दोपहर के साढ़े बारह बजे हैं और दिल्ली में हुमायूँ मक़बरे के पीछे खानख्वाह- हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की इबादतगाह- में एक दुबला-पतला अंग्रेज़ नमाज़ पढ़ रहा है.
उनकी सफ़ेद लहलहाती हुई दाढ़ी, सिर पर अफ़ग़ान टोपी और पैजामे की जगह सिक्स-पॉकेट वाली ख़ाकी पैंट से नज़र हटाना मुश्किल है.
मिलिए 66 साल के जॉन मोहम्मद बट से, जो पैदा हुए थे वेस्टइंडीज़ के ट्रिनिडाड में लेकिन जब सातवीं क्लास में आए तो ब्रितानी माँ-बाप ने पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया.
जॉन मोहम्मद ने बताया, "पढ़ाई में मन नहीं लगा क्योंकि मैं बचपन से ही बाग़ी था. कुछ साल बाद ही सब छोड़-छाड़ कर, हिप्पी बन, निकल पड़ा दुनिया घूमने. मुझ पर बॉब डिलन का प्रभाव था".
पाकिस्तान की स्वात घाटी पहुँचने पर जॉन ने इसे ही अपना घर बनाने की ठानी.
जगह की खूबसूरती के साथ स्वात के रीति-रिवाजों में रमते चले गए जॉन को ईसाई धर्म त्याग कर इस्लाम अपनाने में ज़्यादा समय नहीं लगा.
उन्होंने बताया, "पाकिस्तान में तमाम धार्मिक गुरुओं से इस्लाम सीखता रहा. करीब सात साल बिताने के बाद स्वात में मैंने अपने इमाम से पूछा कि आप की तालीम तो दिल्ली की है, क्या मैं वहां जाकर पढाई करूँ? उनका जवाब था कि भारत इतनी बेहतरीन जगह है कि वहां कुत्तों में भी आदमीयत ( इंसानियत) होती है. बस देवबंद के एक छोटे से कमरे में रह कर इस्लाम की तालीम लेते हुए मैंने सीखा कि इस मज़हब में सभी के लिए जगह है और यहाँ अतिवादी ख़्याल बिलकुल भी नहीं".
कुछ देर बाद मैं और जॉन मोहम्मद बट निज़ामुद्दीन की गलियों से गुज़र रहे थे और वे देवबंद में बिताए अपने दिनों को याद कर रहे थे.
1976-84 के बीच भारत के दारुल-उलूम-देवबंद में इस्लामी तालीम लेने के बाद जॉन मोहम्मद बट वापस स्वात घाटी लौट कर रहने लगे.
केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में कभी-कभार पढने भी जाते रहे और बीबीसी पश्तो सेवा के लिए 1990 के दशक में डॉक्यूमेंट्री भी बनाई.
इस बीच स्वात घाटी में हालात बदल रहे थे और हिंसक घटनाएं होनी शुरू हो चुकी थीं.
जॉन ने बताया, "स्वात में आई भीषण बाढ़ में मेरा घर बह गया. एक तरह सही ही हुआ क्योंकि बढ़ते तालिबानी प्रभाव से मैं खुद ही अपनी पसंददीदा जगह छोड़ देता. माहौल ख़राब हो चुका था और एक दूसरे की मदद करने वाले मेहमान-नवाज़ लोग एक दूसरे के दुश्मन बन चुके थे. भारत के देवबंद में जो सब्र सीखा था, पकिस्तान-अफ़ग़ान सीमा पर प्रचलित देवबंदी धारा में उसका विपरीत देखने को मिल रहा था".
इन दिनों जॉन साहब साल के नौ महीने अफ़ग़ानिस्तान में बिताते हैं और तीन महीने भारत के कुमाऊं में.
बात करते-करते जॉन मोहम्मद साहब हमें दिल्ली के भोगल इलाके में एक पख्तून परिवार से मिलवाने ले गए.
लाख मना करने पर भी मुझे और सहयोगी, काशिफ़, को दोपहर में बेहतरीन अफ़ग़ानी खाना खिलवा कर ही दम लिया जॉन मोहम्मद बट ने.
जब वे हमारे साथ ज़मीन पर बैठ कर ज़ाफ़रान के गोश्त पुलाव और अफ़ग़ानी रोटी के लुक़मे तोड़ रहे थे तो मेरे ज़हन में कुछ और ही ख़्याल था.
दशकों पहले जब ट्रिनिडाड से इस ब्रितानी बच्चे ने इंग्लैंड जाने वाले जहाज़ में कदम रखा था तब और आज में कितना कुछ बदल गया है. दुनिया में भी और इनकी ज़िन्दगी में भी.
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