।। रवि दत्त बाजपेयी ।।
समुचित शिक्षा, कौशल एवं रोजगार देना एक बड़ी चुनौती
भारत में शिक्षा की असली चुनौती सर्व शिक्षा अभियान नहीं, बल्कि ऐसी राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था की तलाश है, जो समुचित टैक्स वसूल कर उसे शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने का माद्दा रखती हो. पढ़िए, सातवीं कड़ी. आज भारत में जिस व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है उसका सबसे प्रभावी और अहिंसक अभियान शिक्षा ही बन सकती है, समुचित रूप से शिक्षित जनसंख्या ही किसी भी देश की सबसे मूल्यवान राष्ट्रीय संपत्ति है. आज भारत की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग युवा या 18-35 आयु वर्ग का है, इन्हें समुचित शिक्षा, कौशल एवं रोजगार देना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है.
भारत में प्राथमिक व माध्यमिक स्कूली शिक्षा की स्थिति बेहद चिंताजनक है, जहां स्कूली पढ़ाई अधूरी छोड़ने वाले बच्चों की संख्या बहुत अधिक है, वहीं स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद भी अधिकतर विद्यार्थियों की शिक्षा दोषपूर्ण या अपर्याप्त ही रह जाती है. स्वतंत्रता के बाद से भारत में स्कूली शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय प्रगति हुई है, स्कूली शिक्षा के इस प्रसार ने विद्यार्थियों की संख्या तो बढ़ा दी है लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता को बहुत घटा दिया है. भारत में प्राथमिक शिक्षा में कार्यरत गैर-सरकारी संगठन प्रथम की 2013 की शिक्षा की स्थिति पर वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाकों के स्कूलों के कक्षा पांच के लगभग आधे विद्यार्थी दो अंकों की संख्याओं को घटाने में, 75 फीसदी विद्यार्थी दो संख्याओं का भाग देने में असमर्थ थे, कक्षा पांच के आधे विद्यार्थी दूसरी कक्षा की पुस्तकों को पढ़ने में भी असफल रहे. अधिकतर सरकारी और अनेक निजी स्कूलों में शिक्षा के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा नहीं है, शिक्षकों, किताबों, कक्षा भवनों के अभाव के अलावा, पीने का स्वच्छ पानी, लड़कियों के लिए प्रसाधन, पुस्तकालय जैसी सुविधाएं नहीं है.
अध्यापकीय कार्य के लिए उपयुक्त व प्रशिक्षित अध्यापक उपलब्ध नहीं हैं, इसके अलावा पूर्णत: समर्पित व योग्य शिक्षक भी अपनी कक्षा के 50 फीसदी सामान्य विद्यार्थियों को ही पढ़ाते है जबकि विद्यार्जन में अपने सहपाठियों से पीछे चल रहे बाकी विद्यार्थियों को उनके भाग्य पर छोड़ देते है.
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के इन 50 फीसदी विद्यार्थियों के लिए पहले आठ वर्षों की स्कूली शिक्षा का अधिकार कोई मायने नहीं रखता है. नये स्कूल भवन व अन्य बुनियादी सुविधाओं को बढ़ाने में भारी निवेश भी इन विद्यार्थियों को उनकी क्षमता के अनुरूप शिक्षित करने में प्रभावी नहीं हो सकता, ऐसे विद्यार्थियों को उनकी आयु के अनुसार नहीं बल्किउनकी विद्या-बुद्धि-क्षमता के अनुसार कक्षाओं में वर्गीकृत करने की आवश्यकता है.
भारत में अपनी स्कूली शिक्षा अधूरी छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत अधिक है, इन लोगों की संख्या के अनुरूप पर्याप्त औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान भी उपलब्ध नहीं हैं. इस विशाल अल्प शिक्षित व अप्रशिक्षित जनसंख्या से भारत को भारी आर्थिक हानि भी है चूंकि इन्हें उद्योगों में काम मिलना संभव नहीं है और इन्हें अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में न्यूनतम मजदूरी पर काम करने की बाध्यता है.
भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा में कुल योग्य विद्यार्थियों में से केवल 14 फीसदी के लिए ही स्थान उपलब्ध है, विकसित देशों में यह औसत 70-80 प्रतिशत के बीच है, भारत का मानव संसाधन विकास मंत्रलय, वर्ष 2020 तक इस नामांकन दर को 30 प्रतिशत तक पहुंचाना चाहता है. इसका अर्थ हुआ कि अगले छह वर्षों में विश्वविद्यालयों में 2.5 करोड़ नये विद्यार्थियों को प्रवेश के लिए स्थान बनाने होंगे, एक अनुमान से इतने नये विद्यार्थियों के लिए 10,500 तकनीकी संस्थान, 15,500 महाविद्यालय और 600 विश्वविद्यालय स्थापित करने होंगे.
उच्च शिक्षा की इतनी विहंगम व्यवस्था निर्माण हेतु भारत में आवश्यक नीयत, नीति या निवेश के लिए अभी कोई प्रतिबद्धता या व्यग्रता नहीं दिखाई पड़ती है. केवल उच्च शिक्षा के नये संस्थान स्थापित करने से पहले यह भी गौर करना होगा कि आज वैश्विक उच्च शिक्षण संस्थानों की सूची के पहले 200 स्थानों में भारत का एक भी संस्थान शामिल नहीं है. भारत में उच्च शिक्षा उपाधि प्राप्त स्नातकों में से बहुत कम लोगों के पास नौकरी या व्यवसाय के लिए आवश्यक न्यूनतम योग्यता होती है, जिस वजह से इन नये लोगों को नौकरी देने के बाद इनके कौशल व ज्ञान को बढ़ाने के लिए अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है.
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारत में सरकारी से अधिक तेजी से निजी निवेश हुआ है और 1990 के बाद से अचानक बड़ी संख्या में निजी विश्वविद्यालय व अन्य तकनीकी संस्थान स्थापित किये गये है. कुछ अपवादों को छोड़ कर इन निजी संस्थानों ने अपने आप को एक व्यावसायिक मॉडल पर चलाया है जिसमें इन संस्थाओं का उद्देश्य, उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान करने के बजाय ऊंची फीस पर उपाधियों का वितरण करना है.
ये निजी संस्थाएं अपने आप को सेवा उद्योग (सर्विस इंडस्ट्री) के रूप में देखती है, इनसे पढ़ कर निकले विद्यार्थियों को अभी भारत में तेजी से बढ़े कंप्यूटर आउटसोर्सिग, बीपीओ, अन्य सेवा उद्योगों में नौकरियां मिल रही हैं. जब तक इन निजी संस्थाओं को अपने लिए तगड़ी फीस देनेवाले विद्यार्थी मिल रहे हैं तब तक इन संस्थाओं को भारत की उच्च शिक्षा में दूरगामी सुधार लाने का प्रयास करने की कोई दिलचस्पी नहीं है.
भारत में प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को उनके भारतीय कैंपस खोलने देने पर लंबे समय से विवाद चल रहा है, अधिकतर भारतीय संस्थानों ने इन विश्वविद्यालयों से विद्यार्थी विनिमय या अन्य प्रकार के सहयोग-साझीदारी के करार किये हुए हैं. सिंगापुर, यूनाइटेड अरब अमीरात, कतर जैसे देशों ने प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने यहां बुलाने के लिए जमीन, अन्य बुनियादी सुविधाएं व अनेक सहूलियतें प्रदान की है, भारत को भी इन विश्वविद्यालयों को यहां बुलाने पर गंभीरता से विचार करना होगा.
वर्ष 1964 में शिक्षा में सुधारों के लिए गठित कोठरी आयोग ने शिक्षा के मद में जीडीपी का छह फीसदी खर्च करने का सुझाव दिया था, भारत सरकार ने कभी भी शिक्षा पर इतना खर्च नहीं किया है. वर्ष 2013 में अपना वित्तीय घाटा कम करने के लिए भारत सरकार ने शिक्षा बजट में छह फीसदी, लगभग 4000 करोड़ रु पये की कटौती की थी, इसी वर्ष भारत सरकार ने बड़े कारपोरेट घरानों से मिलने वाले टैक्स के 5.8 लाख करोड़ रु पये छोड़ दिये थे. भारत में शिक्षा की असली चुनौती सर्व शिक्षा अभियान नहीं बल्कि ऐसी राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था की तलाश है, जो समुचित टैक्स वसूल कर उसे शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने का माद्दा रखती हो.