना के तौर पर देखी गयी. यह दुर्भाग्यपूर्ण था. इससे संसदीय गरिमा प्रभावित हुई है.
करोड़ों रुपये रोजाना खर्च के बावजूद संसद ढंग से काम नहीं कर रही. बिना बहस बिलों का पास होना अच्छी बात नहीं होती. लोकतंत्र में बहुमत का मतलब मनमानी का अधिकार नहीं है. लोकतंत्र सर्वसम्मति से चलना चाहिए. सभी दलों को इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा कि कैसे संसदीय व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाया जा सके. सत्ता पक्ष और विपक्ष को तो इस पर गंभीर चिंतन करना चाहिए.
संसद की कार्यवाही को देख ऐसा लगता है कि सांसदों का मकसद सिर्फ हंगामा करना रह गया है. ऐसे में सवाल उठता है कि संसद का काम क्या है? जिन उम्मीदों से संविधान निर्माताओं ने संसद की कल्पना की थी, वह उनके सपनों के मुताबिक काम नहीं कर पा रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह कही जा सकती है कि देश की राजनीति का स्वरूप बदल गया है. संसद बनती है सांसदों से, लेकिन यदि सांसदों का चरित्र और व्यवहार ही बदल जाये, तो उसका असर संसद की कार्यप्रणाली और गरिमा पर पड़ना लाजमी है. आजादी के बाद राजनीति में जो लोग आये थे, उनकी पृष्ठभूमि स्वाधीनता संग्राम की थी.
वे आजादी के संघर्ष में हिस्सेदार थे और उनकी राजनीतिक सोच में देश निर्माण हावी थी. इन लोगों की राजनीतिक विचारधारा भले ही अलग-अलग रही हो, लेकिन देश के विकास में वे सभी भागीदार बनना चाहते थे. समय बीतने के साथ राजनीति को लाभ का पेशा बना दिया गया. अधिकतर लोग सत्ता-सुख भोगने और कम समय में ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने की सोच के साथ राजनीति में आने लगे. राजनीति करना, राजनीति को चलाना और चुनावों में भाग लेना महंगा होता गया. आज स्थिति यह है कि किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम को संपन्न करने के लिए, राजनीतिक संगठन को चलाने के लिए और चुनाव लड़ने के लिए बड़ी धनराशि की जरूरत होती है. अब सवाल यह उठता है कि इतना पैसा कहां से आता है? अधिकांश धन, जिससे आज की राजनीति चलती है, काला धन होता है, जो अपराध की दुनिया से या भ्रष्टाचार से आता है. ऐसी स्थिति में साफ-सुथरी जनहित प्रेरित राजनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती.
संसद के कामकाज को देखें, तो उसमें भारी बदलाव आया है. पंडित नेहरू के कार्यकाल में सबसे अधिक महत्त्व अंतरराष्ट्रीय विषयों को दिया जाता था. बाद में, इसकी जगह राष्ट्रीय विकास के मुद्दों ने ले ली. अब क्षेत्रीय दलों के प्रभाव के कारण स्थितियां बदली हैं और सांसदों की रुचि स्थानीय तथा क्षेत्रीय विषयों की ओर अधिक हो गयी है. संसद में कई ऐसे मसले उठाये जाते हैं, जो विधानसभाओं से जुड़े होते हैं. पहले सांसदों की अधिक संख्या वकालत करनेवालों की थी, लेकिन आज करोड़पतियों की संख्या अधिक हो गयी है. आज अधिकतर सांसदों के पास राजनीति के अलावा कोई दूसरा पेशा नहीं है और उन्होंने इस पेशे को ही आजीविका का प्रमुख साधन बना दिया है. यही वजह है कि राजनीति में भ्रष्टाचार और परिवारवाद काफी बढ़ गया है.
पहले सबसे अधिक समय विधि निर्माण को दिया जाता था. लोकसभा के कुल समय का तकरीबन आधा समय कानून बनाने में गुजरता था. अब ऐसी स्थिति हो गयी है कि 15 प्रतिशत से भी कम समय विधि निर्माण को दिया जाता है और लगभग उतना ही समय शोर-गुल में नष्ट हो जाता है. शून्यकाल के दौरान तो सदन भरा रहता है, पर जब गंभीर काम होते हैं, विधि निर्माण का समय होता है, तो उपस्थिति नगण्य होती है. यह गंभीर चिंता का विषय है.
पहले राष्ट्रहित और जनहित के बहुत से मुद्दों पर देश और संसद में मतैक्यता देखने को मिलमी थी. हमारी राजनीतिक व्यवस्था और चारित्रिक ह्रास की वजह से ऐसा अब शायद ही देखने का मिलता है. आज का भारतीय समाज इतना विखंडित और विभाजित है कि राष्ट्रहित के प्रमुख मसलों पर भी सहमति दुर्लभ है. भ्रष्टाचार जैसे मसले पर भी वे एक नहीं हो पाते. दूसरा, आजादी के बाद देश में काफी समय तक एक दल का यानी कांग्रेस का एकछत्र शासन रहा. बाद में राजनीति बदली और बहुत सारे क्षेत्रीय और संकीर्ण आधारों पर निर्मित दल अस्तित्व में आ गये. हमारी निर्वाचन व्यवस्था मूलत: विभाजनकारी है, वोट बैंक की राजनीति को प्रश्रय देती है. जातीयता व सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती है और धनबल व बाहुबल को अधिक महत्व देती है. दुर्भाग्यवश हमारे देश में राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप को नियंत्रित करनेवाला कोई प्रभावी कानून नहीं है.
