।। रविभूषण ।।
अमरकांत का आत्मीय व्यवहार, निश्छल हंसी सब आंखों के सामने है. 23 दिसंबर 2013 को जब अनीता के साथ उनसे मिलने गया था, सोचा भी नहीं था कि इतनी जल्दी वे हमेशा के लिए दूर हो जायेंगे. प्रेमचंद के बाद और स्वतंत्र भारत का हिंदी का सबसे बड़ा कथाकार अब हमारे बीच नहीं है. इलाहाबाद सूना हो गया.
उन्हें जितने सम्मान मिले-पहल, ज्ञानपीठ, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी सम्मान, उत्तर प्रदेश का हिंदी संस्थान पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, जन संस्कृति सम्मान, मध्य प्रदेश का ‘अमरकांत कीर्ति’ सम्मान- सब उनकी महान देन के समक्ष कम हैं. अमरकांत नयी कहानी’ के सर्वोत्तम पुरस्कार हैं.
पूर्वज जौनपुर के किसी नवाब के सिपहसालार भले रहे हों, अमरकांत साधारण मनुष्य के असाधारण कहानीकार हैं. अभी 22 दिसंबर 2013 को इलाहाबाद में जसम के कथासमूह के प्रथम आयोजन ‘कथामंच’ के तीसरे सत्र में हमलोगों ने उनकी कहानी ‘हत्यारे’ को आज के समय-संदर्भ में देखा-समझा था और यह कहा था कि अब तक किसी भी कथा-समीक्षक नामवर, देवीशंकर अवस्थी, सुरेंद्र चौधरी, विश्वनाथ त्रिपाठी और विजयमोहन सिंह ने इस कहानी का गंभीर-विस्तृत पाठ प्रस्तुत नहीं किया है. यह कहानी आजाद भारत (1947 से 1962) का पोस्टमार्टम करती है. अमरकांत की कहानियां अर्थध्वनियों-अर्थच्छायों को पकड़े बगैर नहीं समझी जा सकतीं. ‘नयी कहानी’ की मित्र-त्रयी (मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर) ने नयी कहानी की जेन्युन-त्रयी (अमरकांत, शेखर जोशी, मरकडेय) को किनारा किये.
नामवर ने ‘परिंदे’ को पहली नयी कहानी कहा था और निर्मल वर्मा की जम कर प्रशंसा की थी. जेन्युइन- त्रयी का अपना कोई आलोचक नहीं था. बाद में विश्वनाथ त्रिपाठी ने अमरकांत को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ा. सत्रह वर्ष की अवस्था में अमरकांत ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से जुड़े और वर्षो बाद ‘इन्हीं हथियारों से’ जैसा उपन्यास लिखा. एक दर्जन कहानी-संग्रह और ग्यारह उपन्यासों के इस लेखक ने नौ-दस बाल-साहित्य के साथ संस्मरण भी लिखा- ‘कुछ यादें, कुछ बातें’ और ‘दोस्ती’. अब बहुत कम लोग जानते हैं कि उनका एक नाम श्रीराम लाल था.
बाद में श्रीराम वर्मा हुए. एक साधु ने ‘अमरनाथ’ नाम दिया, जिसमें हल्का परिवर्तन कर और जातिसूचक सरनेम से मुक्ति पाने के लिए ‘अमरकांत’ हुए. अमरकांत जितने बड़े मनुष्य थे उतने ही बड़े कथाकार. बलिया (उत्तर प्रदेश) की रसड़ा तहसील के सुपरिचित गांव नगरा से सटे भगमलपुर गांव में जन्मे अमरकांत की आरंभिक शिक्षा नगरा के प्राइमरी स्कूल में हुई थी. फिर बलिया शहर के तहसीली स्कूल में दाखिल हुए.
