वैश्विक संस्था यूनिसेफ झारखंड की पंचायतों व पंचायत प्रतिनिधियों के बहुआयामी विकास के प्रयास में लगी है. संस्था निरंतर पंचायत प्रतिनिधियों के लिए प्रशिक्षण, क्षेत्र भ्रमण जैसे कार्यक्रम भी चलाती है. इसके प्रयासों से झारखंड के ग्रामीण अंचलों में बदलाव भी दिख रहा है. यूनिसेफ के कार्यक्रम, भावी योजनाओं व झारखंड की पंचायतों की जरूरतों पर यूनिसेफ के प्रोग्राम ऑफिसर कुमार प्रेमचंद से राहुल सिंह ने बातचीत की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
यूनिसेफ ग्रामीण विकास के किन क्षेत्रों पर विशेष जोर देता है. झारखंड के परिप्रेक्ष्य में ग्रामीण विकास से जुड़ी कौन-सी चीजों पर विशेष फोकस किया जा रहा है?
हमलोग राज्य स्तर पर तीन तरह का एडवोकेसी कार्यक्रम चलाते हैं. पहला, हमारे देश के संविधान ने हमें कितने प्रकार के अधिकार दिये हैं, उसके हिसाब से काम हो यह हमारा प्रयास है. दूसरा चुने हुए पंचायत प्रतिनिधियों का क्षमतावर्धन हो. इसके लिए निरंतर उनका प्रशिक्षण कार्यक्रम व अन्य दूसरे कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं. तीसरा सामुदायिक स्तर पर कैसे बेहतर कार्य हो. हम इन तीनों चीजों पर फोकस करते हुए कार्य करते हैं. हमारा प्रयास मल्टी सेक्टर एप्रोच हैं, यानी एक साथ कई प्रमुख बिंदुओं के लिए हम काम कर रहे हैं. हम अपने कार्यक्रम में इन चीजों पर बात करते हैं.
हम अभी राज्य के 52 हजार पंचायत प्रतिनिधियों में मात्र साढ़े चार हजार या पांच हजार पंचायत प्रतिनिधियों की बात करते हैं. ये प्रतिनिधि मुखिया, जिप अध्यक्ष या प्रखंड प्रमुख जैसे पदों पर हैं. जबकि तीनों निकायों के सदस्य जो अधिक बड़ी संख्या में हैं, वे छूट जा रहे हैं. हमें इन सबों पर फोकस करने की जरूरत है. लोग अब तक पंचायती राज को समझ नहीं सके हैं कि यह उनकी सरकार है. अभी लोग यही समझ रहे हैं कि फंड मिल जायेगा, काम कर लेंगे. जबकि यह समझना आवश्यक है कि यह शॉर्ट टर्म योजना नहीं है. यह दीर्घकालिक कार्ययोजना है. इसके लिए लंबी योजना होनी चाहिए. यह व्यवहारात्मक परिवर्तन है. यह समझना आवश्यक है कि जिस काम के लिए हम ब्लॉक में दौड़ते हैं, वह पंचायत में ही हो सकता है.
पंचायत प्रतिनिधियों के लिए यूनिसेफ लगातार प्रशिक्षण व अन्य प्रकार के कार्यक्रम का संचालन कर रहा है. उनके निर्वाचित हुए तीन साल से ज्यादा समय हो चुके हैं. इन तीन वर्षो में उनमें किस तरह का बदलाव आप महसूस करते हैं?
महिला प्रतिनिधि यहां ज्यादा सशक्त हैं. वह धुरी हैं. 57 प्रतिशत महिलाएं पंचायती राज व्यवस्था में चुन कर आयी हैं. इनमें कुछ करने का जज्बा है. इनके लिए हम प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाते हैं, लेकिन यह एक समय की गतिविधि नहीं है. एक या दो प्रशिक्षण में वे कितना सीखेंगे. यह एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए. जैसे, उन्हें जितने विभागों के लिए अधिकार स्थानांतरित किये गये हैं, उन सबों से संबंधित प्रशिक्षण चलाया जाना चाहिए. पंचायत प्रतिनिधियों के लिए हर प्रमंडल में ट्रेनिंग इंस्टिटय़ूट होना चाहिए. अभी मात्र दो संस्थान हैं (एक रांची और एक देवघर के जसीडीह में), वह भी सक्रिय नहीं हैं. दूसरी बात कि जो कानून या नियमावली हैं, उसके सरलीकरण की आवश्यकता है. ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं है. पंचायत प्रतिनिधियों को चार चीजें बतायें कि यह उन्हें करना चाहिए.
महिला पंचायत प्रतिनिधियों के फैसले क्या परिवार व पति से अब भी प्रभावित होते हैं. अगर नहीं तो वे कितने स्वतंत्र हैं?
