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अंजुम चौधरी की ज़बान ब्रिटेन ने कैसे बंद की

डॉमिनिक कैसियानी बीबीसी संवाददाता 20 सालों तक मुसलमानों और बाक़ी ब्रिटेनवासियों के बीच दीवार खड़ी करने वाले अंजुम चौधरी को दूसरों को इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने के लिए उकसाने का दोषी क़रार दिया गया है. अंजुम चौधरी सालों से सड़कों के किनारे, शॉपिंग मॉल्स, मस्जिद, दूतावासों और पुलिस थानों के बाहर देखे जाते रहे […]

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20 सालों तक मुसलमानों और बाक़ी ब्रिटेनवासियों के बीच दीवार खड़ी करने वाले अंजुम चौधरी को दूसरों को इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने के लिए उकसाने का दोषी क़रार दिया गया है.

अंजुम चौधरी सालों से सड़कों के किनारे, शॉपिंग मॉल्स, मस्जिद, दूतावासों और पुलिस थानों के बाहर देखे जाते रहे और अपने माइक्रोफ़ोन की मदद से उन्होंने मुसलमानों और दूसरे ब्रिटेनवासियों के बीच दूरी बनाने का काम किया.

जगह बदल जातीं, लेकिन उनके शब्द वही रहते. उनकी पसंदीदा भविष्यवाणी थी, डाउनिंग स्ट्रीट के ऊपर इस्लाम का झंडा फहराएगा.

वो कहते थे, "शरिया लागू कराने के लिए मुसलमान उठ खड़े हो रहे हैं…पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और शायद, मेरे प्यारे मुसलमानों, लंदनिस्तान."

उनका पहनावा हमेशा अच्छा होता था और वो पत्रकारों का मुस्कान और कुछ धूर्तता के साथ अभिवादन किया करते थे.

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एक दिन रीजेंट पार्क मस्जिद के बाहर इकट्ठा हुई भीड़ से उन्होंने कहा कि वो उनके शुक्रगुज़ार हैं कि वो उनके भाषण को सुनने के लिए पहुंचे. उन्हें मस्जिद के भीतर भाषण देने से मना कर दिया गया था.

उन्हें खेल खेलना बेहद पसंद था. इससे उन्हें एहसास होता था कि वो जीत रहे हैं.

लेकिन ये खेल नहीं था. सबूतों से पता चलता है कि अंजुम चौधरी ब्रिटेन के सबसे ख़तरनाक लोगों में से एक हैं.

वो बम बनाने वाले नहीं हैं. ना ही बेचने वाले. लेकिन एक विचारक, एक चिंतक जो लोगों को उनके विचारों के प्रसार के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने की सलाह देते थे.

अंजुम चौधरी की मानसिकता बहुत सरल है. दो दुनिया हैं – एक दुनिया है यक़ीन की जिसमें मुसलमान आते हैं और दूसरी अविश्वास की जिसका हिस्सा हैं दूसरे लोग.

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उनके ज़हन में ये बात साफ़ है कि इसमें किसी तरह का मेल नहीं हो सकता है, दोनों विचार कभी नहीं मिल सकते.

उनके लिए उदार लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोगों के लिए क़ानून का पालन जो प्रजातंत्र में जनता के ज़रिये आता है, सब अल्लाह की इच्छा का अपमान करना है.

और इन सबका समाधान क्या है? पूरी दुनिया के लिए शरिया क़ानून के तहत एक इस्लामी राज्य बने.

अगर आप उनसे असहमत हैं? तो आप उनके साथ नहीं. उनके खिलाफ़ हैं – उनके शत्रु.

अंजुम चौधरी के नेटवर्क में नियुक्त होने वाले पहले सदस्यों में से एक हैं एडम दीन.

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वो कहते हैं, "मुझे इस पूरी बात की सादगी ने आकर्षित किया कि मैं एक मुसलमान हूं और मुझे इन विचारों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए और मैं एक इस्लामी राज्य का हिस्सा हूं और इसके अलावा जो कुछ भी है वो ग़लत है और बुरा है."