पिता सीताराम लाल (मुख्तार) और मां अनंती देवी का यह पुत्र पहले समाजवादी पार्टी का सदस्य बना. ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने के लिए पढ़ाई छोड़ दी और आंदोलन में भाग लेने बलिया पहुंचे. आंदोलन समाप्त होने पर बलिया से इंटर किया (1946) और बीए के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे. बीए करने के बाद हिंदी और उसके साहित्य के लिए काम करने का संकल्प कर आजीवन उसका निर्वाह किया.
‘सैनिक’, ‘माया’ जैसे पत्रों में कार्य किया. पचास के दशक से अब तक अमरकांत का जीवन इलाहाबाद में ही बीता. न उन्होंने शहर छोड़ा, न अपनी कथाभूमि. न ‘आधुनिकता’ की चपेट में आये और न कभी ‘जन विमुख’ हुए.
स्वतंत्र भारत में अमरकांत जैसा मास्टर स्टोरी राइटर शायद ही कोई हो. स्वाभाविक है आलोचकों के लिए उनकी कहानियां समस्याएं पैदा करें. कहानी उन्होंने 1950 के पहले भी लिखी और प्रकाशित की, पर ‘डिप्टी कलक्टरी’ कहानी के प्रकाशन के बाद वे हिंदी कहानी के क्षितिज पर आ पहुंचे. 1998 में उनकी संपूर्ण कहानियों के दो खंड प्रकाशित हुए थे, जिनमें कुल 89 कहानियां हैं.
अभी पिछले वर्ष ज्ञानपीठ ने उनकी संपूर्ण कहानियों (कुल 128) के दो खंड प्रकाशित किये हैं. 89 वर्ष की उम्र में भी उनकी लेखनी कभी नहीं रुकी. विगत पंद्रह वर्ष में उन्होंने और 39 कहानियां लिखीं. 1955 के कहानी-विशेषांक में प्रकाशित ‘दोपहर का भोजन’ के बाद 1956 के कहानी-विशेषांक में प्रकाशित और अखिल भारतीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ के बाद उन्हें राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई.
‘जिंदगी और जोक’ का रजुआ ‘कफन’ के घीसू-माधव का सगा-संबंधी दिखायी पड़ता है. रजुआ की जिंदगी पशु की है. स्वतंत्र भारत का यह पात्र भारत की स्वतंत्रता पर प्रश्न-चिह्न् भी है.अमरकांत का कथा-संसार भारतीय है और विश्वसनीय भी. पचास और साठ के दशक में ही उनकी कहानियां जिस भारत का चित्र प्रस्तुत करती हैं, वह किसी भी अर्थ में ‘आधुनिक’ नहीं कहा जा सकता. अमरकांत प्रगतिशील लेखक संघ से पचास के दशक से जुड़े रहे थे.
उनकी प्रगतिशीलता वास्तविक थी. उनकी अपनी विश्व-दृष्टि थी, जो उनकी रचनाओं में दिखायी देगी. कुछ कथालोचकों को उनकी कहानियों ‘अपने समय के बनते-बिगड़ते इतिहास की प्रामाणिक स्केच-बुक’ भले प्रतीत हो, पर यह सच है कि भारतीय जीवन और यथार्थ वहां व्यक्त है, चित्रित है. भारतीय निम्न मध्यवर्गीय मनुष्य अपनी सभी खूबियों-खराबियों के साथ वहां मौजूद हैं. द्वंद्वात्मकता, नाटकीयता और विसंगतियां उनकी कहानियों में विद्यमान हैं.
यह प्रेमचंद की तरह हमारा अपना कथाकार है, जिसमें धरती और माटी की गंध के साथ एक अद्भुत किस्म की सरलता-सहजता है. वहां स्थिति और मन:स्थिति का एक विरल संयोग है. भाव-जगत के साथ वस्तु-जगत की ऐसी पकड़ और पहचान दुर्लभ है. अमरकांत हिंदी के ही नहीं, भारत के महान कथाकार हैं.