यदि संसद की गरिमा बहाल करनी है, तो हमारी निर्वाचन व्यवस्था में अविलंब जरूरी सुधार करना होगा, ताकि सांसदों का प्रतिनिधिक चरित्र सुनिश्चित हो, चुनावों का खर्च कम हो, धनबल, बाहुबल, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार और आपराधिक तत्वों से निर्वाचनों और राजनीति को मुक्ति मिले और उम्मीदवारों के चयन में जनता की भागीदारी हो. आज यह मुद्दा बार-बार उठाया जाता है कि संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव पर विचार का समय आ गया है, लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी व्यवस्था, भले ही वह राष्ट्रपति प्रणाली क्यों न हो, अगर ढंग से नहीं चलायी जायेगी, तो उसमें समस्याएं आयेंगी ही.
हालांकि, संसदीय कार्य संचालन के लिए प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने के अधिकार का प्रावधान किया गया है. इसके तहत संसद और देश की विधानसभाएं प्रक्रिया संबंधी नियम बना सकती हैं. संसद में अव्यवस्था फैलाने व संसदीय गरिमा से गिरा हुआ आचरण करने के लिए 1989 में 63 सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित कर दिया गया था. नियमों के पालन की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की ज्यादा होती है. अगर वही पालन न करे, तो मुश्किलें खड़ी होती हैं. संसदीय व्यवस्था में यह महत्वपूर्ण है कि विपक्ष को भी शासन व्यवस्था में भागीदार माना जाये.
* जमीनी राजनीति की नासमझी है बड़ी समस्या
भारतीय संसदीय इतिहास में 15वीं लोकसभा के कामकाज का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है. संसद में सबसे अमर्यादित व्यवहार का खिताब इस बार के सांसदों को दिया जायेगा. संसद लोक चयनित संस्था है और मर्यादा पुरुषोत्तम होने की अपेक्षा किसी धार्मिक या नैतिक स्तर पर इस राजनीतिक संस्था से नहीं की जा सकती. लेकिन दुख की बात यह रही कि संवाद, खंडन-मंडन और प्रतिनिधित्व की जो झलक इस संसद से आनी चाहिए थी, उस पैमाने पर भी यह खरे नहीं उतर पायी. संवाद के गति अवरोधक संसद के अंदर भी रहे और बाहर भी. देखा जाये तो यह गंठबंधन की सरकार थी, लेकिन इसकी छवि एक कांग्रेसी सरकार बन कर उभरी.
सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के लांछनों में सबसे पहले टू जी मामले पर गंठबंधन के दल डीएमके पर लगाये गये, लेकिन एक-एक कर सभी साथी दल किनारे होते गये और भ्रष्टाचार का ठीकरा कांग्रेस के सिर पर ही फूटा. विशेष रूप से कोयला घोटाला और उसके बाद जब कांग्रेस के मंत्रियों सुबोधकांत सहाय, पवन कुमार बंसल और अश्विनी कुमार को इस्तीफा तक देना पड़ा.
सदन की कार्यवाही के सुचारु संचालन के लिए जिस तरह विभिन्न दलों पर पहुंच और विश्वास बनाने का काम होना चाहिए, उसमें कांग्रेस चूकती नजर आयी. यही नहीं संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री दोनों सदनों के शीर्षस्थ नेता माने जाते हैं, लेकिन मनमोहन सिंह ने इस जिम्मेवारी को निभाने से खुद को दूर रखा. जब तक प्रणब मुखर्जी लोकसभा में नेता रहे, तब तक दलगत व्यवस्था में अगुवाई करने का बीड़ा उन्होंने ही उठाया. ऐसे लगता था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक आधिकारिक प्रमुख हैं और राजनीतिक कारोबार का जिम्मा कहीं और रहा. संसदीय व्यवधान की सबसे बड़ी वजह सदन में दलों के बीच राजनीतिक बातचीत की कमी और कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी रही. इसके चलते राजनीतिक संवाद की धुरी का निर्माण नहीं हो पाया.
दुखद बात यह भी रही कि यूपीए के घटक दल ही सरकार पर तीखे वार करते नजर आये. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का यूपीए से अलग होना और सरकार का सबसे बड़ा आलोचक बन कर पश्चिम बंगाल में सत्ता कायम रखना. पहली बार ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री और सरकार को विदेश नीति पर न केवल चुनौती दी, बल्कि भारत-बांग्लादेश संबंध और तीस्ता जल बंटवारे के सवाल पर अपनी बात मनवायी. इतना ही नहीं, सदन के भीतर जब रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी रेल बजट पेश कर रहे थे, तो उसी समय ममता बनर्जी ने उनकी रेल मंत्री की हैसियत छीन ली. रेल बजट जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर शासक दल के घटक ने ही सरकार के नीचे की जमीन खिसका दी.
