।। दक्षा वैदकर।।
पिछले दिनों पटना लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान गुलजार साहब से मुलाकात हुई. इस मुलाकात के बाद तो उनकी कविताओं को बार-बार सुनने की बेचैनी-सी होने लगी. यू-ट्यूब पर उनकी कई कविताएं सुनीं, जिसमें से एक यहां आप से शेयर कर रही हूं. गुलजार अपने बीते दिनों को कविता की पंक्तियों में पिरोते हुए कहते हैं, ‘स्कूल से आते हुए बस्ते में मैंने आम-पापड़ की तरह ही तोड़ कर एक टुकड़ा आसमां का रख लिया था..
वो मेरे रंगीन शीशों के खजाने में गुम भी हो जाता था अकसर.. मैं अंधेरे में टिमकते जुगनुओं से ढूंढ़ लेता था.. वो मेरे साथ रहने लग गया था, एक टुकड़ा आसमां का.. घिर के आ जाते थे जब बादल, भीग जाती थी किताबें मेरे बस्ते में.. धूप में जब पीठ जलने लगती थी, तो बस्ता टिका कर नीम के नीचे हवा देता था उसको.. शोर करते थे परिंदे मेरे बस्ते में, तो सब टीचर मेरे नाराज होते थे.. मैं बाहर रख के आ जाता था बस्ता.. टांग आता था गिलहरी वाले शीशम पर.. या कभी अम्मा के छाबे पर जो गुड़ के सेव देती थी.. किताबें तो बड़ी होती गयीं सारी.. वजन बढ़ता गया उनका.. मेरा बस्ता पुराना हो रहा था, फट रहा था.. न जाने कब, कहां पर गिर पड़ा टुकड़ा वो मेरा आसमां का.. मैं नंगे पांव चलता हूं, तो पैरों में बहुत चुभती हैं किरचे आसमां की.. वो चुरा हो गया है, वो मेरा आसमां चुरा हो गया है.’
गुलजार कहते हैं कि जब हम छोटे होते हैं, तो हमारे कितने सारे सपने, ख्वाहिशें होती हैं. जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, तो चलते-चलते न जाने वे सपने, वे ख्वाहिशें, वे शौक, वे कल्पनाएं कहां खो जाती हैं. यह कविता इसी के बारे में है.
क्या आपने कभी गौर किया है कि हमने अपना बचपन खो दिया है और उसके साथ ही खो दी हैं प्यारी-प्यारी चीजें, जो हमें सच में खुशी देती हैं. हम धन-दौलत, शोहरत कमाने के चक्कर में यहां से वहां भाग रहे हैं.
कुछ लोग तो अपने आप से ही भाग रहे हैं. सब इसलिए भाग रहे हैं, ताकि बाद में, पूरी उम्र निकल जाने के बाद आराम करें, खुशियों को इकट्ठा करें, जब हमारे अंदर ताकत ही न हो.