देखिए, महिला प्रतिनिधियों पर कुछ न कुछ तो असर परिवार-पति का रहता ही है. लेकिन बदलाव आ रहा है. वे स्वतंत्र फैसले ले रही हैं. अभी वे केरल के यात्र पर गयीं तो अकेले गयीं. वहां उन्होंने जो चीजें देखी है, उस पर चार्टर बनाया है. ऐसी योजनाएं जिसको लागू करने या प्रभावी बनाने में फंड की जरूरत नहीं पड़ती है, उसके लिए वे काम करेंगी. वे आंगनबाड़ी केंद्र, स्कूल, पंचायत सचिवालय व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की सेवा को ज्यादा बेहतर बनाने के लिए कार्य करेंगी.
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिस तरह यहां के पंचायत प्रतिनिधि व अन्य लोग दूसरे प्रदेशों में मॉडल पंचायतों का दौरा करने जाते हैं. उसके उदाहरण दिये जाते हैं. हमारे यहां भी इस तरह की 10-20 मॉडल पंचायतें व गांव बनें?
बिल्कुल. इसी दिशा में पहल करते हुए हमलोगों ने अगुवा पंचायत बनाने की योजना पर काम शुरू किया. इसमें कुछ बिंदुओं पर बेहतर परिणाम मिले. जैसे, पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला प्रखंड की बनकट्टी व चाकुलिया के कुचियाशौली में शत-प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण हुआ है. घाटशिला के ही बागुड़िया में जन्म पंजीकरण का अच्छा काम हुआ है. हमलोग इस तरह की कुछ पंचायत जो किसी विशेष क्षेत्र में बेहतर लक्ष्य हासिल कर सकें, उन्हें तैयार करने की कोशिश में लगे हैं. हमने पिछले दिनों पूर्वी सिंहभूम के कई मुखियों को पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा भेजा, ताकि वे वहां से कुछ चीजें देख-सीख सकें. पंचायत प्रतिनिधियों के लिए ट्रेनिंग इंस्टिटय़ूट चाहिए. हम मॉडल बना सकते हैं, पर उसका फॉलोअप करना होगा.
अगुवा पंचायत बनाने की योजना शुरू की गयी है. अगुआ पंचायतों की स्थिति कैसी है? वहां किस तरह के बदलाव हुए? बाल मित्र पंचायत की भी बात चल रही है?
देखिए, हमलोग 100 अगुवा पंचायत की योजना पर काम कर रहे हैं. इसमें गुमला-सिमडेगा की 25-25 पंचायतें हैं और राज्य भर से कुल 100 पंचायतें हैं. हमलोगों ने सिमडेगा व पूर्वी सिंहभूम की 10 पंचायतों में यह प्रयोग किया है कि वहां शत-प्रतिशत संस्थागत प्रसव व टीकाकरण हो, बाल श्रम व बाल विवाह नहीं हो, जन्म पंजीकरण हो. इन पांच बिंदुओं पर हम फोकस कर काम रहे हैं. इसके परिणाम अच्छे आये हैं.
अगुवा पंचायत का ही अगला चरण है बालमित्र या बाल हितैषी पंचायत बनाना. हमारी योजना ऐसी हर पंचायत में बाल संसद बनाने की है. वहां एक ग्रुप बना कर हम बच्चों को जानकारी देंगे. क्योंकि वहीं बच्चे कल को पंचायती राज व्यवस्था के हिस्से बनेंगे, नेता बनेंगे या जीवन के अन्य क्षेत्रों में काम करेंगे.
हमारे यहां पंचायतों में कौन-सी ऐसी कमी है, जो उसे केरल या दूसरे विकसित राज्यों की पंचायतों से मुकाबले में पीछे कर देती है?
हमारे यहां पंचायत की प्लानिंग नहीं होती है. जबकि इसे अनिवार्य किये जाने की जरूरत है. सरकार जिस तरह पंचवर्षीय योजना बनाती है, उसी तरह पंचायतें भी अपने लिए योजना बनायें. उसे हर साल अपग्रेड करे. केरल में हर पंचायत प्लान बनाती है और उसकी पिंट्रेड कॉपी सरकार के पास जमा करती है, जिसके आधार पर उसे सहायता मिलती है. उसी तर्ज पर यहां भी प्लान बनायें.
केरल दौरे से लौटीं पंचायत प्रतिनिधि कुडुंबश्री की काफी तारीफ कर रही हैं. उनकी उम्मीदें काफी बढ़ी हुई हैं?
झारखंड में भी ऐसा हो सकता है. यहां की महिलाएं मेहनती हैं. अगर ऐसा कुछ होगा तो वे बेहतर प्रदर्शन करेंगी.
एनजीओ की क्या भूमिका यहां के गांवों के विकास में हो सकती है?
एनजीओ पुल का काम करते हैं. वे सिर्फ इस संकुचित दायरे में नहीं रहें कि यह हमारे मुखिया हैं या यह हमारी पंचायत है. वे पंचायतों व प्रतिनिधियों को जरूरी जानकारी दें. उनकी बातों पर गांव-पंचायत के लोग विश्वास करते हैं. अगर वे चाहें तो 32 सालों के गैप को भर सकते हैं.
कुमार प्रेमचंद
प्रोग्राम ऑफिसर
यूनिसेफ झारखंड