क्या महाराष्ट्र में जारी मराठा आंदोलन दलित विरोधी है? क्या इसकी मांगों का प्रभाव दलित और ओबीसी समाज पर पड़ेगा?
मैंने आंदोलन में शामिल मराठा युवाओं के सामने यही सवाल रखा. उन्होंने एकजुट हो कर कहा कि उनका आंदोलन किसी समुदाय और जाति के ख़िलाफ़ नहीं है. कोल्हापुर में हाई स्कूल अध्यापिका आरती बाबू देवड़े कहती हैं, "किसी धर्म, जात, पंथ या समाज के ख़िलाफ़ हमारा आंदोलन नहीं है"
मराठा महिलाओं और बुज़ुर्गों का जवाब भी यही था.
यही सवाल दलितों के एक गुट से पूछा गया तो जवाब अलग-अलग आए. दलितों के महार समाज की राय थी कि मराठा आंदोलन दलित विरोधी है.
दलित पैंथर्स ऑफ़ इंडिया नाम की दलित संस्था के अध्यक्ष बप्पूसाहेब भोंसले कहते हैं कि दलितों में आक्रोश है.
वो कहते हैं,"ये आक्रोश इतना अधिक हो गया है कि इसे अब कोई नेता रोक नहीं सकता"
महार समुदाय ने मराठा आंदोलन की प्रतिक्रिया में कुछ शहरों में अपने मोर्चे भी निकाले हैं. ये मोर्चे दलित सियासी पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेतृत्व में निकाले गए हैं
लेकिन दलितों का बहुमत साफ़ तौर पर ऐसा नहीं कहता कि मराठा आंदोलन दलित विरोधी है. उनकी प्रतिक्रियाओं से महसूस हुआ वो अभी हालात को परख रहे हैं. मगर घुमंतू समाज के एक्टिविस्ट बालचंद्र सावंत के अनुसार मराठा आंदोलन जातिवाद को बढ़ावा दे रहा है.
वो कहते है, "हम जातिवाद के विरोध में लड़ रहे हैं लेकिन मराठा आंदोलन इसको बढ़ावा दे रहा है"
मराठा आंदोलन की शुरुआत 13 जुलाई को अहमदनगर के एक गाँव कोपरडी में हुई एक गंभीर घटना से हुई.
पुणे शहर से 125 किलोमीटर कोपरडी गाँव का सब से पहला घर खेतों के बीच इस तरह से आबाद है कि आपकी निगाह शायद उधर जाए भी नहीं. लेकिन एक कमरे वाला ये कच्चा-पक्का घर मराठा आंदोलन का जाने-अनजाने में केंद्र बिंदु बन गया है.
पिछले कुछ महीनों में इस छोटे से घर में बड़े-बड़े लोग आ चुके हैं जिन में मराठा नेता शरद पवार भी शामिल हैं.
इस घर से 13 जुलाई को एक मराठा लड़की शाम में बाहर निकली मगर दोबारा कभी वापस नहीं लौटी. उसी दिन गाँव के ही तीन लड़कों ने उसका कथित तौर पर बलात्कार किया और उसकी हत्या कर दी
पीड़ित लड़की मराठा. गिरफ़्तार होने वाले तीन युवा दलित. इस घटना को लेकर मराठा समाज सड़कों पर आ गया. पहला मोर्चा औरंगाबाद में हुआ. उस मोर्चे में मराठों ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को ख़त्म करने की मांग की.
उनका तर्क था कि दलित इस क़ानून का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन बाद में अधिनियम में संशोधन करने की मांग ने ज़ोर पकड़ा
क़ानून में बदलाव की मांग हो या इसे ख़त्म करने की दलील, इससे आम दलितों में चिंता पैदा हुई है. मराठों के आरक्षण की मांग ने भी दलित और ओबीसी समुदायों में बेचैनी पैदा की है
लेकिन क्या मराठा आंदोलन सही में दलितों के ख़िलाफ़ है? क्या उनकी आरक्षण की मांग ओबीसी कोटे को मिले आरक्षण पर असर डाल सकती है?
बप्पूसाहेब भोंसले के अनुसार ये मनुवादी साज़िश है. वो कहते हैं, "गुजरात में पाटीदार आंदोलन हो रहा है. हरियाणा में जाटों का आंदोलन है, राजस्थान में मेघवाल का आंदोलन है. और यहाँ मराठों का. परोक्ष रूप से ये सब दलितों के ख़िलाफ़ ही जा रहा है.".
दलितों, मुसलमानों और ओबीसी समुदायों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता विलास सोनावणे कहते हैं कि मराठा आन्दोलंन ओबीसी या दलितों के खिलाफ नहीं है.
वो कहते हैं, "मैं ओबीसी संगठन का कार्यकारी अध्यक्ष रह चुका हूँ. हम लोगों ने आज तक (इसके ख़िलाफ़) प्रतिक्रिया नहीं दी. इसलिए कि हम जानते हैं कि ये मोर्चा हमारे ख़िलाफ़ नहीं है."
विलास सोनावणे के अनुसार सच ये है कि दलित समाज और ओबीसी समुदायों में मराठा आंदोलन के ख़िलाफ़ डर पैदा करने की कोशिश की जा रही है. उनके अनुसार ये कोशिश आरएसएस कर रहा है. बप्पूसाहेब भोसले भी दलितों में डर फैलाने की कोशिश का ज़िम्मेदार आरएसएस को मानते हैं.
पूर्व न्यायाधीश कोलसे पाटिल भी आरएसएस के ख़िलाफ़ दलितों में अशांति फैलने का आरोप लगाते हैं. लेकिन मराठा आंदोलन और जाति पर आधारित दूसरे सभी आंदोलनों के पीछे ‘ ब्राह्मणवादियों’ का हाथ बताते हैं.
उनका कहना है, "मैं पक्के दावे से कहता हूँ कि ये ब्राह्मणवादियों की चाल है. यदि हम सब जाति और धर्म को छोड़ कर अपनी मांगों के लिए लड़ें तो हम ये सब कुछ हासिल सकते हैं. लेकिन हमें जाति के आधार पर बाटा जा रहा है."
उनके अनुसार ब्राह्मण ऐसा ”डिवाइड एंड रूल” यानी फूट डालो और शासन करो की पालिसी के अंतर्गत ऐसा कर रहे हैं
मराठा आंदोलन को क़रीब से देखने के बाद और दलितों की कई आवाज़ें सुनकर ये कहा जा सकता है कि मराठा आंदोलन को स्पष्ट तौर पर दलित विरोधी नहीं कहा जा सकता. हाँ आंदोलन की तह तक जाएँ तो दलितों के ख़िलाफ़ दबी हुई नाराज़गी इसमें ज़रूर दिखती है.
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