जब पति और पत्नी साथ नहीं रह सकते तो वे अलहदा रास्ता अख्तियार कर लेते है या तलाक ले लेते हैं, सुलझे हुए परिवारों में यह काम अच्छे अंदाज से हो जाता है और उलझे हुए परिवारों में यह मारपीट के बाद हो जाता है.
ऐसा बहुत कम होता है कि पति और पत्नी में से कोई एक दूसरे को बांध कर साथ रख सके. समाज भी इस बात को कबूल कर लेता है कि अगर आप साथ नहीं रह सकते तो अलग हो जाएं. दुनिया के हर मां और बाप जब एक साथ नहीं सकते हैं तो उनकी कोशिश होती है कि वे बच्चे भी एक दूसरे से छीन लें.
अगर झगड़ा बढ़ जाए तो अदालत या पंचायत बीच में पड़ती है. बच्चा सयाना हो तो उसकी मर्जी मालूम की जाती है. सयाना न हो तो अदालत यह देखती है कि मां बाप में से कौन इस उम्र में उसकी अच्छी देख रेख कर सकता है. मगर बच्चे का यह हक मान लेने के बाद कि वह जब चाहेगा मां या बाप से मिल सकेगा या उसके साथ वक्त बिता सकेगा. यूं बच्चे के साथ होने वाली ज़्यादती की भरपाई किसी तरह की जाती है.
दुनिया के हर मां बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे एक छते तले रहें, हंसी खुशी रहें, और हर दुख सुख मिल बांट कर झेलें. पर ऐसा भी हो जाता है कि मां बाप के होते या उनके मरने के बाद भाइयों या बहनों में नहीं बनती. ये हंसी खुशी भी हो जाता है और कभी सिर फुट्टौवल भी हो जाती है. बात यहां तक भी बिगड़ जाती है कि खून के रिश्ते खून के प्यासे हो जाते हैं.
मगर समाज या कानून बच्चे का यह हक़ तसलीम करता है कि वह मां या बाप के साथ जहां चाहे रहे या न रहे. हम जो भाइयों और बहनों को यह हक़ देने में कोई आपत्ति महसू नहीं करते, हम जो यह मानते हैं कि बच्चे चाहें तो एक छत के नीचे हंसी खुशी रहें और न चाहें तो अपना हिस्सा लेकर अलग हो जाएं.
मगर हम जो हक एक व्यक्ति को देने को तैयार होते हैं, इनमें से कोई हक किसी देश में किसी कौम या इलाक़े को देने को तैयार नहीं होते हैं. भले इसके लिए हमे ख़ून की नदियों से गुजरना भले, भले ही कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े.
मगर कई देश ऐसे भी हैं जो अपनी चारदीवारी मे रहने वालों को यह हक़ देते हैं कि जब चाहो चले जाओ जब चाहो लौट आना. क्या अजब दुनिया . ईस्ट तिमोर, साउथ सूडान, इरीट्रिया और बांग्लादेश भी इसी दुनिया में है.
ज़ाफ़ना के तमिल, कश्मीरी, बलोच और कुर्द भी इसी दुनिया में हैं. दूसरी तरहफ स्कॉटलैंड, कोबेक, चेक और स्लोवाकिया, पूर्व सोवियत यूनियन भी इसी दुनिया में हैं. है न अजीब दुनिया?
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