।। रवि दत्त बाजपेयी।।
भारत में शहरीकरण को बढ़ावा देने में औद्योगिकीकरण और रोजगार के बदलते तरीकों की प्रमुख भूमिका रही है, भले ही आज भी भारत की आत्मा गांवों में बसती है, लेकिन व्यापक आर्थिक-सामाजिक बदलाव की रफ्तार ने भारतीय जनसंख्या के बड़े भाग को शहरों में बसने को प्रेरित किया है. एक अनुमान से वर्ष 2030 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 70 प्रतिशत भाग और नये रोजगारों का 70 प्रतिशत भाग देश के 100 बड़े शहरों में होगा. 2030 तक भारत के 60-65 करोड़ लोग शहरी जनसंख्या माने जायेंगे, अर्थात शहरी आबादी में पिछले 40 सालों में जो बढ़ोत्तरी हुई उससे कहीं अधिक वृद्धि सिर्फ अगले 15-20 सालों में होनेवाली है. 2030 तक मुंबई-दिल्ली जैसे महानगरों की अर्थव्यवस्था 25,000 करोड़ के बराबर होगी जो अनेक देशों की कुल सालाना जीडीपी से भी अधिक होगी, इसी तरह 2030 में मुंबई, दिल्ली और कोलकता महानगरों की आबादी ऑस्ट्रेलिया की समूची जनसंख्या से भी अधिक होगी.
भारत के शहरीकरण का चमकदार आर्थिक पक्ष तो संभावित है, लेकिन जब भारत के शहरों पर जनसंख्या आधिक्य का दुष्प्रभाव अभी से ही एक भयावह आपदा बन चुकी है तो भविष्य में इन शहरों में जनसंख्या अतिरेक से हुई दुर्दशा का अनुमान लगाना किसी दु:स्वप्न से कम नहीं है.
शहरी जनसंख्या में वृद्धि का एकमात्र कारण ग्रामीण जनसंख्या का शहरों की ओर पलायन नहीं है, शहरी आबादी में बढ़त का 80 प्रतिशत भाग शहरों में पहले से बसी आबादी में वृद्धि तथा छोटे कस्बों और अर्ध शहरी इलाकों को शहरी क्षेत्र मान लेने के कारण हुआ है जबकि 20 प्रतिशत भाग ग्रामीण जनसंख्या के प्रवासन से हुआ है. शहरी इलाकों में लोगों की औसत आय, राष्ट्रीय औसत से अधिक और ग्रामीण क्षेत्रों से कहीं बहुत अधिक मानी जाती है, बढ़ती आय के साथ ही यह जनसंख्या अपने लिए रिहाइश, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवागमन व अन्य सुविधाओं की बेहतरी की मांग करेगी जिसके लिए भारत को अपने शहरों के रख-रखाव में बहुत बड़ा निवेश करने की आवश्यकता पड़ेगी.
सरकारी व्यवस्था को शहरी इलाकों के अपेक्षाकृत कम क्षेत्र में बड़ी आबादी को बुनियादी सुविधाओं को पहुंचाना कम खर्चीला और आसान होता है, पेय जल, बिजली, सड़क जैसी सुविधाओं को 30 से 50 प्रतिशत कम खर्च पर घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में दिया जा सकता है.
लगातार बढ़ती शिक्षित आबादी को समुचित रोजगार देने और आम लोगों के जीवन-स्तर में सुधार लाने के लिए भारत को अपनी आर्थिक प्रगति की दर को 10-12 प्रतिशत के बीच में रखना जरूरी है, इतनी ऊंची विकास दर पाने के लिए लिए भारत को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ अपने शहरों को भी व्यविस्थत रूप में विकसित करना होगा. भारत के इस द्रुत शहरीकरण की रफ्तार में आर्थिक विकास के अनेक अवसर भी छुपे हुए हैं. मैकेंजी, प्राइस वाटर हाउस जैसे अनेक परामर्शी व्यवसायों ने भारत में शहरीकरण के लिए आवश्यक निर्माण तथा सेवाओं-सुविधाओं के विस्तार को वैश्विक कंपनियों के लिए, वर्ष 1991 के उदारीकरण के बाद से सबसे बड़ा अवसर घोषित किया है. भारत के इस द्रुतगामी शहरीकरण की मांग को पूरा करने के लिए जिस विहंगम पैमाने पर आधारभूत संरचना के निर्माण की आवश्यकता है वह सचमुच अकल्पनीय है. मैकेंजी वैश्विक संस्थान के अनुमान से 2030 के अपने शहरीकरण की मांग के अनुरूप, भारत को हर वर्ष 80-90 करोड़ वर्ग मीटर के रिहाइशी व व्यावसायिक निर्माण की आवश्यकता पड़ेगी जो हर साल दो नये मुंबई शहरों को बनाने के बराबर है. आवागमन के लिए हर वर्ष 350-400 किलोमीटर की मेट्रो या भूमिगत रेल की नयी लाइनें, 19,000-25,000 किलोमीटर की नयी सड़कें बनाने की आवश्यकता है, इतनी उपनगरीय रेल या सड़कें तो पूरे भारत में पिछले एक दशक में भी नहीं बनायी है. इस निर्माण के साथ यदि आम नागरिकों की अन्य दैनिक आवश्यकताएं जैसे पेयजल, सैनिटेशन, कचरे का निष्पादन, बरसाती जल का निकास, सुरक्षा, शिक्षा, चिकित्सा, बगीचे, खेलकूद के मैदान आदि को भी जोड़ा जाये, तो यह पूरा निर्माण आज के भारत की इच्छा शक्ति व क्षमता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.
2030 तक भारत को अपने शहरीकरण को सही रूप देने के लिए 55 लाख करोड़ रु पये से अधिक पूंजी के निवेश की आवश्यकता है, आज भारत अपने शहरों के विकास में जितना खर्च करता है उसके लगभग आठ गुना अधिक खर्च करने की आवश्यकता है. आज के समय भारत के अधिकतर बड़े शहर नागरिक सुविधाओं के मामले में वैश्विक औसत से बहुत पीछे है, यदि 2030 तक वर्त्तमान ढर्रा ही चलता रहा तो रिहाइशी घर, पीने का शुद्ध जल, सीवेज, कचरा निष्पादन, सार्वजनिक परिवहन जैसे मानकों में भारत के शहर अपनी आज की दुर्दशा से भी दो से चार गुना बदतर स्थिति में होंगे. भारत की जनसंख्या का शहरीकरण अब एकदम निश्चित है, शहरों के रख-रखाव व सुनियोजित विकास को गांव विरोधी या गरीब विरोधी बताना, अदूरदर्शिता व भटकाव की राजनीति है. सुनियोजित शहरीकरण के लिए मजबूत व दूरगामी निर्णयों द्वारा भारत अपनी एक बड़ी जनसंख्या के लिए आर्थिक-सामाजिक विकास के नये द्वार खोल सकता है पर भारत में ऐसे निर्णय लेने के लिए जरूरी मजबूत व दूरदर्शी राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था किस द्वार आयेगी?