लेकिन अंजुम चौधरी पर कभी भी हिंसक साज़िश रचने का आरोप नहीं लग सकता था – उन्हें बम बनाना नहीं आता था.

लेकिन वो और उनका नेटवर्क नफ़रत और विभाजन की वैचारिक सामग्री को समर्थकों के दिमाग़ में भरते रहे. और फिर वो उन्हें छोड़ देते कि तुम अंतिम फैसला लो.

जैसे उमर शरीफ़ जो एक ब्रितानी थे जिन्होंने 2003 में तेल अवीव में आत्मघाती हमला किया.

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और ब्रुसथोम ज़ियामानी जिन्हें लंदन की सड़कों पर हत्या की प्लानिंग करने के लिए 12 साल की जेल हुई.

और शायद इसलिए अंजुम चौधरी को इसी आरोप के तहत दोषी ठहराया जा सकता था कि वो दूसरों को प्रतिबंधित इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने के लिए प्रेरित करते थे.

अंजुम चौधरी वो सब कुछ हो सकते थे जो वो बनना चाहते थे.

पांच बच्चों के पिता 49 साल के अंजुम चौधरी मेडिसिन की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी गए और फिर क़ानून की पढ़ाई की और वकील बन गए. नागरिक और मानव अधिकारों के मुद्दों पर काम किया ख़ासतौर पर नस्लभेदी मामलों पर.

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बतौर छात्र वो शराब पीते थे, पार्टियों में जाते थे और फिर उन्हें अल्लाह मिल गए. वो उमर बकरी मोहम्मद के संपर्क में आए.

सीरिया में जन्मे उमर बकरी मोहम्मद ने 1990 के शुरुआत में यूके में इस्लामिक जिहादी राजनीति शुरू की.

बकरी, लेबनान की एक जेल में हैं. लेकिन 20 साल पहले उन्होंने हिज़्ब उत-तहरीर से अलग होकर ब्रितानी गुट अल-मुहाजिरीन का गठन किया.

उनका मानना था कि पूरी दुनिया को शरिया क़ानून के तहत लाना चाहिए और अंजुम चौधरी उनके दाहिना हाथ बन गए.

7/7 हमलों के बाद बकरी यूके छोड़कर भाग गए. हालांकि इन हमलों में वो सीधे तौर पर शामिल नहीं थे.

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ऐसे में अंजुम चौधरी ही कर्ता-धर्ता बन गए. अंजुम चौधरी को सुर्खि़यों में रहना और मीडिया का ध्यान मिलना अच्छा लगता था.

7/7 बमबारी पर अंजुम चौधरी ने कहा कि वो हत्या का समर्थन नहीं करते. लेकिन उन्होंने न घटना और न धमाका करने वालों की आलोचना की.

लेकिन जून 2014 में उनकी दुनिया हिल गई. सीरिया और इराक़ में इस्लामिक स्टेट का वर्चस्व कायम हो गया.

ना पश्चिम को और ना ही अंजुम चौधरी को समझ आ रहा था कि कैसे प्रतिक्रिया दी जाए.

क्या ये वही इस्लामिक स्टेट था जिसका आहवान वो अपने लंबे भाषणों में करते थे?

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उन पर दबाव पड़ने लगा कि इस मुद्दे पर वो खुलकर सामने आएं. चौधरी ने इस्लामिक स्टेट का समर्थन कर दिया.

उन्हें लगा कि वो कानून का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं बल्कि एक राजनीतिक अवधारणा का समर्थन कर रहे हैं.

लेकिन उनके समर्थक आईएस में शामिल होने लगे जिससे वो क़ानून के शिकंजे में आ गए.

आख़िरकार जांचकर्ताओं ने उनके 20 सालों के काम की तफ्तीश की जिसके बाद कोर्ट ने उन्हें दोषी क़रार दिया.

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और इस तरह से हमेशा के लिए अंजुम चौधरी का मुंह बंद हो गया.

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