15वीं लोकसभा के संसदीय काल की आधी उम्र पूरी होने तक ही सड़क से संसद के दरवाजे तक आवाज आने लगी. संसद का मुद्दा क्या होना चाहिए और भ्रष्टाचार के मामले में राजनीतिक पहल कैसी होनी चाहिए, यह सदन की बजाय जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में बैठे अन्ना हजारे के खाते में चली गयी. यानी कि जो कार्यवाही संसद के भीतर होनी चाहिए, वह उसके बाहर की गयी. सविनय अवज्ञा और भूख हड़ताल का भारत में लंबा इतिहास रहा है और इसका काफी राजनीतिक महत्व भी है. यही वजह रही कि सांसदों की बजाय भारत की जनता अन्ना के भूख हड़ताल की तरफ टकटकी लगाये रही.
डी फैक्टो और डी जुरे की जो चरचा विश्व के गणतांत्रिक संविधानविदों ने की है, उसका सीधे-सीधे दर्शन भारत में हो पाया. यानी आधिकारिक संप्रभुता सदन में चुने गये सांसदों की रही, लेकिन लोकमत में अन्ना की अवज्ञा प्रभावी रही. सदन की कार्यवाही पर इसका बहुत बड़ा असर पड़ा. अन्ना के अनशन को तोड़ने के लिए (वर्ष 2011) पूरे सदन को यह विश्वास दिलाना पड़ा कि लोकहित के संरक्षण और भ्रष्टाचार पर त्वरित कार्रवाई के लिए लोकपाल पारित किया जायेगा.
सदन की पूरी कार्यवाही रामलीला में बैठे एक वयोवृद्ध की तरफ टकटकी लगाये रही. बाद में जैसे-जैसे चुनाव का समय निकट आया, कांग्रेस आरोप लगाने लगी कि सदन की कार्यवाही भाजपा के चलते नहीं चल पा रही है. सदन की कार्यवाही चलाने की जिम्मेवारी सत्ता पक्ष की अधिक होती है. संसदीय कार्यमंत्री इसलिए बनाये जाते हैं कि सदन के कामकाज को सुचारु तरीके से चलाने के लिए विभिन्न दलों के नेताओं से बातचीत कर सहमति बनाने की कोशिश करें. बिजनेस एडवाइजरी कमेटी में विभिन्न दलों के नेताओं से बातचीत होती है. पर इस सदन में इस कमेटी में भी राजनीतिक मंशा की कमी देखी गयी. यही वजह रही कि सदन चलाने की बजाय इसे सियासी बयानबाजी का अखाड़ा मान लिया गया.
इस संसद के दो क्षणों को भुलाना मुश्किल है. एक राज्यसभा में राजद के राजनीति प्रसाद का लोकपाल विधेयक की कॉपी को फाड़ना और दूसरा तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेसी सांसद एल राजगोपाल द्वारा पेपर (काली मिर्च) स्प्रे की घटना. जहां 13वीं लोकसभा के दौरान बाहरी आतंकवाद संप्रभुता को चुनौती दे रहे थे और इसे बचाने के लिए दर्जनों लोगों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी, वहीं इस बार संसद के अंदर से ही चुनौती मिली. संसदीय कार्य बहुत कम हुए और सांसदों का दुर्व्यवहार चरम पर रहा.
भारतीय संविधान के प्रस्तावना में भारत के संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र होने की बात कही गयी है, लेकिन इसे कानून बनानेवाले ही चुनौती दे रहे हैं. सदन की कार्यवाही तब तक सुचारु नहीं होगी, जब तक क्षेत्रीय और छोटे दलों की बात और आम लोगों की जरूरी शिकायतों को हल करने का काम नहीं होगा. ऐसे में आने वाले सदन में विमर्श की प्रक्रिया पर प्रश्नचि लगा रहेगा.
संसद एक राजनीतिक संस्था है और राजनीतिक विमर्श के लिए राजनीतिक हितों की विभिन्नताओं को समझना बहुत जरूरी है. ऐसे समय में जब राष्ट्रीय दलों का फरमान ऊपर से नीचे तक नहीं चल सकता, वहां विविधता को समझने से ही कठिन राजनीतिक हालात के उत्तर मिल पायेंगे. संसद को चलाने के पीछे जिस राजनीतिक मंशा का जरूरत है, वह हुक्मरानों के फरमान से नहीं, बल्कि जमीनी राजनीति के उभरते कठिन सवालों से जूझने पर ही निकलेगी. भविष्य आसान तो नहीं, लेकिन मुश्किल भी नहीं. जरूरत है जमीनी राजनीति के जटिल हालात को समझने की.
।। मनीषा प्रियम सहाय ।।
राजनीतिक विश्लेषक